अस्सी घाट
अस्सी घाट
बी एच यू, लंका, वाराणसी
“अबे हमारा भी हो गया एडमिसन।”, समीर दौड़ता हुआ आया।
“सच में ?”
“नहीं तो हम का तुमसे मजाक कर रहे हैं क्या।”
“चलो अब दोनो भाई साथ में पढ़ेंगे यहाँ। पैसे वैसे जमा हो गये सारे ?”
“हाँ, कर दिये हमने।”
“चले फिर ?”
“कहाँ ?”
“गंगा मैया का आशीष लेने।”
“चलो।”
समीर और मै बचपन के दोस्त हैं। एक ही स्कूल में पढ़े, एक साथ खेले, साथ ही रहते थे हमेशा।
कॉलेज भी साथ ही जाने का सोचा था हमने और फिर हमारे यू पी में तो कॉलेज की कमी नहीं है। पढ़ाई-लिखाई में ठीकठाक थे दोनों, तो बी एच यू जाने में दिक्कत ना हुई मगर गाँव से आने के कारण बोली थोड़ी अलग सी थी।
“लीजिये साहब आ गया आपका अस्सी घाट।”, औटो वाले ने औटो रोकते हुए कहा।
“ये लो भईया, पैसे रखो।”, मैने उसे एक 50 का नोट देते हुए कहा।
“आजा समीर।”, अस्सी घाट की ओर बढ़ते हुए मैंने कहा।
शाम के उस सन्नाटे में बस कदमों की जमीन पर रगड़ सुनाई दे रही थी। कदम जो हर रोज की तरह आज भी गंगा मैया के पास अपने दिन भर की कहानियाँ लेकर जा रहे थे। शाम के धुंधलके के जलाए जा रहे दिये मानों सितारों से उनका आसमान छीनने की कोशिश में लगे थे। सितारों की रौशनी को अलविदा कह दिया गया अब दीयों का साम्राज्य था। हवा के झोंके से फड़फड़ाती लौ ने जुगनुओं के होने का भ्रम पैदा कर दिया था। रोज आसमान को अपनी पीली किरणों से रौशन रखने वाला सूरज मानों आज गंगा मैया के आँचल तले बैठा था।
“लगता है गंगा आरती शुरु होने वाली है समीर।”
“हाँ आजा बैठ जाते हैं, सुना है बड़ी भीड़ होती है।”
हम बचपन से यू पी में रह रहे थे मगर कभी बनारस ना आये। इस बार आये तो हमें क्या पता था की जिन्दगी करवट लेने वाली थी।
हम दोनों ठीक वहाँ जाकर बैठ गये जहाँ पुजारी थे। भीड़ बढ़ना शुरु हो गई थी। इससे पहले गंगा आरती हमने बस टीवी पर देखी थी। पुरा अस्सी घाट लोगों से भर गया था। ऐसा लगता था मानों मेला लगा हो।
कुछ ही देर में आरती शुरु हुई। और हमारी किस्मत ने करवट लेना शुरु कर दिया। कसम गंगा मैया की हम पूरी श्रद्धा से वहाँ गये थे मगर जब हमने उसे देखा हम सब कुछ भुल गये। हम वहाँ क्यूँ गये थे, क्या हो रहा था वहाँ, हमें कुछ सुध ना रही। दीपकों और आरती की रौशनी में चमकता उसका चेहरा मेरा पूरा ध्यान उसने अपनी ओर खींच लिया था। नदी से आते मन्द मन्द हवा के झोकें उसके कानों की बालियों को मानों झूला-झूला रहे थे। पूरी आरती हमने उसे ही देखने में बिता दी।
आरती खत्म होते ही वो उठी और गंगा मैया को प्रणाम कर के वहाँ से चल दी। हमने आव देखा ना ताव और उसके पीछे हो लिये।
“अरे कहाँ जा रहा है राघव ?”, समीर ने पुछा।
“यहीं रुकना मैं अभी आता हूँ।”
उसको फिर से एक नज़र देखने के लिये हम पागल हुए जा रहे थे। हमने उसके पीछे चलना शुरु कर दिया।
वो वहाँ से निकली और घाट के बाहर बैठे कुछ बच्चों में खाने की कुछ चीजें बाँटने लगी। हम वहीं खड़े उसको निहार रहे थे। वहाँ लगभग 10-15 बच्चे थे जिनका शायद कोई अपना नहीं था। फिर वो वहाँ से चल दी।
एक तो हम बनारस पहली बार आये थे उपर से ये गलियों का मायाजाल, और फिर हमारा पूरा फोकस उसी पर था। जाने किन-किन गलियों से होते हुए वो अचानक किसी गली में गुम हो गई।
पहले तो सोचा वही इधर-उधर कुछ देर खोजूँ उसे मगर तभी समीर का फोन आया-
“कहाँ है यार ?”
“बस दो मिनट दे भाई, अभी आया।”
उसे ढूढता भी कैसे कुछ पता ही ना था उसके बारे में। मगर वापस कैसे जाये, रास्ता तो देखा नहीं हमने। फिर कुछ लोगों से पुछ कर और कुछ गूगल की मदद से हम वापस अस्सी घाट पहुँचे। मेरे वापस पहुँचने तक घाट का माहौल पूरा बदल चुका था। चारों ओर सन्नाटा पसर गया था। कुछ लोग थे और कुछ संत मगर सब शान्त। कुछ दीये जो बचे थे वो भी आखिरी साँस ले रहे थे।
“अरे कहाँ रह गये थे यार जाने कब से खड़ा हूँ मैं यहाँ।”
“अरे दस मिनट ही तो हुए है भाई।”
“दस मिनट पगला गये हो। पूरे पैतालीस मिनट से गायब हो मियाँ, कर क्या रहे थे।”
“घर चलो बताता हूँ।”, हमने बनारस में एक कमरा किराये पे लिया था।
“अरे बोलो भाई गये कहाँ थे। हमसे सब्र ना होता है अब।”
“तुम्हें मालूम है जब आरती हो रही थी, मैंने एक लड़की को देखा। कयामत जानते हो कयामत। मतलब उसको देखते ही सब कुछ एकदम धुंधला-धुंधला सा हो गया। दिल की धड़कन सुनाई दे रही थी हमको। भाई गंगा मैया की कसम हमारा ऐसा कोई इरादा नहीं था मगर उसके अलावा पूरी आरती हमने किसी को देखा तक नहीं। बस उसी पे फोकस था हमारा।”
“अबे तुम आरती करने आये थे की लड़की देखने।”
“अरे भाई कसम से हम पूरी श्रद्धा ले गये थे वहाँ मगर…”
“अच्छा अच्छा ठीक है। तो तुम उसके पीछे पीछे गये थे। कुछ पता वता चला क्या ?”
“नहीं यार जाने किन गलियों में गायब हो गई।”
“चलो यार खाना बनाओ।”
मेरे दिमाग में बस उसका चेहरा घूम रहा था। इतना खो गया था उसके ख्यालों में की खाना बनाने के चक्कर में मैंने दो बार हाथ जला लिया।
“अबे राघव क्या हो गया है तुझे ?”
“भाई वो आरती वाली लड़की।”
“अबे तू अभी तक उसी के बारे में सोच रहा है। इतना बड़ा शहर है तूने एक लड़की को देख लिया जिसका का नाम जानता है ना पता।”
“है तो बनारस की ही ना, पता लगा लेंगे।”
समीर तो खाना खाकर सो गया पर मुझे नींद नहीं आ रही थी। आँख बन्द भी करता तो वही नज़र आती। यूँ ही रात गुजार दी मैंने उसके खयाल में।
अगले कुछ दिनों तक हम खाली ही थे। कॉलेज भी एक हफ्ते बाद से शुरु हो रहा था तो मैंने बनारस घूमना शुरु किया, इस आस में की कहीं तो वो दिख जायेगी। यूँ मैं ज्यादा घूमता फिरता नहीं मगर उस से मिलने की चाह जो ना कराती। पुरे हफ्ते मैं बनारस की गलियों के खाक छानता रहा मगर वो कहीं ना दिखी।
अगले दिन से कॉलेज शुरु हो रहा था सो मैं जल्दी सो गया, हिम्मत भी अब जवाब देने लगी थी।
“उठ जा कॉलेज नही जाना।”, जब समीर ने जगाया तब मेरी नींद खुली।
तैयार होकर हम कॉलेज पहुँच गये। पहली क्लास भी बहुत अच्छी गई, कुछ नये दोस्त भी मिले। एकबारगी के लिये कहूँ तो उसका खयाल मन से निकलने लगा था की किस्मत ने फिर से अपना खेल शुरु कर दिया।
हमने उसे कॉलेज में देखा, हाँ वही तो थी, नीला सलवार सूट पहने कंधे पे बैग लटकाये, हाँ वो वही थी। हमारा दिल फिर तेजी से धड़कने लगा।
“राघव वही है वो।”, मैने इशारा करते हुए राघव को बताया।
“ये तो सचमे कयामत है भाई।”, राघव ने मुस्कुराते हुए कहा।
“भाई कुछ भी करके मुझे उससे बात करनी है।”
“कोशिश कर ले। तुझसे हो पायेगा ?”
मैंने बोल तो दिया मगर हिम्मत जुटाना एक बात थी। मुझे एक हफ्ता लग गया मौका ढूढ़ने में। इस दौरान पता चला उसका नाम रिया था। यही बनारस की है जन्म से और पिताजी की साड़ियों की दुकान है। वो इंग्लिश पढ़ रही थी मगर कोई लड़का नहीं था उसकी जिन्दगी में।
एक दिन शाम को जब क्लास खत्म हुई और सब घर जा रहे थे, मैंने सोचा आज अपना भाग्य आजमाया जाय। सो मैं उसके पीछे हो लिया। वो सीधे गंगा जी के किनारे पहुँची और घाट की सीढ़ियों पे बैठ गई। मैं गया और उसके पास बैठ गया।
उसने तिरछी निगाह से और अपना मुँह फेर लिया जैसे वो जानती हो कि मैं उसके लिये ही आया था। वैसे अगर आप एक हफ्ते से किसी लड़की के पीछे घूम रहे हो तो जाहिर है उसे पता तो चल ही जायेगा।
मैं एकटक उसकी ओर देखे जा रहा था।
उसने पीछे देखा और पूछा, “जी आपको कोई तकलीफ है क्या ?”
“जी मुझे… जी नहीं तो।”
“तो फिर घूरना बन्द करेंगे।”, उसकी आँखो से साफ़ पता चल रहा था की वो किसी बात को लेकर काफी परेशान थी। उसने इतना कहा और आगे की ओर मुड़ गई।
“देखिये मैं आपसे प्यार…”
मैंने इतना ही कहाँ था की वो पीछे घूमी।
“प्यार करते है ? जानते क्या है मेरे बारे में ? देखिये मुझे इन सब चीजों में कोई दिलचस्पी नहीं है ?”
इतना कहकर वो वहाँ से चली गई।
दो दिनों बाद मै गंगा आरती के बाद उससे फिर मिला।
“रिया जी !”
“देखिये राघव जी, आपका नाम राघव है ना ? मुझे इश्क़ मोहब्बत में कोई दिलचस्पी नहीं हैं ?”
“मगर क्यूँ ?”
“मुझे इविंग सारकोमा है ? जानते है क्या होता है ये ? हड्डियों का कैन्सर।”, उसका चेहरा सफेद पड़ गया।
मुझे तो ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने खंजर गर्म करके अन्दर घुसा दिया हो। अन्दर जाता हुआ महसूस तो ना हुआ मगर जख्म वो तो बेहिसाब गहरा था।
मै निशब्द बैठा रह गया। शरीर तो वैसे ही रहा मगर आत्मा धम्म से गिर गई।
हिम्मत जुटाते हुए मैं बोला, “मैं फिर भी आपसे प्यार करता हूँ।”
“करते होंगे मगर मैं कुछ दिनों की मेहमान हूँ, ज्यादा से ज्यादा चार-पाँच महीने। मैं अपनी जिन्दगी बिल्कुल नॉर्मल होके बिताना चाह्ती हूँ। यही मेरी आखिरी इच्छा है। इसिलिए मैं कॉलेज आती हूँ। मगर प्यार नहीं बिलकुल नही।”
“रिया जी।”
“देखिये राघव जी मुझे जो कहना था मैंने कह दिया। मुझे अभी एक दोस्त से ज्यादा और किसी चीज की जरुरत नहीं है।”
मुझसे कुछ बोलते ना बना।
“तो हम दोस्त हैं राघव ?”
“हाँ।”
मेरा गला रुंध गया, आँखों में आँसू रुक से गये। जैसे उसके सामने बाहर आने से डरते हो। कैसे इतनी बड़ी बीमारी लेकर भी वो इतने आराम से जी रही थी, मुझसे तो ये बरदाश्त नहीं हो रहा था कि कुछ दिनों में वो मुझसे हमेशा के लिये जुदा हो जायेगी। वो जिससे मैं कभी मिल भी ना पाया।
इस मुलाकात के ठीक 98 दिनों के बाद उसकी मौत हो गई। रोज मिलता था मैं उससे। अपनी आँखों से रोज उसको धीरे-धीरे मरते हुए। जब आपको पता हो की कोई अपना आपसे दूर होने वाला है और आप चाह के भी कुछ ना कर सके इससे बड़ी मजबुरी नहीं हो सकती जिन्दगी में। उस जहर सी हो जाती है जिन्दगी जो एक बार में नहीं मारती बल्कि धीरे-धीरे अपना असर दिखाती है।
वो अक्सर शाम को मुझे घाट पे मिल जाती मगर अब अस्सी घाट से दशाशश्वमेघ घाट करीब दिखने लगा था।
उसके साथ बैठा तो रहता मगर ज्यादा बोल नहीं पाता था। अक्सर लोगों को ऐसी जगहों पे बात करने को कई चीजें मिल जाती है मगर हमारी बातें तो जैसे खत्म हो गई थी। आँखें बोल लेती थी कभी-कभी।
मरने के दो दिन पहले उसने कहा, “राघव अगर मेरी मौत तय ना होती तो जरुर मैं तुम्हारी होती।”
उस शाम से ज्यादा खुशनुमा और उससे ज्यादा मनहूस शाम दूसरी ना होगी।
यूँ तो मौत हमेशा घेरे रहती है मगर उसके साये में जीना…