काला सच
काला सच
एक वर्ष से उसे देख रहा था, रोज़ बाग़ में आता, दो लाल गुलाब एक बेंच पर रख कर लौट जाता। कल रात तेज़ हवा से कई पत्ते बिखर गए थे। आज वो गुलाब के साथ एक काला फूल भी लाया और चुपचाप रख कर लौटने लगा।
मैं आज अपनी उत्सुकता रोक नहीं सका, उसे आवाज़ लगाई, "भाईसाहब, ज़रा रुकिये।"
उसके कदम भी थम गये। मैनें उसके पास जाकर पहली बार उसे गौर से देखा, कुछ बिखरे से बाल व कपड़े, बढ़ी हुई दाढ़ी और आखों में अजीब सा सूनापन।
मैंने पूछा, "आप ये रोज़ इस बेंच पर फूल क्यों रख जाते हो ?"
उसे पता नहीं कैसा लगा, उसने आखें बंद कर खुले मुंह से एक गहरी सांस ली, थोडा रुका, थूक निगल कर बोला, "मैं और मेरी पत्नी रोज़ यहाँ आते थे, इन गुलाबों को देख कर खुश होते, अब वो इस दुनिया में नहीं है, मैं दो फूल हम दोनों के साथ की याद में रोज़ यहाँ रख जाता हूँ।"
"लेकिन आज ये काला फूल ?"
"मेरी एक चारित्रिक भूल मेरी पत्नी का हृदय स्वीकार नहीं कर सका, उसके लिए वो असहनीय था और ऐसे ही एक मौसम में चल बसी, आज यह काला सच मैं कैसे भुला सकता हूँ ?"