मेरा मत
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गाँव के छोटे से कारखाने में सभी औरतें अपने अपने काम में लगी हुई थीं। कल कारखाने की छुट्टी थी। इसलिए वह आज ही सारा काम निपटा रहीं थीं ताकि परसों आर्डर भेजा जा सके।
यह कारखाना शीला विश्वकर्मा का था। उन्हें कारखाने में काम करने वाली सारी औरतें दीदी कहती थीं। शीला के घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। सिलाई-कढ़ाई के काम में माहिर शीला ने सरकारी योजना का लाभ उठा कर ऋण लिया। अपना यह कारखाना खोला। गाँव की औरतों को ट्रेनिंग देकर अपने साथ काम पर लगा लिया। उन औरतों का भी जीवन स्तर सुधर गया। इसलिए सब उन्हें बहुत मानती थी।
कल वोटिंग का दिन होने के कारण छुट्टी थी। इसलिए आज रोज़ से अधिक देर तक औरतों ने काम किया था। अब आर्डर परसों डिलीवरी के लिए तैयार था। काम निपटा कर सारी औरतें साथ खाने बैठीं तो शीला ने कहा। "कल तुम लोग अपना वोट ज़रूर डालना।"
औरतों में से एक लीला ने कहा, "दीदी क्या फरक पड़ेगा हम वोट दें या ना दें। वैसे भी सब मरद जात वाले को ही वोट देने को कह रहे थे।" "लीला वोट से बहुत फर्क पड़ता है। हम सब वोट करेंगे तो मजबूत सरकार बनेगी। सरकार मजबूत होगी तो हमारे भले में काम करेगी।" "सरकार हम गरीबों का क्या भला करेगी।"
लीला की बात पर उनमें सबसे कम उम्र की मनीषा बोली। "चाची पिछली बार मजबूत सरकार थी तो हमारे लिए कितना किया। गाँव में सड़क बनी, बिजली आई। हमारे रोज़मर्रा के इस्तेमाल की चीज़ शौचालय दिए। पहले बाहर जाने में कितनी दिक्कत होती थी। याद है, सरकार ने ही दीदी को लोन दिया। दीदी के साथ आज हम भी चार पैसे कमा रहे हैं।" मनीषा की बात सुनकर शीला ने उसे शाबासी दी। "कितनी समझदारी की बात की इसने। वोट ज़रूर दो। चाहे जिसे दो पर अपनी राय के हिसाब से। मर्दों के कहने पर जात वाले को नहीं।"
मनीषा ने आगे बढ़ कर सब औरतों से कहा। "शपथ लो कल अपनी सोच के हिसाब से जो सही लगे उसे वोट दोगी।" सब औरतों ने ज़ोरदार स्वर में शपथ ली।