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Asha Pandey

Drama

4.2  

Asha Pandey

Drama

उत्तर का आकाश

उत्तर का आकाश

19 mins
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‘इतना उचक-उचक कर मत देखो बाबा, नही तो खाई में जा गिरोगे। रोज की तरह आज भी वहाँ कुछ बादल हैं। थोडी-सी धूप है, बहुत ज्यादा ठण्डी है। अब वहाँ कुछ नया नही होने वाला। क्यों जान जोखिम में डाले दूरबीन लिए फिरते हो ?”

                                               

नाश्ते की प्लेट मेरे सामने रखते हुए जब होटल के लडके ने उस व्यक्ति को आवाज लगाई, तब मेरा ध्यान बरबस उसकी तरफ चला गया। पिछले तीन दिन से, जब से मसूरी में रुका हूँ, नाश्ता करने इसी होटल में आ जाता हूँ और बिला नागा प्रतिदिन उस व्यक्ति को दूरबीन के सहारे आकाश में कुछ टटोलते पाता हूँ।

                                               

भूरे रंग का ओवरकोट और काले रंग की टोपी के नीचे कुछ तलाशती हुई खामोश आँखें। आँखों के इर्द-गिर्द गझिन झुर्रियों जैसी सिकुडन। उसके थोडा नीचे गुलाबी गालों पर कुछ अधिक लाल चकत्ते। गले में सस्ती-सी दूरबीन। पैरों में मोटा काला जूता। उम्र कोई पचास से पचपन के आस-पास। अपने भीतर उमडती कौंध से पूरी तरह जकडा हुआ, किन्तु बेखबर। पिछले एक हप्ते से इस रूप में तनिक भी परिवर्तन नहीं हुआ है। मैं उस लडके से पूछता हूँ-

‘‘कौन हैं ये ? प्रकृति-प्रेमी लगते हैं|”

‘‘काहे के प्रकृति-प्रेमी बाबूजी, मसूरी के आकाश में तिब्बत की हवा खोजते हैं। कौन समझाए इन्हें कि हवाएँ भी कैद होती हैं, नही आ सकती हैं सुकून देने, तुम तडपते रहो जीवन भर उस ठण्डी सुरसुरी के लिए|”

लडके के आवाज देने पर वह व्यक्ति होटल में आकर मेरे सामने वाली बेंच पर बैठ जाता है। लडका आलू का पराठा और दही उस व्यक्ति के सामने रख देता है, जिसे वह सिर नीचा करके धीरे-धीरे खाने लगता है।

                                               

अपनेपन का एक टुकडा एहसास ही तो तलाशता है वह आकाश में, जिसे न पाने की लाचारगी उसके चेहरे पर साफ झलक रही है। झेंप मिटाने की खातिर वह उस लडके पर ही गुर्राया,

‘‘पराठे को ठीक से सेंका भी नही है... कच्चा है, पेट में दर्द होगा तब क्या तू दवा करवाएगा ?”

‘‘क्यों चिल्लाते हो बाबा, पराठा ठीक से सिका है, तुम्हारा मन खराब है इसलिए पराठा कच्चा लग रहा है |”

‘‘क्या खाक सिका है, देखते नहीं, एक भी चित्ती नहीं पडी है|”

‘‘अच्छा बाबा, दूसरा देता हूँ उसे छोड दो।"

लडका अपनी झुंझलाहट को दबाता हुआ दूसरा पराठा लाकर उसकी प्लेट में रख देता है। वह व्यक्ति पराठा खाने लगता है किन्तु उसके चेहरे पर निराशा और बेचारगी के भाव साफ झलक रहे हैं, जिसे छिपाने के लिए वह ठण्ड से सिकुडने का अभिनय करने लगता है।

                                               

मैं ऑडिट दौरे पर एक हप्ते के लिए मसूरी आया हूँ। आज छुट्टी है, सोचा मसूरी घूमूँगा। किन्तु अब मेरी जिज्ञासा इस व्यक्ति के प्रति बढ गई है। व्यक्ति से बात करने की इच्छा हो रही है। जानना चाहता हूँ कि किन यादों से जूझ रहा है यह। कौन सी पीडा इसे चैन से रहने नहीं देती, आकाश में किसको तलाशता रहता है। यूँ तो वह ऊनी कपडो का बण्डल लिए इस होटल में आ जाता है और होटल पर आने वाले ग्राहकों को ऊनी कपडे बेचने का प्रयास करता है किन्तु उसकी बेचैन निगाहें आसमान की तरफ ही उठती रहती हैं जिससे वह विक्रेता कम बेसब्र खोजी अधिक जान पडता है।

                                               

मैं उससे बात करने का सिरा तलाशने लगता हूँ। अचानक मेरी नजर उसकी गठरीनुमा दुकान पर पडती है। मेरी आँखें खुशी से चमक जाती हैं । अच्छा विषय है, बात शुरू करने का। मैं अपनी जगह से उठ कर उस व्यक्ति के करीब जाकर बैठ जाता हूँ पहले तो व्यक्ति थोडा सकपकाता है फिर एक उडती नजर मुझ पर डालता है। मैं भी मुस्कुरा कर उसका स्वागत करता हूँ। बात-चीत शुरू करने का यह अवसर हाथ से निकल न जाए इसलिए झट से एक प्रश्न पूछ लेता हॅूं,

‘‘आप ऊनी कपडे बेचते हैं क्या ?”

‘‘हूँ” - संक्षिप्त-सा उत्तर। मैं हताश होता हूँ लेकिन एक और प्रयास।

‘‘मुझे एक स्वेटर चाहिए.... एकदम गरम|”

                                               

वह पहले तो मुझे देखता है, फिर हाँ में सिर हिला देता है। जैसे कहना चाहता हो- रुको, खा लेने दो फिर दिखाता हूँ। मुझे स्वेटर की जरूरत नहीं है, लेकिन अब बोल पडा हूँ इसलिए देखना पडेगा। देखना क्या, लेना भी पड सकता है। स्वेटर लूँगा तभी तो कुछ देर तक बात कर पाऊँगा और उसकी गहरी पीडा का धागा, जो अब मेरे मन में उलझ गया है, सुलझा पाऊँगा।

                                               

मैं नाश्ता करने ही निकला था पता नहीं जेब में स्वेटर खरीदने भर के पैसे हैं भी या नहीं। मैं जेब टटोलता हूँ, आश्वस्त होता हूँ-कुछ तो है, स्वेटर न सही मोजा, कनटोपा आदि ही खरीद लूँगा। व्यक्ति इत्मीनान से खा रहा है। होटल में दो चार लोग और आ गये हैं। लडका पराठा सेंकने में व्यस्त है। बडी-सी भट्ठी के पास ढेर सारी आलू उबाल कर रखा है। एक महिला उसे छील कर पराठे में भरने के लिए तैयार कर रही है। होटल के सामने थोडी दूरी पर एक टीला है। सोलह-सत्रह साल का एक लडका टीले पर बैठ कर बाँसुरी बजा रहा है। बाँसुरी की धुन बडी मोहक है। टीले से थोडी दूर पर एक पेड के पास बैठी एक पहाडी लडकी उस लडके को टुकुर-टुकुर ताक रही है। लडकी के पास काले रंग का, झबरे बालों वाला एक कुत्ता बैठा है।

                                               

आज आकाश में बादल हैं। थोडी-थोडी देर पर हल्की धूप दिख जाती है। मैं आकाश में देखने लगता हूँ, वहाँ, जहाँ वह व्यक्ति देख रहा था। उसकी खोज को आगे बढाने की कोशिश करता हूँ। पर मेरा प्रयत्न व्यर्थ हो जाता है। वह व्यक्ति क्या खोज रहा था यह तो उससे बात करने के बाद ही ज्ञात होगा। मैं उस व्यक्ति की तरफ देखता हूँ।उसका नाश्ता हो चुका है। वह हाथ-मुँह धो रहा है। मैं अधीर हो उठता हूँ। वह वहाँ से उठता है, ऊनी कपडो का बण्डल लाकर मेरे सामने रख कर खोलता है।

‘‘हाँ बाबूजी, देखिए, कैसा स्वेटर चाहिए ? सब प्योर ऊन के हैं, एकदम गरम। यहाँ मसूरी की ठण्ड में प्योर ऊन ही पहनना पडता है बाबूजी, फिर भी दाँत किटकिटाते रहते हैं । देखिए ये पीले रंग का... मेरे हिसाब से खूब फबेगा आप पर|”

मैं उसे बीच में ही टोकता हूँ-

‘‘तुम हिन्दी अच्छी बोल लेते हो|”

‘‘हाँ बाबूजी, जमाना हो गया यहाँ रहते हुए, सीख गया हूँ।"

वह पीला स्वेटर हाथ में उठाकर खोल लेता है और झटक कर मुझे दिखाता है।

‘‘रंग डिजाइन दोनों अच्छा है बाबूजी... लीजिए हाथ में पकड कर तो देखिये |"

मैं स्वेटर हाथ में लेता हूँ,

"अच्छा तो है, लेकिन मुझे पीला रंग पसन्द नहीं है.... वो दूसरा... नीचे जो सफेद रंग का है..."

‘‘अरे बाबूजी इसकी तो बात ही निराली है। सफेद रंग जिसे पसन्द हो उसको तो कुछ सोचना ही नहीं पडता।... देखिए.... ये तो सबसे बढिया है।"

अब तक उदास और शान्त दिखने वाला यह व्यक्ति कपडो का बण्डल खोलते ही ठेठ विक्रेता हो गया है। मैंने सफेद स्वेटर का दाम पूछा, साढे तीन सौ रुपये। स्वेटर की जरूरत तो नहीं थी किन्तु उस व्यक्ति का बेचने का उत्साह और उससे बात करने की अपनी गहरी इच्छा के कारण मैं स्वेटर खरीद लेता हूँ।

                                               

व्यक्ति खुश हो जाता है। अब उसकी अलसाई और उदास नजरें कुछ चंचल हो जाती हैं।

‘‘दिन भर में कितना कमा लेते हो ?"

बात को आगे बढाने के उद्देश्य से मैने पूछा।

"कुछ निश्चित नहीं है बाबूजी, कभी-कभी तो कई स्वेटर बिक जाते हैं... टोपी, मोजे आदि भी बिक जाते हैं किन्तु, कभी-कभी तो एकाध पर ही सन्तोष कर लेना पडता है|”

‘‘खरीद कर बेचते हो कि घर में बुनते हो ?”

‘‘खरीद कर बाबूजी, पहले मेरी घरवाली दिन भर स्वेटर बुनती थी लेकिन अब उसकी आँखे कमजोर हो गई हैं |”

‘‘यहाँ बहुत शोर है, चलो बाहर उस बेंच पर बैठ कर कुछ गपशप करें।"

मैं उसे होटल की भीड से दूर एकान्त में लाना चाहता हूँ ताकि सहजता से उसके अतीत में प्रवेश कर सकूँ। वह आज्ञाकारी बच्चे की तरह मेरे साथ बाहर आ जाता है। लगता है उसे भी मेरे जैसे किसी व्यक्ति की प्रतीक्षा थी। मैं उसे कुरेदता हूँ।

‘‘एक स्वेटर पर कितना मुनाफा कमा लेते हो ?”

‘‘घर के बुने स्वेटर पर तो अच्छा कमा लेता था, किन्तु अब तो पच्चीस-तीस रुपये से अधिक नहीं मिलते |”

‘‘तुम मन लगाकर बेचते भी तो नहीं हो।"

अब मैं अपने उस प्रश्न पर आ जाता हूँ जिसके लिए इतनी देर से भूमिका बना रहा था।

‘‘बेचता तो हूँ बाबूजी। क्या करूँ ? मालरोड के पास पर्यटकों की अच्छी भीड रहती है, वहाँ बेचूँ तो अधिक बिके किन्तु वहाँ से उत्तर का आकाश साफ-साफ नहीं दिखता। इसलिए मैं यहाँ ऊपर आ जाता हूँ। यहाँ तो आप देख ही रहे हैं...आप जैसे कुछ शौकीन लोग ही यहाँ आते है|"

‘‘ऐसा क्या है उत्तर के आकाश में, जिसके लिए तुम अपने धन्धे पानी तक का नहीं सोचते हो ?”

‘‘बस यूँ समझ लीजिए बाबूजी कि रूह कैद हो गई है वहाँ|”

‘‘लगता है अतीत गहरी पीडा में बीता है|”

‘‘बीता क्या है, अतीत की तहों में आज भी अंगारे दबे हैं बाबूजी|”

‘‘अगर तुम उचित समझो तो कुछ खुल कर कहो। मैं सुनना चाहता हूँ|”

                                               

व्यक्ति के झुर्री भरे चेहरे पर कुछ रेखाएँ उभरी। उसने आँखों को थोडा सिकोडा मानों स्मृति की परतों को खोलने का प्रयास कर रहा हो। फिर एक लम्बी साँस ले अत्यन्त बोझिल और धीमी आवाज में बताना शुरू किया।

‘‘मैं तिब्बती हूँ बाबूजी, पिछले तीस साल से आपके देश में रह रहा हूँ। शुरू के पाँच वर्ष उत्तरकाशी शहर के पास एक गाँव में रहा फिर पेट के जुगाड में मसूरी आ गया। पच्चीस वर्षों से यहीं हूँ। जब मेरे देश को विदेशियों ने हथियाया तब हजारों परिवार वहाँ से भाग कर सुरक्षित स्थानों पर चले गये। मेरे पिता जिद के पक्के थे- मरेंगे तो अपनी ही मिट्टी में।

                                              

तिब्बतियों की आत्मा बडी निर्मल होती है बाबूजी, किन्तु अपनी रक्षा के लिए वो भी एकजुट हो योजनाएँ बनाने लगे। तिब्बत की धरती से हान् (चीनी सैनिक) को भगाने की योजनाएँ। हान् मुट्ठी भर उत्साही तिब्बतियों पर भारी थे। वो अचानक धावा बोलकर हमारे जवानों को पकड लेते थे।.....बहुत मारते थे... मार खाते-खाते कुछ लोगों पर से देश भक्ति का नशा उतर जाता था।... मैं तब बच्चा था, लेकिन रात के अँधेरे में इधर से उधर छिपते-छिपाते विद्रोही तिब्बती जवानों की खुसुर-फुसुर से मैं बात की गम्भीरता का अन्दाज लगा लेता था ।

                                               

मेरे पिता उन उत्साही तिब्बतियों में से थे और इसलिए हान् की शक की नजरें सदा मेरे घर की तरफ उठती रहती थी । जब तब मेरे घर की तलाशी होती थी। एक बार तो पिता को पकड कर ले गए। दो-तीन दिन बाद छोडे। पिता के पूरे शरीर पर मार के निशान थे। न जाने क्या उगलवाना चाहते थे उनसे। माँ पूछती रही, किन्तु पिता ने माँ से सब कुछ छिपा लिया, बोले-सामने वाली पहाडी से लुढक गया था इसलिए इतनी चोट लग गई। माँ ने पिता की बात चुपचाप सुन ली, किन्तु मन ही मन सब समझ गर्इं थीं। समझती कैसे न, पिता की उघडी पीठ सब कह देती थी बाबूजी। माँ रोती थीं, कभी-कभी पिता को समझाती थीं, शान्त रहो अब कुछ नहीं होगा। उनकी ताकत हमसे हजारो गुना अधिक है, किन्तु पिता न सुनते।

                                               

धीरे-धीरे हम भी युवा हो रहे थे। बडो के विद्रोह सिरे से कुचले जा रहे थे फिर भी हम उसी राह पर चलने को तत्पर हो गये।

                                               

थांमे मेरा मित्र था। हट्टा-कट्टा नवजवान। पानीदार आँखे, भावपूर्ण चेहरा पर आग थी कि उसके भी सीने में धधक रही थी। हमारे घर में बहुत सी भेंड़ थीं। जिन्हे चराने हम ऊँची पहाड़ियों पर निकल जाते और वहीं हान् को देश से भगाने की तरह-तरह की योजना बनाते। माँ अब अधिक भयभीत रहने लगीं थीं-- पति की तरह बेटा भी बेमतलब के कामों में उलझ गया।"

                                               

व्यक्ति कुछ चुप हुआ। उसकी वीरान एवं गहरी आँखे ऐसी लग रही थीं मानों समूचा दु:ख उन आँखों में समाया है। होटल में नाश्ता करने वालों की भीड बढ रही है। टीले पर बैठा लडका अब भी बाँसुरी बजा रहा है, कुछ दूर पर बैठी वह पहाडी लडकी अब भी उस लडके को टुकुर-टुकुर ताक रही है। एक गहरी साँस लेकर व्यक्ति फिर से बोलना शुरू करता है।

                                               

"थांमे को दो बहनें थीं। बडी बहन बला की सुन्दर थी। सुन्दर छोटी भी थी किन्तु बडी से उन्नीस ठहरती थी। बडी की आँखो में मेरे लिए भाई जैसा प्रेम तैरता था। मैं उस प्रेम का तिरस्कार न कर सका। छोटी का नाम सोमम् था वह बडी चंचल थी। उसकी शोख निगाहें मुझे अपनी तरफ खींचती थीं। मैं अकसर उससे मिलने थांमे के घर जाया करता था। उसके घर एक घोडा था। दोपहर में सोमम् उसके लिए घास काटने आस-पास की पहाडी पर जाती थी। मैं वहाँ भी पहुँच जाता था। घंटो उसके साथ रहकर भी मन न भरता। मैं सहचरी के रूप में उसे चुनना चाहता था। थांमे और उसके माँ-बाप को यह बात पता थी । उन्हें कोई एतराज भी नहीं था, लेकिन पहले उन्हें बडी लडकी के लिए रिश्ते की तलाश थी।

                                               

एक दिन दोपहर में, जब बहुत ठण्ड थी और बादलों के कारण सूरज अपनी किरणों को ठीक से फैला भी नही पाया था, थांमे मेरे घर आया। ठण्ड से उसके दाँत किटकिटा रहे थे किन्तु खुशी थी कि उबल-उबल पड रही थी। आते ही वह मुझे पकड कर नाचने लगा। माँ, पिता और मै, तीनों ही उससे इस खुशी का कारण पूछते रहे; लेकिन जब वह मुझे नचा-नचा कर थक गया, तब कहीं जाकर बताया कि उसकी बडी बहन का रिश्ता पक्का हो गया है और मुझे भी खुश होना चाहिए क्योंकि मेरे लिए अब रास्ता साफ हो गया है।

                                               

पिता बनावटी गुस्सा दिखाते हुए बोले, इतनी-सी बात पर इतना खुश। मुझे तो लगा कि हान् हमारा देश छोडकर जा रहे हैं यह खुशखबरी देने आया है।

‘‘वो भी जायेंगे, चिन्ता क्यों करते हैं ? इस समय तो आप सभी मेरे घर चलिए एक साथ बैठकर चैंड् (तिब्बती चाय) पियेंगे।" - थांमे की खुशी छलक-छलक पड रही थी।

                                               

उसके घर के अगले कमरे में दो बडी कडाही में कोयले जलाकर रखे गये थे। हम सब वहीं बैठ गए। थामें की माँ ने सब को चैंड दिया। गपशप करते दोपहर कब गुजर गई और शाम कब फैल गई पता ही न चला। शाम को भी थांमे ने हम लोगों को आने न दिया बल्कि वह तो पडोस के दोरजे परिवार को भी बुला लाया। दोरजे परिवार में, दोरजे पति-पत्नी के अतिरिक्त चार बच्चे थे।

                                               

कडाके की ठण्डी थी। थांमे की माँ बार-बार कोयला सुलगाती, लकड़ियाँ जलाती, किसी तरह कमरे को गरम रखने का प्रयास कर रही थीं। दोरजे की दो लडकिया थांमे की बहनों के ही उम्र की थीं। थांमे की माँ ने रात के भोजन का आग्रह किया। मेरी माँ ने मना किया किन्तु शीघ्र ही हम सब मान गए क्योंकि हमारी भी इच्छा वहाँ से उठने की नहीं हो रही थी।

                                               

लडकियों ने मिलकर थुक्मा (तिब्बत का एक खाद्य पदार्थ) बनाना शुरू किया। पानी में आलू और सेंवई उबल जाने के बाद जब उसमें भेड के माँस के टुकडे डाले गये तब मेरी माँ को अपनी भेडों का ध्यान आया। उन्होंने मुझे भेडों को सुरक्षित घर के अन्दर करने के लिए भेजा।

                                               

रात अभी अधिक नहीं बीती थी किन्तु गाँव में सन्नाटा छा गया था। बर्फीली हवाओं से शरीर की हड्डियाँ तक काँप रही थीं। उजाली रात में पहाडों के शिखर चाँदी के समान चमक रहे थे। चारो तरफ धुँआ-धुँआ-सा फैला लग रहा था। भेडों को कमरे में कर के मैं थांमे के घर लौटने ही वाला था कि उसके घर से महिलाओं के चीखने-चिल्लाने की आवाजें आने लगीं। मैं हतप्रभ था। अचानक ये क्या हो गया! अभी तक तो सब ठीक था। मुझे लगा, हो न हो, हान् आ गये होंगे। कहीं से खबर पा गये होंगे कि कई परिवार मिलकर उनके विरोध में षडयन्त्र रच रहे हैं। मैं थांमे के घर की तरफ भागा । दरवाजा अन्दर से बन्द हो गया था। मैं कुछ देर बन्द दरवाजे के सामने खडा रहा, फिर उसे पीटने लगा। अन्दर का शोर इतना अधिक था कि उसमें मेरा दरवाजा पीटना निष्प्रभावी हो गया। जब बहुत देर तक दरवाजा नहीं खुला तब मै चुपचाप खडा हो गया। महिलाएँ चिल्ला रही थीं, मैं बेवश छटपटा रहा था। उस दिन के जितना असहाय मैंने स्वयं को कभी नहीं पाया। कुछ देर बाद हान् बाहर निकले। मैं घर के पीछे छिप गयाŸ। जब हान् चले गये तब मैं अन्दर गया। थांमे दम तोड चुका था। मेरे पिता और थांमे के पिता गम्भीर रूप से घायल थे। मेरी माँ और थांमे की माँ एक दूसरे से सटी खडी भय से जड हो गर्इं थीं। लडकियों ने खुद को अन्दर के कमरे में बन्द कर लिया था।"

                                               

व्यक्ति आकाश की तरफ देखने लगा। तीस साल पहले का वह हृदय विदारक दृश्य उसकी आँखो में तैर गया। उसकी आँखें लावा उगलने लगीं तथा साँस तेज चलने लगी। उसके होंठो के किनारे से थूक की पतली धार बह गई। उस समय बदले में कुछ न कर पाने की बेवशी की पीडा आज भी उसके चेहरे पर जस की तस जमीं थी। मेरे मन में भी एक अजीब-सा अवसाद फैल गया। मैंने उसकी पीठ को धीरे से थपथपाया। मुझे ध्यान आया कि नाश्ते के बाद से मैंने एक भी सिगरेट नहीं पी, जबकि इतनी ठण्ड में अब तक दो चार पी डालता। जेब से सिगरेट का पैकेट निकाल कर मैंने उसकी तरफ बढाया। अब तक वह कुछ संयत हो गया था। उसने एक सिगरेट निकाल कर होंठो में दबा ली। मैंने भी एक सिगरेट ली, लाइटर से उसकी और अपनी सिगरेट जला ली। एक दो गहरे कश के बाद वह खाँसने लगा थोडी देर बाद जब संभला तो फिर बताना शुरू किया।

                                               

‘‘बहुत अन्याय हुआ है बाबूजी, कब तक सहेंगे ? मैं चुप नहीं बैठा था, कई संगठन बनाये थे मैंने। तब मैं जवान था, बडा उत्साह था मुझमें..... धीरे-धीरे सब खत्म हो गया। मैं कमजोर और अकेला पड गया|”

हाथ के इशारे से उसने बताया,

‘‘इधर देखिए बाबूजी, ये जो सामने की पहाडी है, ठीक उसके बगल से जो रास्ता जा रहा है वहाँ एक तिब्बती मंदिर है। सैकडों लामा वहाँ चक्र घुमाते ध्यान लगाते पडे रहते हैं। मैं कहता हूँ, चक्र हिलाने से तिब्बत आजाद नहीं होगा। उठो... जोश में आओ... कुछ करो। जवानों में जोश भरो|”

                                               

‘‘तुम्हें कितने बच्चे हैं ?"

मैं विषय को बदल कर मूल कहानी पर लाने का प्रयास करता हूँ।

‘‘दो हैं बाबूजी, दोनों बेटे हैं।..... अब तो बाल-बच्चे वाले हो गये हैं, पर हैं सब निकम्मे ही। खाते-पीते पडे रहते हैं।“

‘‘कुछ काम-धन्धा नहीं करते हैं?”

‘‘करते हैं बाबूजी, अपना घर-बार अच्छे से संभालते हैं।... हम दोनों का भी ध्यान रखते हैं|”

‘‘फिर किस बात की चिन्ता है?”

‘‘चिन्ता क्यों नही है बाबूजी ? मैं इतना प्रयास करता हूँ कि इनकी बाहें फडके, इनका खून गरम हो, पर सब बेकार। मैंने जो यातनाएँ भोगी हैं वो सब बताता हूँ, किन्तु मसूरी की हवा इतनी ठण्डी है कि इनकी नसें तक जम गई हैं। खून गर्म होने की बात तो दूर पिघलता तक नहीं है। घरवाली कहती है-इसमें बच्चों का क्या कसूर। जहाँ इनका जन्म हुआ है, वहीं से इनको लगाव होगा, तिब्बत से इन्हें क्या लेना देना |”

‘‘तुम्हारी शादी थांमे की बहन से ही हुई या किसी दूसरी लडकी से ?” - मैंने प्रश्न किया।

                                               

'वही तो बता रहा था बाबूजी",

वह फिर से अपनी अधूरी कहानी पर आ गया,

‘‘वह रात बडी भयावह थी, और शायद अब तक की सबसे लम्बी भी। माँ सिसकते-सिसकते खामोश हो गई थीं। थांमे की माँ बेहोश पडी थी। थांमे के पिता को सबेरे तक होश आ गया था किन्तु उनके पैर की हड्डी टूट गई थी। वो लंगडे हो गये थे। मेरे पिता की आँत में चोट लगी थी। धीरे-धीरे उसमें सडन पैदा हो गई और पन्द्रह दिन बाद वो चल बसे। दोरजे परिवार पूरी तरह सुरक्षित था और डर के मारे रात में ही अपने घर चला गया था|

                                               

थांमे के माँ-बाप अब अपनी बेटियों के बारे में अधिक चिन्तित रहने लगे थे। इस घटना के कुछ महीने बाद उन्होंने बडी बेटी की शादी कर दी। जब थांमें था, तब तय हुआ था कि दोनों बहनों की शादी एक साथ ही कर दी जायेगी, किन्तु अब परिस्थिति पलट चुकी थी। एक अदृश्य डर थांमे के माँ- बाप को खाये जा रहा था। हान् का डर नहीं बाबूजी, अकेले पन का डर, वीरान एकान्त में थांमे की यादों के उमड आने का डर, जो लाख न चाहने पर भी उमडती ही रहती थीं। दोनों बेटियाँ अगर एक साथ विदा हो गर्इं तब तो भाँय-भाँय भन्नाता वह घर थांमे के माँ-बाप की धडकन को ही दबोच लेगा। इसलिए तय यह हुआ कि घर एक साथ खाली न करके सोमम् की शादी साल छ महीने के बाद मेरे साथ कर दी जायेगी।

                                               

अब सोमम् पहले जैसे चहकती नहीं थी। उसकी आँखे किसी गहरी झील की तरह डरावनी लगने लगी थीं। मैं उसे पहले जैसा ही देखना चाहता था इसलिए तरह-तरह की युक्ति खोजता था जिससे वह खिलखिला कर हँस दे। इसी युक्ति खोजने में एक दिन मुझे इतनी निर्मम युक्ति सूझी कि आज तक उसकी फुफकार सुनाई देती है।

                                               

हाँ बाबूजी, उस दिन वह पहाडी पर घास काट रही थी। एकदम सीधी पहाडी ! मैं वहाँ पहुँचा। उसने मुझे नहीं देखा। मैं उसे चौंकाना चाहा

‘‘सोमम् ! हान् |”

सुनते ही वह ऐसी लडखडायी बाबूजी कि बस उसकी आवाज ही गूँजती रह गई- बचाओ...बचाओ।"

                                              

इतनी भयानक स्मृति के उधड जाने से व्यक्ति फिर आहत हो गया। मैंने स्वयं को गुनहगार माना। राख के ढेर से इतनी पुरानी टीस को टटोल-टटोल कर निकालने का काम तो मैंने ही किया था। व्यक्ति के चेहरे पर अन्तहीन दर्द फैल गया है। थोडी देर की चुप्पी के बाद वह आगे बताने लगा । उसकी आवाज अब कुछ अधिक भीगी-भीगी-सी हो गई है।

                                               

"एक के बाद एक इस तरह घटती घटनाओं ने मुझे तोड दिया। जीने की इच्छा समाप्त हो गई थी। मैं स्वयं को हत्यारा मानने लगा था। मानने क्या लगा था, था ही। अब न खुशी रह गई थी न उल्लास। सिर्फ एक सहमी-सी घबराहट चौबीसों घंटे पीछा करती रहती थी। नियति को शायद यही मंजूर था, किन्तु पश्चाताप की आग एक लकीर बन कर साँप-सी बल खाती मेरे अन्तस में तैरती रहती थी। हान् के रुकने और जाने में अब मेरी कोई रुचि नहीं रह गई थी, किन्तु संदेही हान् मुझ पर तनिक भी भरोसा न करते, पकड कर घंटो बैठा लेते। उनके प्रश्नों से मैं तिलमिला कर रह जाता।

                                               

माँ अब अधिक डरने लगी थीं और चाहती थीं कि मैं कहीं अन्यत्र चला जाऊँ, देश छोड दूँ। जान तो बची रहेगी। मेरा भी मन अब वहाँ नहीं लगता था। तमाम यादें मुझे जकड लेती थीं। जो पहाड मुझे इतने प्यारे लगते थे वही अब डरावने लगने लगे ? चारों तरफ एक राक्षस हुंकारता रहता था। फिर भी मैं वहाँ से आना नही चाहता था। मैं न तो माँ को छोड सकता था न देश को। माँ रात दिन एक ही रट लगाए रहती। उनका कहना था कि कुछ दिन की तो बात है, जब सब ठीक हो जायेगा तब मैं फिर लौट आऊँगा, और तब तक वो अकेली रह लेंगी। मेरी भोली माँ, अंगारे में बर्फ मिलने की उम्मीद कर रही थी !

                                               

मैं उलझ गया था। मेरे मन में अनेक सवाल उठने लगे थे। लक्ष्य स्पष्ट नहीं था। द्वन्द्व मचा था दिल और दिमाग में। उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय का द्वन्द्व। उलझन बढती जा रही थी पर दिमाग काम नहीं कर रहा था। माँ पल-पल टूट रही थीं। घुट रही थीं। मुझे वहाँ से हटाने व रखने दोनों बातों से। मैं उनकी छटपटाहट को देख रहा था। जानता था, मेरे वहाँ से न हटने के कारण वो जितना रोती हैं हट जाने से उससे अधिक रोयेंगी।

                                               

फिर एक रात, भयानक ठण्डी रात ! उसी न्याय-अन्याय के द्वन्द्व के बीच, मैं माँ के लिए माँ को छोडकर भाग आया। माँ जो करना चाहती थीं, कर लीं, लेकिन मैं ?

                                               

मैं कुछ दूर चलता फिर पलट कर पीछे देखता। जी करता लौट जाऊँ। फिर सीने में उठती आग को दबाता मैं आगे बढता। छूटते पहाड मुझे रुक जाने को कह रहे थे। मेरा इरादा बदलता भी किन्तु फिर न जाने कैसे मैं आगे बढने लगता। दारुण ठण्ड में पहाड-दर-पहाड लाँघता, छुपता-छुपाता आपके देश में आ गया किन्तु सच कह रहा हूँ बाबूजी, मेरी आत्मा वहीं रह गई... ।

तिब्बत देखे बहुत दिन हो गये। कितने उत्सव, मेले, त्योहार बीत गए होंगे अब तक। माँ की भी कुछ खबर नहीं मिली। अब जब कुछ कर पाने में असमर्थ हो गया हूँ तब उत्तर के आकाश में तिब्बत तलाशता हूँ। आकाश में अधिक बादल देख अन्दाज लगा लेता हूँ कि वहाँ भी बादल होंगे। धूप देख सोच लेता हूँ कि वहाँ भी धूप खिली होगी।"

                                               

व्यक्ति चुप हो जाता है। उसके बारे में जानने को मैं जितना आतुर था, जान कर उतना ही अवसाद से भर जाता हूँ। होटल में पराठा बनाते लडके ने व्यक्ति को आवाज लगाई। उससे ऊनी कपडा खरीदने कुछ ग्राहक आ गये थे। मैं बडे आदर के साथ व्यक्ति को प्रणाम करता हूँ। वह घुटने पर हाथ रखकर उठता है। उत्तर के आकाश की ओर निहारता है तथा हारे हुए खिलाडी की तरह अपने बोझिल कदमों से धीरे-धीरे चलता हुआ होटल में चला जाता है। मैं भी उठता हूँ। अब मसूरी घूमने की मेरी इच्छा तिरोहित हो गई है। मीलों फैले पहाड जिन्हें देखकर मन में मस्ती-सी छा जाती थी न जाने क्यों खामोश और उदास लग रहे हैं। मैं सिगरेट निकालता हूँ। सुलगा कर होंठ में दबा लेता हूँ।

टीले पर बैठा लडका अब भी बाँसुरी बजा रहा है किन्तु अब उस धुन की मधुरता कहीं खो गई है।

                                                        


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