शिकायतें
शिकायतें
नाराज़गी तो कोई नहीं बस कुछ सौ दो सो है तुमसे शिकायतें
मेरे किसी गुनाह की सजा हो तुम या मेरी पहली बार पढ़ी हुई आयतें
जो तुम अपने बालों की लट अपने चश्मे के सामने से हटा के कान के पीछे लगाती हो मेरे आज के सारे ख्याल और काम कल के पीछे जाके चुप जाते है
जो तुम थकावट का बहाना करके मेरी गोद में अपना सर रख कर सो जाती हो मानो नींद से दुश्मनी हो जाती है। नाराज़गी तो कोई नहीं बस कुछ सौ दो सो है तुमसे शिकायतें
मेरे किसी गुनाह की सजा हो तुम या मेरी पहली बार पढ़ी हुई आयतें
और जो ये तुम अपने घुँघराले बालों से खेलती हो, ना दिल और दिमाग के तार मेरे उलझ जाते है
नाराज़गी तो कोई नहीं बस कुछ सौ दो सो है तुमसे शिकायतें
मेरे किसी गुनाह की सजा हो तुम या मेरी पहली बार पढ़ी हुई आयतें
जो तुम अपनी आँखों के नीचे काजल बोल के काला जादू लगाती हो न पूरा दिन मेरे मन के कागज़ पे बस उसी काजल की लिखावट चलती है, और जो तुम अपनी वो सफ़ेद कुर्ती पहन के सामने आती हो ना { जो मैंने पिछले साल तोहफे में दी थी} बर्फ में ढकी लदाख की वादियाँ पिघल जाती है।
और सबसे बड़ा मसला तो यह है की यह शिकायतें अगर तुमसे न करूँ ये सारी तो तुम कहती हो की तुम रोमांटिक नहीं हो और अगर कर दूँ तो मेरा गाल खींच के पूछती हो की "ये तुम्हारे शायर साहब को कभी खाने पे बुलाते क्यों नहीं"
नाराज़गी तो कोई नहीं बस कुछ सौ दो सो है तुमसे शिकायतें
मेरे किसी गुनाह की सजा हो तुम या मेरी पहली बार पढ़ी हुई आयतें।