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द्वंद्व युद्ध – 16.2

द्वंद्व युद्ध – 16.2

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एक रहस्यमय, आंतरिक अंतर्दृष्टि उसे उस जगह ले आई जहाँ वह दिन में निकोलाएव से जुदा हुआ था। इस समय रमाशोव आत्महत्या के बारे में सोच रहा था, मगर बिना ठोस निर्णय के और बिना भय के, एक छुपी हुई, प्यारी सी – आत्मप्रेम की भावना से। उसकी हमेशा की, बेसब्र फ़न्तासी ने इस ख़याल को पूरी भयंकरता से विभिन्न रंगों की चटकीली तस्वीरों से सजाकर उसके सामने खड़ा कर दिया।

ये गैनान रमाशोव के कमरे से उछला। उसका चेहरा भय से विकृत हो गया है। बदरंग, थरथर काँपता, वह अफ़सरों के डाईनिंग हॉल में भागता है, जो लोगों से खचाखच भरा है। उसके आने से सभी अनचाहे अपनी अपनी जगहों से उठते हैं। ‘हुज़ूर, सेकंड लेफ्टिनेंट ने अपने आप को गोली मार ली !’ बड़ी मुश्किल से गैनान कहता है। एक आम भगदड़। चेहरे फक् पड़ जाते हैं। आँखों में भय दिखाई देता है। ‘किसने गोली मार ली ? कहाँ ? कौन से सेकंड लेफ्टिनेंट ने ?’ – ‘महाशय, ये तो रमाशोव का अर्दली है !’ कोई गैनान को पहचान लेता है। ‘ये उसका चेरेमीस है।’

सब फ्लैट की ओर भागते हैं, कुछ लोग बिना टोपियों के। रमाशोव पलंग पर लेटा है। फर्श पर खून का डबरा, और उसमें पड़ी है रिवाल्वर स्मिथ और वेसन, सरकारी मुहर वाली, अफ़सरों की भीड़ में से, जो छोटे से कमरे में जमा हो गई थी, बड़ी मुश्किल से सेना का डॉक्टर, ज़्नोयका, आगे आता है। ‘कनपटी में !’ उसने ख़ामोशी के बीच हौले से कहा। ‘सब ख़त्म हो गया।’ किसी ने दबी आवाज़ में कहा, ‘महाशय, टोपियाँ तो उतारिए !’ कई लोग सलीब का निशान बनाते हैं। वेत्किन मेज़ पर चिट्ठी पाता है, जो पेंसिल से दबा दबाकर लिखी गई थी, और पढ़ता है : ‘सब को माफ करता हूँ, स्वेच्छा से मर रहा हूँ, ज़िन्दगी इतनी बोझिल और दुखभरी है ! मेरी माँ को मेरी मृत्यु के बारे में सावधानी से बताईए। गिओर्गी रमाशोव ।’ सब एक दूसरे की ओर देखते हैं, और सभी एक दूसरे की आँखों में एक ही, परेशानी भरी, अनकही बात पढ़ते हैं : ‘ये हम उसके हत्यारे हैं !’ किमख़ाब की चादर से ढँका ताबूत आठ अफ़सरों के हाथों में एक लय में हिल रहा है। सारे अफ़सर पीछे पीछे चल रहे हैं। उनके पीछे – छठी रेजिमेंट। कैप्टेन स्लीवा गंभीरता से नाक भौंह चढ़ाता है। वेत्किन का भला चेहरा आँसुओं से फूल गया था, मगर इस समय, सड़क पर, वह स्वयँ पर नियंत्रण रख रहा है। ल्वोव ज़ोर ज़ोर से हिचकियाँ ले लेकर रो रहा है, अपने दुख को न छिपाते हुए, बग़ैर शर्माए, -प्यारा, भला बच्चा ! मातमी मार्च की आवाज़ें बसंती दिन में गहरी, आहत हिचकियों जैसे प्रतीत हो रही हैं। वहीं कम्पनी की सारी महिलाएँ और शूरच्का है। ‘मैंने उसे चूमा था !’ वह बदहवासी से सोचती है। ‘मैं उसे प्यार करती थी ! मैं उसे रोक सकती थी, बचा सकती थी !’ ‘बहुत देर हो चुकी है !’ कड़वी मुस्कुराहट से उसके जवाब में रमाशोव सोचता है।

ताबूत के पीछे चल रहे अफ़सर धीमे धीमे आपस में बातें कर रहे हैं : ‘ओह, कितना अफ़सोस है, बेचारे पर ! कितना बढ़िया साथी था, कितना ख़ूबसूरत, योग्य अफ़सर था ! हाँ, नहीं समझ पाए हम उसे !’ मातमी धुन और ज़ोर से हिचकियाँ लेती है : यह – बेथोवन का संगीत है, ‘हीरो की मौत पर’। और रमाशोव ताबूत में लेटा है, निश्चल, ठंडा, होठों पर चिरंतन मुस्कान लिए। उसके सीने पर बनफ़्शा के फूलों का छोटा सा गुलदस्ता था, - किसी को नहीं मालूम कि ये फूल किसने रखे थे। उसने सबको माफ कर दिया : शूरच्का को, स्लीवा को, फ़्योदरोव्स्की को और कोर कमांडर को। कोई नहीं रोए उसके लिए। इस तरह के जीवन के लिए वह ज़्यादा ही साफ़-सुथरा और सुंदर था ! उसे वहाँ अच्छा लगेगा !

आँखों से आँसू बह निकले मगर रमाशोव ने उन्हें पोंछा नहीं। स्वयँ के बारे में लोगों को रोते देखने की, अन्यायपूर्ण ढंग से अपमानित किए जाने की कल्पना करना कितना आनन्ददायी था !

अब वह चुकंदर के खेत के किनारे किनारे जा रहा था। पैरों के नीचे मोटे सिरे सफ़ेद काले धब्बों के रूप में दिखाई दे रहे थे। चाँद से प्रकाशित खेत का विस्तार मानो रमाशोव को दबाए जा रहा था। सेकंड लेफ्टिनेंट एक छोटे से मिट्टी के टीले पर चढ़ गया और रेल की पटरियाँ बिछाते समय खोदी गई मिट्टी के ढेरों पर ठहर गया।

यह पूरा भाग काली छाया में था, और दूसरे भाग पर चमकीली निस्तेज रोशनी पड़ रही थी, और ऐसा प्रतीत हो रहा था कि उस पर छोटी से छोटी घास के हर तिनके को भी देखा जा सकता था। मिट्टी के ढेरों की श्रृंखला नीचे की ओर जा रही थी, जैसे अंधेरी खाई हो; उसके तल में पॉलिश की हुई पटरियाँ क्षीणता से चमक रही थीं। दूर, ढेरों के पार खेत के बीच नुकीले सिरों वाले सफ़ेद तँबू चमक रहे थे।

इन ढेरों के ऊपरी भाग से थोड़ा सा नीचे, मैदान के समांतर एक चौड़ी कगार थी। रमाशोव उस पर उतरा और घास पर बैठ गया। भूख और थकान के कारण उसका जी मिचला रहा था और पैरों में कँपकँपाहट और कमज़ोरी महसूस हो रही थी। बड़ा, ख़ाली मैदान, मिट्टी के ढेरों के नीचे – आधा छाँव में, आधा रोशनी में, धुँधली पारदर्शी हवा, ओस में भीगी घास, - सब कुछ डूबा था संवेदनापूर्ण, लुकाछिपी खेलती ख़ामोशी में, जिसके कारण कानों में गूँजता हुआ शोर हो रहा था। बस कभी कभी शंटिंग करते इंजन स्टेशन पर चिल्ला देते, और इस विचित्र रात की चुप्पी में उनकी रुक रुक कर आती हुई सीटियाँ सजीव, उत्तेजित और डराती हुई प्रतीत हो रही थीं।

रमाशोव पीठ के बल लेट गया। सफ़ेद, हल्के बादल निश्चल खड़े थे, और उनके ऊपर गोल गोल चाँद तेज़ी से फिसल रहा था। ऊपर ख़ाली-ख़ाली, अजस्त्र और ठंड़ा-ठंड़ा था, और ऐसा लग रहा था कि धरती से आसमान तक सारा विस्तार चिरंतन भय और चिरंतन पीड़ा से परिपूर्ण है। वहाँ – भगवान है ! रमाशोव ने सोचा, और अचानक, स्वयँ के प्रति अपमान की दुख की और दयनीयता की एक मासूम हूक से, आवेगपूर्ण और कटु फुसफुसाहट से कहने लगा, भगवान ! तुमने मुझसे मुँह क्यों फेर लिया ? मैं – छोटा हूँ, मैं – कमज़ोर हूँ, मैं – रेत का एक कण हूँ, मैंने तुम्हारा क्या बुरा किया है, भगवान ? तुम तो सब कुछ कर सकते हो, तुम दयालु हो, तुम सब कुछ देखते हो, - तुम मेरे साथ नाइन्साफ़ी क्यों कर रहे हो, भगवान ?

मगर उसे डर लगा, और वह जल्दी से और भावनावेग से फुसफुसाया, नहीं, नहीं, दयालु, प्यारे, मुझे माफ़ कर दो, माफ़ कर दो ! मैं और शिकायत नहीं करूँगा। और उसने विनम्र, समर्पण की आज्ञाकारिता से आगे जोड़ा, तुम्हारा जो जी चाहे, मेरे साथ वही करो। मैं हर चीज़ कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार कर लूँगा।

इस तरह से वह बोल रहा था, और इसी समय उसके मन के सबसे गुप्त स्थानों पर अचानक एक मासूम-शरारत भरा विचार सरसरा गया, कि उसकी बेसब्र आज्ञाकारिता सब कुछ देखने वाले भगवान को छू लेगी और उसे कुछ नर्म बना देगी, और तब अचानक चमत्कार हो जाएगा, जिससे आज की पूरी घटनाएँ – बोझिल और अप्रिय – सिर्फ़ बेहूदा सपना प्रतीत होंगी।

 “कहाँ है तू..तू.. तू ?” क्रोध में और बेसब्री से इंजिन चीख़ा।

और दूसरे ने भी नीचे सुर में, लंबा खींचते हुए और धमकाते हुए उसका साथ दिया, “या – फ – स् – ! ”

मिट्टी के ढेरों के उस ओर कोई चीज़ सरसराई और प्रकाशित ढलान के बिल्कुल छोर पर उसकी झलक दिखाई दी। रमाशोव ने हौले से सिर उठाया जिससे कि अच्छी तरह देख सके। कोई भूरी सी, आकारहीन, आदमी से बहुत कम समानता रखने वाली चीज़ ऊपर से नीचे की ओर उतरी, चाँद के धूमिल प्रकाश में मुश्किल से घास से अलग होते हुए। बस सिर्फ परछाई की गतिविधियों से और गिरती हुई मिट्टी की हल्की सी आवाज़ से उसका पीछा करना संभव था।

ये उसने पटरियाँ पार कीं। शायद – सिपाही है ? रमाशोव के दिमाग में एक परेशान पहेली कौंध गई। हर हाल में, ये है तो आदमी। मगर इतने डरावनेपन से कोई पागल या शराबी ही चल सकता है। कौन है ये ?

भूरे आदमी ने पटरियाँ पार कीं और छाँव में घुस गया। अब स्पष्टता से दिखाई दे रहा था कि वह सिपाही है। कुछ देर के लिए रमाशोव की दृष्टि से ओझल होते हुए वह धीरे धीरे और फूहड़पन से ऊपर चढ़ा। मगर दो-तीन मिनट ही बीते होंगे कि छोटे छोटे बालों वाला, बिना टोपी का सिर नीचे से धीरे धीरे ऊपर आने लगा। 

धुंधला प्रकाश सीधा इस आदमी के चेहरे पर पड़ा, और रमाशोव ने अपनी अर्ध-रेजिमेंट के बाँए पार्श्व के सिपाही – ख्लेब्निकोव को पहचान लिया। वह खुला सिर लिए, हाथों में टोपी पकड़े चल रहा था, सामने की ओर गड़ी हुई निर्जीव दृष्टि से। ऐसा लग रहा था मानो वह किसी पराई, आंतरिक, रहस्यमय शक्ति के वश में चल रहा है। वह अफ़सर के इतने पास से गुज़रा कि ओवरकोट का पल्ला उसे छू गया। उसकी आँखों की पुतलियों में चाँद का प्रकाश तीखे धब्बों जैसा परावर्तित हो रहा था।

 “ख्लेब्निकोव ! तुम ?” रमाशोव ने उसे आवाज़ दी।

“आह !” सिपाही चीख़ा और अचानक, रुक कर, डर के मारे एक ही जगह पर खड़े खड़े पूरे का पूरा थरथराने लगा।

रमाशोव जल्दी से उठा। उसने अपने सामने एक मुर्दा, ज़ख़्मी चेहरा देखा, कटे हुए, सूजे हुए, लहूलुहान होंठ, नीली पड़ गई तैरती हुई आँख। रात के अस्थिर प्रकाश में मारपीट के निशान बड़े दुष्टतापूर्ण, अतिभयानक लग रहे थे। और ख्लेब्निकोव की ओर देखते हुए रमाशोव ने सोचा, इसी आदमी ने, मेरे साथ मिलकर, आज पूरी कम्पनी को अपयश दिया है। हम एक जैसे ही अभागे हैं।

 “कहाँ जा रहा है, प्यारे ? क्या हुआ है तुझे ?” रमाशोव ने प्यार से पूछा और स्वयँ भी जानते हुए कि क्यों, अपने दोनों हाथ सिपाही के कंधों पर रख दिए।

ख्लेब्निकोव ने उसकी ओर खोई खोई, जंगली दृष्टि डाली, मगर फ़ौरन ही मुड़ गया। उसके होंठ कुछ हिले, धीरे धीरे खुले, और उनमें से संक्षिप्त सी, बेमतब भर्राहट बाहर निकली। रमाशोव के पेट और सीने में एक भोंथरा, थरथराता एहसास, बेहोश होने से पहले के एहसास जैसा, मीठी मीठी गुदगुदाहट जैसा, दुखभरी टीस मारता रहा।

 “तुझे मारा ? हाँ ? ओह, बोलो भी। हाँ ? बैठो यहाँ, मेरे साथ बैठो।”

उसने ख्लेब्निकोव की बाँह पकड़ कर उसे नीचे खींचा। सिपाही किसी फोल्डिंग गुड़िया जैसा, हौलेपन से और आज्ञाकारिता से सेकंड लेफ्टिनेंट की बगल में गीली घास पर गिर पड़ा।

 “तू कहाँ जा रहा था ?” रमाशोव ने पूछा।

अटपटेपन से बैठे हुए, कृत्रिम ढंग से पैर पसारे ख्लेब्निकोव ख़ामोश रहा। रमाशोव देख रहा था कि कैसे उसका सिर धीरे धीरे, मुश्किल से नज़र आने वाले हिचकोले खाते हुए सीने पर झुक रहा था। सेकंड लेफ्टिनेंट को दुबारा संक्षिप्त सी, भर्राई हुई आवाज़ सुनाई दी और उसके सीने में भयंकर दयनीयता सरसराने लगी।

 “तू भागना चाहता था ? टोपी तो पहन लो। सुनो, ख़्लेब्निकोव, इस समय मैं तुम्हारा अफ़सर नहीं हूँ, मैं ख़ुद भी – अभागा, अकेला, मार डाला गया इंसान हूँ। तुझे बर्दाश्त नहीं होता ? दर्द हो रहा है ? मुझसे खुल कर बात करो। शायद तुम ख़ुदकुशी करना चाहते थे ?” रमाशोव ने असंगत फुसफुसाहट से पूछा।

ख्लेब्निकोव के गले में कुछ हिला और कुछ घरघराया, मगर वह ख़ामोश रहा। साथ ही रमाशोव ने यह भी देखा कि सिपाही रह-रहकर हल्के से कंपकंपा रहा है: उसका सिर काँप रहा था, उसके जबड़े ख़ामोश किटकिटाहट से काँप रहे थे। एक सेकंड के लिए ऑफ़िसर को डर लगा। ये बुख़ार जैसी अनिद्रा की रात, अकेलेपन का एहसास, एकसार, धूमिल, चाँद की मुर्दा रोशनी, पैरों के नीचे मिट्टी के ढेरों की काली होती हुई गहराई, और उसकी बगल में ख़ामोश, मार के आघात से पगलाया हुआ सिपाही – सब कुछ उसे एक बेहूदा, पीड़ादायक सपने जैसा प्रतीत हुआ, उन सपनों जैसा जो, निश्चय ही, लोगों को सृष्टि के सबसे अंतिम दिनों में आएँगे। मगर अचानक गर्माहट भरी, विस्मृत सहानुभूति भरी एक लहर ने उसकी आत्मा को दबोच लिया। और, अपने, स्वयँ के, दुख को छोटा और बेकार का महसूस करते हुए, इस प्रताड़ित, दमित व्यक्ति के मुक़ाबले में स्वयँ को बड़ा और बुद्धिमान समझते हुए उसने प्यार से और कसकर ख़्लेब्निकोव के गले में हाथ डाले, उसे अपने निकट खींचा और जोश से, पुरज़ोर विश्वास से कहा, “ख़्लेब्निकोव, तुम्हारी तबियत ख़राब है ? और मुझे भी अच्छा नहीं लग रहा है, प्यारे, मुझे भी अच्छा नहीं लग रहा है, मेरा यक़ीन करो। जो दुनिया में हो रहा है, वह कुछ भी मेरी समझ में नहीं आता। सब कुछ – एक जंगली, बेमतलब, क्रूर बकवास है ! मगर बर्दाश्त करना होगा, मेरे प्यारे, बर्दाश्त करना होगा। ये ज़रूरी है।”

नीचे झुके हुए ख्लेब्निकोव का सिर अचानक रमाशोव के घुटनों पर गिरा। और सिपाही ने अचानक ऑफ़िसर के पैरों को पकड़ लिया, अपने चेहरे को उनसे सटाकर, रोकी हुई हिचकियों के कारण गहरी गहरी साँसें लेते हुए और ऐंठते हुए पूरे शरीर से कंपकंपाने लगा।

 “बस, और नहीं।” ख़्लेब्निकोव असंबद्धता से बुदबुदाने लगा, - “नहीं कर सकता, मालिक, और ओह, ख़ुदा, मारते हैं, हँसते हैं। बटालियन कमांडर पैसे माँगता है, स्क्वाड्रन लीडर चिल्लाता है। कहाँ से लाऊँ ? पेट मेरा कट चुका है। बचपन में ही कट गया था, फोडा है पेट में मालिक, ओह, ख़ुदा, ख़ुदा !”

रमाशोव सिर के ऊपर झुक गया जो उसके घुटनों पर भावविह्वलता से इधर उधर घूम रहा था। उसने गंदे बीमार बदन की गंध सूंघी और सूंघी बू बिना धुले बालों की और खट्टी खट्टी बू ओवरकोट की जिससे सोते समय बदन को ढाँकते थे। अफ़सर का दिल लबालब भर गया अंतहीन दुख की भावना से; भय, नासमझी और गहरी आपराधिक दयनीयता से जो दर्द की सीमा तक उसे दबोचते और सिकोड़ते रहे। और, हौले से झुकते हुए छोटे छोटे बालों वाले, चुभते हुए, गन्दे सिर की ओर वह मुश्किल से सुनाई देने वाली आवाज़ में फुसफुसाया, “मेरे भाई !”

ख़्लेब्निकोव ने ऑफ़िसर का हाथ पकड़ लिया, और रमाशोव को उस पर गर्म गर्म आँसुओं और ठंडे, चिपचिपे पराए होठों के स्पर्श का अनुभव हुआ। मगर उसने अपना हाथ नहीं खींचा और सीधे साधे, दिल को छूने वाले, सांत्वना देने वाले शब्द कहे जो बड़े लोग किसी अपमानित बालक से कहते हैं

फिर वह स्वयँ ख्लेब्निकोव को कैम्प में ले गया। रेजिमेंट-ड्यूटी पर तैनात अंडर ऑफ़िसर शापोवालेन्का को बुलाना पड़ा। वह सिर्फ निचले अंतर्वस्त्र में आया, उबासियाँ लेते हुए, आँखें सिकोड़े और कभी अपनी पीठ, तो कभी पेट खुजाते हुए।

 रमाशोव ने उसे फ़ौरन ख्लेब्निकोव को ड्यूटी से हटाने की आज्ञा दी। शापोवालेन्का ने प्रतिकार करने की कोशिश की, “मगर, हुज़ूर, अभी इसकी बदली करने वाला आया नहीं है !”

 “बोलना नहीं !” रमाशोव उस पर चिल्लाया। “कल रेजिमेंट कमांडर से कह देना कि मैंने ये हुक्म दिया था तो, तुम कल मेरे पास आओगे ?” उसने ख्लेब्निकोव से पूछा, और उसने ख़ामोश, नम्र, कृतज्ञतापूर्ण नज़र से उसे जवाब दिया।

रमाशोव घर लौटते हुए धीरे धीरे छावनी की बगल से चल रहा था। एक तंबू में हो रही खुसुर पुसुर ने उसे थोड़ा ठहरने पर और कान लगाकर सुनने पर मजबूर कर दिया। दबी दबी, लंबी खिंचती आवाज़ में कोई परीकथा सुना रहा था।

 “तो-तो वो ही शैतान उस सिपाही के पास अपणे प्रमुख जादूगर को भेजता है। वो जादूगर आता है और केता है, “सिपाई, ओ रे सिपाई, मैं तुझे खा जाऊँगा !” और सिपाही उसे जवाब देता है, “ना, तू मुझे खा ही नई सकता, इसलिए कि मैं ख़ुद ही जादुगर हूँ !”

रमाशोव दुबारा रेल की पटरी के किनारे वाले मिट्टी के ढेर की ओर गया। बेहूदगी भरी, परेशानी भरी, ज़िन्दगी को न समझने की भावना उसे सताती रही। ढलान पर रुक कर उसने आँखें ऊपर आसमान की ओर उठाईं। वहाँ पहले ही की तरह ठंडा विस्तार और अंतहीन डरावनापन था। और स्वयँ के लिए भी लगभग अप्रत्याशित रूप से, मुट्ठियाँ सिर के ऊपर उठाते हुए और उन्हें हिलाते हुए रमाशोव जंगलीपन से चीखा, “तू ! बूढ़े धोखेबाज़ ! अगर तुम कुछ कर सकते हो और हिम्मत रखते हो तो..तो ये ऐसा करो कि मैं अभी अपना पैर तोड़ लूँ।” उसने आँखें बन्द करके सीधे ढलान से नीचे छलाँग लगा दी, दो छलाँगों में पटरियाँ पार कर गया और, बिना रुके, एक ही साँस में ऊपर चढ़ गया। उसके नथुने फूल रहे थे, सीना ज़ोर ज़ोर से धड़क रहा था मगर दिल में अचानक एक गर्वीला, धृष्ठ और दुष्ट शौर्य भड़क उठा।


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