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चित्र अधूरा है

चित्र अधूरा है

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 मोबाइल की घंटी लगातार बज रही थी...किचन में काम करते-करते उमा झंझला उठी थी...फोन भी कोई नहीं उठायेगा। एक पैर पर खड़ी मैं ही इधर भी देखूँ उधर भी देखूँ..गैस की नाब धीमी करके दौड़ी।

"हैलो " कहते ही सुमित की हर्षातिरेक से भरी आवाज़ सुनाई पड़ी,"ममा, आपके आशीर्वाद से मेरा भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयन हो गया है, मेरिट सूची में मेरा नाम शीर्ष पर होने के कारण आशा है कि मुख्य सेवा में मेरा नाम आ जायेगा...एक दो दिन में घर पहुँचूँगा।"

कुछ और कहती कि उसने फोन रख दिया...शायद बिजी था। मन में छाया तनाव पल भर में दूर हो गया है...सोचा कार्तिकेय को जाकर खुश खबरी दूँ, शयनकक्ष में गई तो देखा कार्तिकेय गहरी नींद में सोये हुए हैं...कल रात्रि एक बजे तीन दिन के टूर के पश्चात् लौटे थे, थके होंगे, वरना छह बजे के पश्चात् तो बिस्तर पर रह ही नहीं सकते। साढ़े छह से सात बजे तक उनका योगा करने का समय है और सात बजे से आस-पास के एरिया की फोन के द्वारा जानकारी हासिल करने का, जिससे कहीं कुछ भी समस्या होने पर तुरंत उसका निदान किया जा सके...वह एक पब्लिक अंडरटेकिंग कंपनी में चीफ जरनल मैनेजर हैं।

अनुज टियूशन गया है तथा पिताजी सुबह की सैर के लिये...सन-सन की आवाज़ आई तो ध्यान आया कि गैस पर दही जमाने के लिये दूध गर्म करने के लिये रखा है । दोपहर के खाने में सबको खाने के साथ ताजा दही चाहिए अतः सुबह उठकर सर्वप्रथम यही कार्य करना पड़ता है, शीघ्र्रता से जाकर गैस बंद की। अनुज ने आज नाश्ते में आलू के परांठे खाने की फरमाइश की थी अतः कुकर में आलू रखकर आटा मलने लगी।

हाथ आटा मल रहे थे किन्तु अनायास ही मस्तिष्क में आठ वर्ष पूर्व की घटनायें चलचित्र की भाँति उसके मनमस्तिष्क से गुजरकर मन में उथल पुथल मचाने लगीं।

   

उस दिन सुबह से ही न जाने क्यों मन उद्वग्नि था, बारहवीं का परीक्षाफल निकलने वाला था...सुमित भी उस दिन वहाँ नहीं था। सुमित को अपने मौसा-मौसी से बेहद लगाव था अतः इस बार छुट्टियों में उसने स्वयं ही दिल्ली मौसी के पास जाने की इच्छा प्रकट की थी। उमा उसे अकेले भेजने में झिझक रही थी किन्तु कार्तिकेय का मत था कि एक उम्र के पश्चात् बच्चों में स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता आनी चाहिये। यह तभी संभव है जब बच्चों को अकेले रहने, आने जाने की सुविधा प्रदान की जाए।

दो दिन पश्चात् सुमित आने वाला था। वैसे तो सुमित पढ़ने में अच्छा था किन्तु बोर्ड की दसवीं की परीक्षा का परीक्षाफल निकलने के पूर्व वह सुमित से ज्यादा नर्वस थी अतः उसके बार-बार पूछने पर कि क्या तुम पास हो जाओगे...एक दिन वह झुझंलाकर बोला था, "ममा, वाय आर यू सो अंडर इस्टीमेट मी, आय विल सरटेन्ली कम इन मेरिट।" सचमुच मेरिट सूची में उसका नाम देखकर घर भर की छाती गर्व से फूल उठी थी। वह सबकी आशाओं का केन्द्र बिंदु बन बैठा था...। दादी कहती, "डाक्टर बनाऊँंगी अपने पोते को, कम से कम बुढ़ापे में मेरी सेवा तो करेगा...मुझे दूसरों के पास दिखाने तो नहीं जाना पड़ेगा...उनका वश चले तो एक ही बार में मरीज का खून चूस लें।" दादा कहते, "डाक्टर नहीं, मैं अपने पोते को अपनी तरह कलक्टर बनाऊँंगा जिससे वह समाज में फैली अराजकता और भ्र्रष्टाचार पर अंकुश लगाकर समाज के उत्थान हेतु कार्य कर सके।"

   

कार्तिकेय चाहते थे कि उनका बेटा उनकी तरह इंजीनियर बनकर देश के नवनिर्माण में सहयोग करे। महाराष्ट्र में उस समय इंजीनियरिंग और मेडिकल के लिये प्रवेश परीक्षा नहीं होती थी । केवल बारहवीं के अंकों के आधार पर काॅलेज में एडमीशन मिल जाता है इस सुविधा का लाभ उठाकर, शहर के नामी काॅलेज में सुमित का दाखिला कराकर हम भविष्य के लिये आश्वस्त हो जाना चाहते थे अतः बारहवीं में उसे गणित और जीवविज्ञान दोनों विषय दिलवा दिये थेे जिससे जिस ग्रुप में ज्यादा अंक होंगे उसी में उसको दाखिला दिलवा सकें। कोई भी उस मासूम की इच्छा नहीं पूछ रहा था...उसे क्या बनना है उसकी रूचि-अभिरूचि किसमें है...? वह मूक दृष्टा थी, डर था तो केवल इतना कि वह कहीं दो नावों में सवार होकर मंझधार में ही न गिर जाए...बस मन ही मन यही मनाती कि वह जो भी करे अच्छा करे क्योंकि आज प्रतियोगिताओं के दायरे में क़ैद बच्चे अपनी सुकुमारता, चंचलता तथा बचपना खोने लगे हैं। 

 प्रतियोगिताओं में उच्च वरीयताक्रम के बच्चे ही सफल माने जाते हैं तथा अन्य सभी असफल । हो सकता है कि उनकी तथाकथित असफलता के पीछे कुछ मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक कारण रहे हों लेकिन उनकी समस्याओं के निदान का समय आज किसके पास है...जो जीता वही सिकंदर वाली मानसिकता असफल बच्चों को दूसरों की नज़रों में आवारा, लफंगा बना देती है...असफलता तोे असफलता ही है मनमस्तिष्क पर लगा एक अमिट कलंक...जिसे मिटा पाना कभी-कभी असंभव होता है। यद्यपि सुमित प्रारंभ से ही पढ़ाई में अच्छा था, सदैव कक्षा में प्रथम ही आता रहा था। शिक्षक भी उससे बेहद प्रसन्न थे...उसने दसवीं बोर्ड की परीक्षा में मेरिट सूची में अपना नाम अंकित कर न केवल अपना वरन् स्कूल नाम भी रोशन किया था, इस वर्ष भी वे उससे यही आशा कर रहे थे।

   

घंटी बजने की आवाज़ सुनकर दरवाज़ा खोला तो अनुज को खड़ा पाया परीक्षाफल के बारे मे पूछने पर सिर झुका कर बोला, "मालूम नहीं ममा, बहुत भीड़ थी अतः देख नहीं पाया।" दोपहर में कार्तिकेय जाकर मार्कशीट लेकर आये। उनका मुँह उतरा देखकर मन में खलबली मच गई, अनहोेनी की आशंका से मन काँप उठा, ‘"क्या हुआ, कैसा रहा रिजल्ट...?" बेचैनी से पूछ उठी थी ।

 "पानी तोे पिलाओ, मुँह सूखा जा रहा है।"

पानी लेकर आई तो कार्तिकेय ने मार्कशीट सामने रख दी। सभी विषयों में कम अंक देखकर अविश्वास की मुद्रा में मुँह से निकल गया, ‘"यह मार्कशीट अपने सुमित की हो ही नहीं सकती...रोल नंबर उसी का है न।"

"क्यों बेवकूफों जैसी बातें कर रही हो, मार्कशीट उसी की है, नाम और रोल नंबर भी उसी का है।" फिर थोड़ा रूक कर बोले, "अच्छा हुआ माँ-पिताजी कानपुर दीदी के पास गये हैं वरना ऐसे नंबर देखकर उनके दिल पर क्या गुजरती ?"   

 "रिएक्जामिन करवाइये।" उनकी बात अनसुनी करते हुए उसने कहा।   

" रिएक्जामिन से क्या होगा ? काॅपियाँ फिर से चैक तो होती नहीं हैं सिर्फ रिटोटलिंग होती है। वैसे भी हर सब्जेक्ट में तो ऐसे ही अंक है। गनीमत है पास हो गया लेकिन ऐसे पास होने से भी क्या फायदा...?’"दुखी स्वर में उन्होंने कहा। 

फिर थोड़ा रूककर बोले, "तुम्हारी सोशल विजिट भी बहुत हो गई थी उन दिनों, उसी का परिणाम है यह रिजल्ट।"

   

कार्तिकेय का इस समय उस पर आरोप लगाना पता नहीं क्यों उमा को बेहद अनुचित लगा था किन्तु स्थिति की गंभीरता को समझकर कार्तिकेय के आरोपों पर ध्यान न देते हुए उमा ने अति आत्मविश्वास से किन्तु धीमे स्वर में कहा,"यह रिजल्ट उसका हो ही नहीं सकता...क्या आप सोच सकते हो कि अभी तक हर परीक्षा में अव्वल आने वाला लड़का एकाएक इतना गिर जायेगा।"

"तुम्हारे कहने से क्या होता है जो सामने है वही यथार्थ है"’ कार्तिकेय ने एक-एक शब्द पर बल देते हुए कहा। 

अनुज को सामने पाकर मन का आक्रोश जुबां पर आ गया तथा कह उठे, "इनको तो हीरो बनने से ही फुर्सत नहीं है, एक ने तो नाक कटा दी और दूसरा शायद जान ही ले ले।" कहकर वह आँफिस चले गये।

अनुज सिर नीचा करके अपने कमरे में चला गया। माँ को गुस्से में उल्टा-सीधा बोलते तो उसने जब तब सुना था किन्तु पिताजी को इतना अपसेट आज के पहले उसने कभी नहीं देखा था। उनके सामने ममा कभी उसे या भईया को कुछ कहती तो वह उनका पक्ष लेते हुए कहते, "बच्चे हैं, अभी शैतानी नहीं करेंगे तो फिर कब करेंगे ? रोने पीटने के लिये तो सारी जिंदगी पड़ी है।"

"चढ़ाओ, और चढ़ाओ अपने सिर पर, कभी अनहोनी हो जाए तो फिर मुझे दोष मत देना।" तब माँ बिगड़कर कहती।   

"अनहोनी कैसे होगी...? मेरे बच्चे हैं, देखना नाक ऊँची ही रखेंगे।" फिर हमारी ओर मुखातिब होकर कहते, "बेटा, कभी मुझे शर्मिन्दा मत करना, मेरे विश्वास को ठेस मत पहुँचाना ।"

   

आज वही डैडी सुमित भईया के परीक्षाफल को देखकर इतने असंतुष्ट हो गये थे कि उसे भी भला बुरा कहने से नहीं चूके। वैसे भईया के रिजल्ट पर तो उसे भी विश्वास नहीं आ रहा था। कभी किसी दिन यदि खराब भी होता तो वह उसे अवश्य बताते, कहीं कुछ गड़बड़ तो अवश्य हुई है। कहीं कंप्यूटर में तो मार्कस फीड करने में किसी ने गड़बड़ी तो नहीं कर दी...भला तीन विषयों में 45, भला ऐसा कैसे हो सकता है...? प्रश्न मस्तिप्क में कुलबुला तो रहा था किन्तु कोई निदान उसके पास भी नहीं था ।

तभी फोन की घंटी बज उठी, फोन अमिता आंटी का था, मम्मी के कमरे में गया तो देखा मम्मी सुबक रही हैं। उनको उस समय फोन देना उचित न समझकर उनसे कह दिया कि वह सो रही हैं। परीक्षाफल पूछने पर कह दिया कि पता नहीं। वह जानता था कि वह काॅलोनी की इनफोरमेशन सेंन्टर हैं, हर घर के समाचार उनके पास रहते हैं और पल भर में ही सबके पास पहुँच भी जाते हैं पता नहीं उनको सबकी घरेलू जिंदगी में इतनी दिलचस्पी क्यों रहती है...!! वैसे जबसे उनकी एकलौती पुत्री ने घर से भागकर विवाह किया है तब से थोड़ा शांत हो गई हैं, लेकिन आदत तो आदत ही है।

"किसका फोन था...?" उमा ने आँसू पोंछते हुए पूछा।   

"अमिता आँटी का।"

 "क्या कहा तूने...?"

 "कह दिया अभी पता नहीं चला है, डैडी ने किसी को भेजा है।"

"कब तक झूठ बोलेंगे...? सच्चाई छिपाने से भी नहीं छिपती...तुम लोगो ने कहीं भी मुँह दिखाने लायक नहीं छोड़ा...कल तक जिनके सामने मैं अकड़ कर कहती थी कि मेरे दोनों बच्चे हीरे हैं, उनको क्या जबाब दूँगी...? अरे ! तुम तो कोयला ही निकले, अपने मुँह पर तो कालिख पोती ही हमारे मुँह पर भी पोत दी। कहते हुये आँसुओं की झड़ी लग गई थी।

 अनुज जानता था कि अभी माँ से कुछ भी कहना ठीक नहीं है...उमा सदमे की स्थिति में कहती जा रही थी..."अरे, इन्हीं हाथों से खिलाया, पिलाया, पढ़ाया, दिन रात एक कर दिये। अपनी सभी इच्छायें तुम दोनों पर कुर्बान कर दीं, क्या मिला मुझे...? यह अपमान, दुख और संताप....!!"

तभी घंटी बजी, अनुज दरवाज़ा खोलने गया तो देखा रमा ताई खड़ी हैं। वह बिना कुछ पूछे या कहे सदा की तरह अंदर चली गई तथा उमा की अव्यवस्थित हालत देखकर बोली, "क्या हालत बना रखी है उमा तुमने...?"

   

"क्या करूँ दीदी ? आप ही बताओ...!! दो बेटियों से भी ज्यादा मुश्किल आज बेटों को पालना है। बेटी एक बार न भी पढ़ें तो योग्य लड़का देखकर विवाह कर दो, उनका जीवन कट ही जायेगा लेकिन अगर लड़के कुछ नहीं बन पाये तो क्या करेगे? आपके भईया के पास इतना पैसा भी नहीं है कि इन्हें कोई व्यवसाय ही करा दें। लेकिन जब पढ़ ही नहीं पायेंगे तो यह भी तो आवश्यक नहीं कि व्यवसाय में भी सफल हो जायेंगे। हर जगह प्रतियोगिता है दीदी आज अगर एक जगह सफल नहीं हो पाये तो कैसे आशा करें कि दूसरी जगह भी सफल हो जायेंगे।"

"क्यों बेकार की बातें सोचकर मनमस्तिष्क को खराब कर रही हो उमा...जीवन धूपछांव की तरह है, कभी सुख, कभी दुख, कभी सफलता, कभी असफलता...सच्चा मानव तो वह है जो किसी भी परिस्थति में हार न माने...सदा धैर्य और संयम का परिचय देते हुए लक्ष्य प्राप्ति हेतु निरंतर संघर्ष करता रहे । जरा सोचो जब तुम्हें इतना दुख हो रहा है...अपमानित महसूस कर रही हो तो सुमित को कितना होगा ? उमा, सुमित अत्यंत ही भावुक लड़का है, उसके आने पर तुम्हें अत्यंत ही संयमित व्यवहार करना होगा। उसे धैर्य बंधाना होगा, सोचना होगा कि आगे क्या और कैसे करना है ? एक बार एक परीक्षा में असफल होने का अर्थ यह नहीं है कि वह नकारा हो गया...हो सकता है अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल हो जाये।"

"आप ठीक कह रही हैं दीदी, लेकिन मन स्वमेव बेकाबू होे उठता है...क्या-क्या स्वप्न संजोये थे...सब निष्फल हो गये।" उमा ने कहा ।

 "फिर वही बात...धैर्य रखो, सब ठीक हो जायेगा, दूर क्योें जाती हो...अपने देवर विक्रम कोे ही देखो...दो बार मैटिफक में फेल होने के बावजूद पी.सी.एस. एलाइड में सलेक्ट हुआ या नहीं। हिम्मत रखो, यदि तुम ही मुँह छिपाओगी तो दूसरों को कहने का और भी मौका मिलेगा...सामने भले ही वे अफसोस जाहिर करें लेकिन पीठ पीछे वही लोेग मजाक बनाने से नहीं चूकेंगे...। जोे हुआ सोे हुआ...हमारा दुख है, हमें ही उसे सहन करते हुए उपाय ढूंढ़ना पड़ेगा।"

"लेकिन दीदी, दूसरों की उपहास भरी निगाहों से कैसे पीछा छुड़ाऊँगी...यही विचार मन को व्यथित किये जा रहा है।"

 "यह बताओ उमा कि तुम्हें अपने बेटे की ज्यादा फ्रिक है या समाज की।"

 उसे चुप देखकर उन्होंने पुनः कहा, "उमा, यही तो हमारी तुम्हारी कमी है हम अपनों की परवाह न कर समाज की ज्यादा चिंता करते हैं । समाज जो न सुख में हमारा साथ देता है और न ही दुख में...। समाज का क्या उसे जो कहना है कहेगा ही...। अब हम उसके अनुसार अपने व्यवहार का निर्धारण तो नहीं कर सकते !! अतः तुम्हें समाज की परवाह न कर सुमित के बारे में सोचना होगा । उसको डाँटने-फटकारने की बजाय उसकी इच्छा जाननी होेगी । कारण पता लगाना होगा कि ऐसा किस वजह से हुआ है। "

"आप ठीक कह रही हैं दीदी, शायद यही उचित मार्ग है।"


उसकी जिठानी रमा उसकी बहन जैसी थी। वह भरी जवानी मे ही विधवा हो गई थीं समाज की परवाह न कर छोटी नौकरी करते हुए उन्होंने न केवल बच्चों को पढ़ाया वरन् स्वयं भी एम.ए., बी.एड. करके आज माध्यमिक स्कूल में शिक्षिका के पद पर कार्यरत हैं...दोनों बच्चे अच्छी जगहों पर नौकरी कर रहे हैं तथा उन्हें भी अपने मृदु व्यवहार के कारण समाज में सम्मानजनक स्थान प्राप्त है। शाम को कार्तिकेय के आफिस से आने के पश्चात् उमा ने रमा दीदी के द्वारा दी गई बात बताई तो उन्हें भी महसूस हुआ कि सुमित को विश्वास में लेकर ही कुछ निर्णय लिया जा सकता है।

तीसरे दिन सुमित आया, उसने आते ही पूछा, "ममा, रिजल्ट निकला क्या...?"

"हाँ, निकल तो गया, लेकिन बताओ तुम्हें कितने प्रतिशत अंक की आशा थी।" कार्तिकेय ने पूछा। 

"लो बेटा, पहले नाश्ता कर लो, बाद में अन्य बातें होती रहेंगी, तुम्हारे लिये गर्मागर्म आलू के परांठे बनाये हैं।" उमा ने उनकी बात कोे बीच में काटते हुए कहा।   

"क्या बात है ममा, आपने मेरी बात का जबाब नहीं दिया...!!" उसने हम दोनों की ओर अविश्वास की मुद्रा में देखते हुए कहा। 

 "बताते हैं बेटा, तुम नाश्ता करो...यह बताओ कि तुम्हें कितने प्रतिशत अंक आने की आशा थी"’ कार्तिकेय ने पुनः पूछा ।

 "नब्बे से पिच्चानवे प्रतिशत तो आने ही चाहिये, पहले आप मार्कशीट दिखाइये तभी मैं नाश्ता करूँगा।"

  उसे ज़िद पर अड़ा देखकर कार्तिकेय ने मार्कशीट उसे दे दी। मार्कशीट देखकर वह बौखलाकर बोला, "यह मेरे अंक हो ही नहीं सकते।"

"शांत हो जाओ, धैर्य रखो कभी-कभी ऐसी अनहोेनी हो जाती है, तुम यदि चाहते होे तोे रिएक्जामिन करवायेंगे।"

रिएक्जामिन से क्या होगा पापा !! जब तक उसका रिजल्ट आयेगा तब तक तो सब जगह एडमीशन हो जायेंगे...मेरा तो भविष्य ही बिगड़ गया।" कहते हुए वह कमरे में घुस गया तथा कमरा अंदर से बंद कर लिया।

"अरे, कोई उसे रोको, कहीं कुछ कर न ले...।" उमा कार्तिकेय की ओर देखकर चिल्लाई ।   

"नहीं, वह कुछ नहीं करेगा, वह मेरा बेटा है। उसे कुछ समय के लिये अकेला छोड़ दो।" कार्तिकेय ने अतिआत्मविश्वास के साथ कहा।

इतनी देर से अनुज दीवार से लगा सबकी बातें सुन रहा था लेकिन सुमित का कमरा बंद करना उसे झकझोर गया। वह डर के कारण उसके पास आकर निशब्द खड़ा हो गया। उसकी आँखें कह रही थीं, ममा, भइया को रोको...शायद उसे भी उसी की तरह अपने पापा की बात पर यकीन नहीं हो रहा था।   

अनुज की ऐसी मनःस्थिति देखकर कार्तिकेय ने दरवाज़ा खट्खटाते हुए कहा, "सुमित बेटा, दरवाज़ा खोलो, बाहर आओ...हम सब तुम्हारे दुख में बराबर के हिस्सेदार हैं, सुख तो तुम एक बार अकेले झेल भी लोगे लेकिन दुख अकेले नहीं झेल पाओगे...दुख सबके साथ बाँटने पर ही हल्का हो पाता है।"

कार्तिकेय की बात सुनकर सुमित ने दरवाज़ा खोला तथा उनसे लिपटकर रोने लगा, "विश्वास कीजिए पापा, मेरे सारे पेपर अच्छे हुए थे...पता नहीं अंक क्यों इतने कम आये हैं।"

"कोई बात नहीं बेटा, जीवन में कभी-कभी अप्रत्याशित घट जाता है, उसके लिये इतना निराश होने की आवश्यकता नहीं है। अब हमें आगे के लिये सोचना है...। क्या करना चाहते हो ? अगले वर्ष प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठना चाहोगे या किसी कालेज में पेमेंट सीट में दाखिला लेकर पढ़ना चाहोगे।"

"पापा, मैं पेमेंट सीट में दाखिला लेकर पढ़ने के बजाय प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल होकर अपनी योग्यता सिद्व करना चाहूँगा।" उसके शब्दों में आत्मविश्वास छलक रहा था।

उसने वहीं एक कोचिंग संस्थान में दाखिला ले लिया, पूरे साल खूब मेहनत की। कभी अनुज बाहर घूमने की ज़िद करता तो कभी चला जाता और कभी मनाकर देता था।

 समय आने पर प्रतियोगी परीक्षाओं का फार्म भर दिया...प्रतियोगी परीक्षा देकर जब आया तो उसके माथे पर परेशानी की लकीरें खिंची देख, उसने पूछा तो बोला, " ममा, पता नहीं क्यों नर्वस हो गया...आते हुए भी प्रश्नों को ठीक से हल नहीं कर पाया।"

उमा उसे समझाती कि परीक्षा के पहले ज्यादा टेंशन न लिया करो, जल्दी सो जाया करो पर वह देर रात तक पढ़ता रहता...शायद उसकी एक असफलता ने उसके आत्मविश्वास को डगमगा दिया था ।

   

कार्तिकेय को उससे बड़ी उम्मीदें थी, वह दिन भी आ गया जब रिजल्ट घोषित होना था। सफल प्रतियोगी की लिस्ट में उसका नाम न होने पर सभी निराश हो गये थे । एक परिणाम और आना बाकी था...आशा की हल्की किरण बाकी थी।

रिजल्ट आने वाले दिन सब काफी तनाव में थे। उस समय दिवाकर और अनिला भी अपने किसी काम के सिलसिले में वहाँ आये हुए थे । इस बार भी वह सफल नहीं हो पाया...कर्तिकेय का पारा ही चढ़ गया और उन्होंने सुमित को अनाप शनाप कहना शुरू कर दिया । सुमित की मनःस्थिति को जानते हुए भी न जाने क्यों उमा भी स्वयं को रोक नहीं पाई तथा आग में घी डालने का काम करने लगी । उस समय यह भी याद नहीं रहा कि अनिला और दिवाकर की उपस्थिति में ऐसा करना उचित नहीं है । किशोरावस्था में प्रवेश करते बच्चों को एक बार अकेले में डाँट भी लो पर किसी के सामने उन्हें डाँटना भरे बाजार में नंगा करने जैसा है !!

उस स्थिति से सुमित को उबारने का काम दिवाकर ने किया था। उसने कार्तिकेय को चुप कराते हुए नम्र शब्दों में कहा "जीजाजी, यहाँ न अच्छे स्कूल हैं और न ही अच्छे कोचिंग संस्थान, आप इसे हमारे साथ दिल्ली भेज दीजिए...।"

"हाँ जीजू , ये ठीक कह रहे हैं...सुमित को ये अपने कालेज में दाखिला भी दिलवा देंगे और कोचिंग भी चलती रहेगी। सुमित को मैं किसी बात की कोई कमी नहीं होने दूँगी , अगर एक बार सफल नहीं हो पाया तो क्या हुआ ? मैंने इसकी योग्यता देखी है...अगली बार यह अवश्य सफल होगा।" अनिला जो स्वयं भी टीचर थी, ने सुमित को अपने गले से लगाते हुए कहा।

अनिला के गले लगाते ही वह बच्चों की तरह फफक-फफक कर रो पड़ा था...

"न...न मेरे बच्चे ऐसे हिम्मत नहीं हारते...जितने भी बड़े व्यक्ति हुए है, उन्हें जीवन में पग-पग पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है । तप-तप कर ही लोहा कुंदन बनता है। स्वयं को संभालो बेटा, टूटकर बिखरना तो तुम्हारी नियति नहीं है । तुम्हें आगे बढ़ना है...बहुत आगे...पर पहले तुम्हें स्वयं पर भरोसा करना होगा।"


सुमित अपने मौसा जी एवं मौसी के साथ चला गया था, उमा की सुमित को दिल्ली भेजने की बिल्कुल भी इच्छा नहीं थी, पर परिस्थतियाँ ही ऐसी बन गई थी कि उसे दिल्ली जाना पड़ा...या उसे भेजना पड़ा। अनुज भी सुमित के दूर हो जाने के कारण उदास होे गया था...। दोनों एक दूसरे के बिना रह नहीं पाते थे । दिन में कितनी ही बार लड़ते पर तुरंत ही सुलह भी कर लेते थे । कभी-कभी उनकी वक्त वेवक्त की लड़ाई से वह भी परेशान हो जाती थी।

एक बार उन्हें ऐसे लड़ता देखकर असंयमित होेकर वह कह बैठी, "पता नहीं कब तुम दोनों को अकल आयेगी...? यह नहीं कि शांति से बैठकर परीक्षा की तैयारी करो । पड़ोस के नंदा साहब के लड़के को देखो, प्रथम बार में ही मेडिकल में सलेक्शन होे गया। कितनी प्रसंशा करती हैं वह अपने बेटे की...मैं किस मुँह से तुम्हारी तारीफ करूँ...? यही हाल रहा तोे जिंदगी में कुछ भी नहीं कर पाओगे...जब तक हम हैं दाल रोेटी तोे मिल ही जायेगी, उसके बाद भूखों मरना...।"

सुमित तो सिर झुका कर बैठ गया किन्तु अनुज बोेल उठा, ‘"ममा, आपने कभी अधूरे चित्र को देखा है कितना अनाकर्षक लगता है।"

उसे असमंजस में पड़ा देखकर पुनः बोला, ‘"ममा, अभी हम अधूरे चित्र के समान ही हैं...कभी कोई चित्र शीघ्र पूर्णता प्राप्त कर लेता है और कभी-कभी पूर्ण होने में समय लगता है ।"   

उसकी बात का आशय समझकर झुंझलाकर कह उठी, ‘"बेटा, पूत के पाँव पालने में ही पता चल जाते हैं।"

कार्तिकेय जो पीछे खड़े सारा वार्तालाप सुन रहे थे, भी कह उठे, "बातें बनाना तो बहुत आसान है बेटा, किन्तु कुछ कर पाना...कुछ बन पाना अत्यंत ही कठिन है । जब तक परिश्रम और लगन से ध्येय की प्राप्ति की ओर अग्रसर नहीं होंगे, तब तक सफल नहीं हो पाओगे।"   

   

सुमित का ऐसे अचानक दिल्ली जाना उमा को भी अच्छा नहीं लगा था...यह सोचकर मन को समझाने का प्रयत्न करती कि शायद दिल्ली भेजने में ही उसकी भलाई निहित हो । हो सकता है यहाँ के लोगों में उसके प्रति आती उपहास या व्यंग्य की भावना उसे सहज नहीं होने दे रही हो...!! कभी-कभी स्थान परिवर्तन भी व्यक्ति की मानसिकता को परिवर्तित कर उसमें सुखद परिवर्तन ला देता है...और फिर जब स्वयं सुमित की भी यही इच्छा है तो उसे रोकना उसके पैरों में बेड़ियाँ पहनाने जैसा होता...। वैसे भी जीवन में कुछ पाने के लिये कुछ खोना ही पड़ता है...बच्चों कोे सदा बांधकर तोे नहीं रखा जा सकता । संतोेष था तो केवल इतना कि दिल्ली जैसे महानगर में वह अकेला नहीं वरन् दिवाकर और अनिला की छत्रछाया एवं मार्गदर्शन में रहेगा । दिवाकर दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं । सुमित को सदा प्रथम आते देखकर उन्होंने कई बार कहा था कि उसे दिल्ली भेज दो जिससे वह प्रतियोगी परीक्षाओं की उचित तैयारी कर, किसी अच्छे इंस्टिट्यूट से इंजीनियरिंग या मेडिकल की डिग्री ले ले तोे उसके भविष्य के लिये अच्छा होगा...। 

वह उनकी बातों को सदा अनसुना करती रही थी। उसे लगता था कि बच्चे जब तक साथ रह सकें, रह लें वरना एक बार उनका पैर बाहर निकला, वे सदा के लिये दूर हो जाते हैं । इस बार उनके निर्णय को मजबूरी में स्वीकार करना पड़ा।

   

अनिला ने बताया कि वह मेडिकल या इंजीनिंयरिंग में न जाकर सिविल सेवा में जाना चाहता है अतः उसी दृष्टि से उसका वहाँ एडमीशन करा दिया है। अपनी इच्छा के विपरीत जाने पर कार्तिकेय ने सुमित से बात करना ही छोड़ दिया था । बीच में एक बार वह घर आया भी पर अपने पिता के रूख को देखकर, वह अपने कमरे में ही बंद पड़ा किताबों में सिर छिपाये रहता।

उमा के मुँह से भी जब-तब न चाहते हुए भी अनचाहे शब्द निकल जाते थे...उसे लगता था जब मेडिकल या इंजीनियरिंग में ही नहीं आ पाया तो सिविल सेवा में कैसे आ पायेगा...? वह तो और भी कठिन होती है...एक बार ऐसे क्षण पिताजी ने उससे कहा था...

   

"उमा, तुझमें धैर्य क्योें नहीं है...जीवन में प्रत्येक वस्तु...प्रत्येक इच्छा पलक झपकते ही प्राप्त नहीं होती वरन् उसके लिये धीरज रखना पड़ता है । यह बात और है कि किसी-किसी को अपने ध्येय में सफलता थोड़े से प्रयत्न करने के पश्चात् ही मिल जाती है और किसी को अथक परिश्रम करने के पश्चात् भी नहीं मिलती है लेकिन सच्ची लगन, धैर्य और विश्वास होे तोे कोेई कारण नहीं कि मानव निज लक्ष्य कोे प्राप्त न कर पाये...पता नहीं इंसान जरा सी असफलता से ही व्यर्थ ही इतना विचलित क्योें होे उठता है कि अपने ही खून को अपमानित करने से नहीं चूकता...!! अच्छा यह बता, सुमित इस समय स्वयं परेशान है ऐसे समय तुम्हारा उसे डाँटना या अपमानित करना क्या उसका मनोबल नहीं तोड़ेगा ?"

   

पिताजी की बात सुनकर उमा को भी महसूस होने लगा था कि अभी तक उनका व्यवहार ही सुमित के प्रति गलत रहा है, तभी उसमें आत्मविश्वास की कमी आती जा रही है...। हो सकता है वह पढ़ने का प्रयत्न करता हो लेकिन अति दबाव में आकर वह पूरी तरह ध्यान केंद्रित न कर पा रहा हो !! शायद प्रारंभ से ही बच्चों को हम अपनी आकांक्षाओं ,आशाओं के इतने बड़े जाल में फांस देते हैं कि वह बेचारे अपना अस्तित्व ही खो बैठते हैं। 

 वे समझ नहीं पाते हैं कि उनकी स्वयं की रूचि अभिरूचि किसमें है, उन्हें कौन से विषय चुनने चाहिये ? वैसे भी हमारी आज की शिक्षा प्रणाली बच्चों के सर्वागीढ़ विकास में बाधक है, वह उन्हें सिर्फ परीक्षा में सफल होने हेतु विभिन्न प्रकार के तरीके ही उपलब्ध कराती है न कि जीवन के रणसंग्राम में विपरीत परिस्थितियों से जूझने के लिये भी उन्हें तैयार करती है । बच्चे की सफलता-असफलता....योग्यता का मापदंड केवल विभिन्न अवसरों पर होने वाली परीक्षायेें ही हैं...चाहे उसे देते समय बच्चे की शारीरिक, मानसिक स्थिति कैसी भी क्यों न होे...? इसीलिये शायद बच्चों में आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है ।

उसने निश्चय कर लिया था कि वह सुमित की परीक्षा की इन घड़ियों में अपने मधुर वचनों से या उसके मार्ग में आने वाली कठिनाइयों, परिस्थितिजन्य मन में उत्पन्न कुंठा की ग्रंथियों का पता लगाकर उसका मनोबल बढ़ाने का प्रयास करेगी, उसका साथ देगी । ऐसा कोई कार्य नहीं करेगी जिससे उसका मनोबल टूटे।  

   

सुमित को बचपन से ही उससे अधिक अपने पापा से लगाव था अतः उनकी बेरूखी से वह बुरी तरह घायल था। अनिला कहती...दीदी, सुमित ने स्वयं को पढ़ाई में डुबो लिया है लेकिन वह गुमसुम होता जा रहा है...लगता है जैसे उसका आत्मविश्वास खो गया है। इस बार जबसे वह घर से लौटा है तबसे वह और भी ज्यादा निराश है, शायद अपनी उपेक्षा या अवहेलना के कारण वह आहत एवं कुंठित होता जा रहा है ।

   

सुमित के न आने के कारण उमा ही बीच-बीच में जाकर उससे मिल आती थी तथा जब तब उससे फोन पर बात करके उसका मनोबल बढ़ाने का प्रयास करने लगी थी । उसे अकेला ही आया देखकर वह निराश होे जाता था। वह जानती थी कि उसकी आँखें पिता के प्यार के लिये तरस रहीं हैं लेकिन कार्तिकेय ने स्वयं को एक कवच में बंद कर रखा था जहाँ उनकी अवहेलना से आहत बेटे की आह पहुँच ही नहीं पाती थी। शायद पुरूष बच्चों की सफलता कोे ही ग्रहण कर गर्व से कह सकता है...आखिर बेटा किसका है...? लेकिन एक नारी...एक माँ ही बच्चों की सफलता-असफलता से उत्पन्न सुख-दुख में बराबर का साथ देकर उन्हें सदैव अपने आँचल की छाया प्रदान करती रहती है।   

पिता-पुत्र के शीत युद्ध ने पूरे घर के माहौल को बदल दिया था । हँस मुख अनुज के व्यक्तित्व में भी परिवर्तन आ गया था । वह भी धीरे-धीरे गंभीर होता जा रहा था, सिर्फ काम की बातें ही करता था...पूरे दिन अपने कमरे में कैद किताबों में ही उलझा अंतर्मुखी होता जा रहा था शायद पापा की खामोशी ने उसे भी बेताहशा झकझोर कर रख दिया था।   

   

अनिला से ही पता चला कि सुमित ने बी.ए. न केवल प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की है वरन् अपने कॉलेज में भी टाॅप किया है । उसने सिविल सर्विसेस की कोचिंग पढ़ाई के साथ-साथ प्रारंभ कर दी थी । अब वह उसी में रात-दिन लगा रहता है। सुनकर मन को अच्छा लगा...बस मन ही मन यही प्रार्थना करती कि हे ईश्वर उसे इतनी शक्ति दे कि वह अपने इस ध्येय में कामयाब हो सके।

   

कार्तिकेय इस समाचार को सुनकर भी निर्विकार ही रहे...पिताजी के हँसमुख स्वभाव के कारण ही घर में थोड़ी रौनक थी वरना अजीब सी खामोशी छाती जा रही थी...माँजी की मृत्यु के पश्चात् वह दोेपहर का समय अनाथाश्रम जाकर बच्चों और प्रौढों कोे शिक्षादान देनेे में व्यतीत करते थे । इस नेक कार्य की दीप्ति से आलोकित उनका तन-मन मरूस्थल होे आयेे घर में थोड़ी शीतल बयार बहाकर प्रसन्नता देने का प्रयास करता रहता था ।


आज सुमित के फोन ने उसके वर्षो के तनाव को दूर कर दिया था...उसे याद आये वर्षो पूर्व पिताजी के कहे शब्द..."उमा, तुझमें धैर्य क्योें नहीं है...? जीवन में प्रत्येक वस्तु...प्रत्येक इच्छा पलक झपकते ही प्राप्त नहीं होती वरन् उसके लिये धीरज के साथ प्रयत्न करना पड़ता है, यह बात और है कि किसी-किसी को अपने ध्येय में सफलता थोड़े से प्रयत्न करने के पश्चात् ही मिल जाती है और किसी को अथक परिश्रम करने के पश्चात् भी नहीं मिलती है लेकिन सच्ची लगन, धैर्य और विश्वास होे तोे कोेई कारण नहीं कि मानव निज लक्ष्य कोे प्राप्त न कर पाये...।"

आज सचमुच पिताजी की कही बात सत्य सिद्ध हो गई थी, अकारण ही वह इतने वर्षो से मानसिक तनाव झेेलने रही थी...

"उमा बेटा, एक कप चाय मिलेगी...।" सुबह की सैर से लौटकर आयेे पिताजी ने किचन में आकर दूध रखते हुए कहा ।

"बस एक मिनट पिताजी...।" कहते हुये वह विचारों के चक्रव्यूह से बाहर निकली ।

वास्तव में उनकी सैर और ताजा दूध लाने का काम दोनों साथ-साथ हो जाते थे, कभी-कभी सब्जी, फल इत्यादि यदि अच्छे और उचित दाम में मिल जाते तो वह भी ले आते थे । इस तरह उनकी सैर बहुउद्देशीय बन गई थी ।  

" पिताजी आपका स्वप्न पूरा होे गया ।" चाय का कप टेबल पर रखते हुए उमा ने कहा ।

 "स्वप्न...कैसा स्वप्न...? क्या सुमित सिविल सर्विसेज में आ गया...? आज रिजल्ट निकलने वाला था ।" उन्होंने पूछा ।

 "हाँ पिताजी, सुमित का फोन आया था...।"

  "मुझे मालूम था...वह अवश्य सफल होगा, आखिर पोता किसका है...!!’ वह हर्षातिरेक से बोेल उठे थे, साथ ही आँखों में खुशी के आँसू छलक आये थे ।   

"सब आपके आशीर्वाद के कारण ही हुआ है ।" उमा ने उनके पैर छूते हुये कहा ।

   

"बेटा, बड़ों का आशीर्वाद तोे सदा ही बच्चों के साथ रहता है लेकिन उसकी सफलता का मुख्य श्रेय दिवाकर और अनिला को है जिन्होंने उसको पल-पल सहयोग एवं मार्गदर्शन दिया वरना जैसा व्यवहार उसे तुम दोनों से मिला उस स्थिति में वह या तो वह जिंदगी से पलायन कर जाता या पथभ्र्रष्ट होकर चोेर उच्चका बन जाता...।"

पिताजी ज्यादा ही भावुक हो चले थे, वरना इतने कठोर वचन वे कभी नहीं बोलते...वह सच ही कह रहे थे । वास्तव में दिवाकर और अनिला ने उसे उस समय सहारा दिया जब वह उनकी ओर से निराश हो गया था...। 

पीछे मुड़ी तो देखा कार्तिकेय खड़े हैं । एक बार फिर उनका चेहरा दमक उठा था शायद आत्माभिमान के कारण...योग्य पुत्र के योग्य पिता होेने के कारण...। वह जानती थी कि वह निज मुख से प्रशंसा का एक शब्द भी नहीं कहेंगे...वह कुछ कहने के लिये उद्यत हुई कि फोन की घंटी बज उठी और वह व्यस्त हो गये....पर अंत में यह कहना भी नहीं भूले कि उनके सुमित का प्रशासनिक सेवा में चयन हो गया है ।

   

आज सुमित के कारण हमारी नाक ऊँची हो गई है...कल तक जो बेटा नालायक था, आज वह लायक हो गया है, संतान योग्य है तोे माता-पिता भी योग्य होे जाते हैं वरना पता नहीं कैसे परवरिश की बच्चों की, कि वे ऐसे निकल गये, के ताने सुन-सुनकर जीना दुश्वार हो जाता है...यह दुनिया का कैसा दस्तूर है...?

आज का मानव जीवन में आये तनिक से झंझावातों से स्वयं कोे इतना असुरक्षित क्यों महसूस करने लगता है कि अपने भी उसे पराये लगने लगते हैं अनुज का कथन याद हो आया था...एक अधूरा चित्र तो पूर्णता की ओर अग्रसर हो रहा है, दूसरा भी समय आने पर रंग बिखेरेगा ही इस आशा ने मन प्राण में नव उमंग जगा दी थी।



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