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Sudha Adesh

Drama Tragedy

2.5  

Sudha Adesh

Drama Tragedy

संदेह के नागफनी

संदेह के नागफनी

23 mins
539


अनीशा आफिस से लौटकर घर के अंदर घुसी ही थी कि घर के बाहर लगे लेटर बाक्स से झाँकता एक लिफाफा नजर आया। उस पर अपना नाम और पता लिखा देखकर सोचने लगी आखिर यह किसका पत्र हो सकता है... सूचना क्रांति के इस युग में त्वरित सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिये अन्य साधन उपलब्ध होने के कारण निमंत्रणपत्र, बैंक स्टेटमेंट के अतिरिक्त प्यार और अपनत्व से लबालब भरे पत्रों का आना अब गुजरे वक्त की दास्तां लगने लगा है। लिफाफे के अक्षर जाने पहचाने लग रहे थे पर मस्तिष्क पर बहुत जोर डालने के पश्चात भी वह याद नहीं कर पा रही थी। संशययुक्त मन से लिफाफा खोला... संबोधन देखकर हर्ष मिश्रित भाव चेहरे पर आये। वह उत्सुकता के साथ पत्र पढ़ने लगी...

   

प्रिया बेटी अनीशा

सदा सुखी रहो,


बेटी, तुम्हारे विवाह को एक वर्ष पूरा हो गया है। तुम्हारे और कुणाल की बगिया में खिले प्यार और विश्वास के फूलों को देखकर मेरा मन प्रसन्नता से बाग-बाग हो उठता है। लगता है मेरा जीवन सफल हो गया। जीवन का बीतता हर पल तुम दोनों के बीच पनपे प्यार और विश्वास के बंधन को और मजबूती प्रदान करे, भूल से भी किसी की बुरी नजर तुम्हारी हरी भरी बगिया पर न पड़े... यही इस अशक्त बीमार, बूढे, तथा पल-पल मृत्यु की ओर अग्रसर व्यक्ति की कामना है।


अब तुम बड़ी हो चुकी हो। सही-गलत में भेद कर सकती हो... शायद इसीलिये आज मैं जीवन की उस घटना को तुम्हारे साथ शेयर करने का साहस कर पा रहा हूँ जिसने न केवल मुझे वरन् तुम्हें और तुम्हारी माँ को जीवन भर का दर्द दिया और मैं अपराधी न होकर भी अपराधी बन गया। बेटा, उम्र कैद पाया अपराधी भी यदि अच्छे चाल चलन और अच्छे व्यवहार का प्रमाणपत्र प्राप्त कर लेता है तो उसे चौदह वर्ष के पश्चात रिहा कर दिया जाता है। उसे सुधरने का मौका दिया जाता है लेकिन मेरी तो सफाई देते-देते तथा प्रायश्चित करते-करते पूरी उम्र ही बीत गई।


बेटी, मैं जानता हूँ कि तुम्हारे जीवन में तुम्हारी माँ का बहुत महत्व है... होना भी चाहिए। आखिर माँ तो माँ ही होती है। माँ ही बच्चे की प्रथम अध्यापिका, गाइड होती है। तुम्हारी माँ को भी मैं दोष नहीं देना चाहता क्योंकि उस समय जैसी परिस्थितियाँ निर्मित हुई, उसमें शायद कोई भी औरत वैसा ही व्यवहार करती जैसा उसने किया पर एक बार वह सुनी सुनाई बातों पर विश्वास न करके मेरी सुनती, मेरा विश्वास करती तब शायद परिस्थितियाँ भिन्न होतीं। जब-जब भी मैंने उसे सच्चाई से अवगत करना चाहा, उसने अनसुना करने का प्रयत्न किया या सुना भी तो उस पर विश्वास नहीं किया। बेटा, मैं नहीं जानता कि तुम भी अपनी माँ की तरह मेरी बात पर विश्वास कर पाओगी या नहीं पर अगर आज मैंने अपने जीवन की सच्चाई का बयान नहीं किया तो शायद शांति से मर भी नहीं सकूँगा। बेटा, मैं यह नहीं कहता कि मेरी कोई गलती नहीं थी। पहली गलती यह थी कि मैंने अपने पुरूषोचित्त अहंकार में एक स्त्री का जाने-अनजाने अपमान किया था तथा दूसरी यह कि मैं आने वाले तूफान को भाँप नहीं पाया।


उस घटना के कारण तुम्हारी माँ ने भले ही मुझसे दूरी बना ली थी पर उसने मुझसे तलाक की माँग कभी नहीं की। दिलों में दूरियाँ आने पर भी हमने तुम्हारे... अपनी बच्ची के भविष्य के लिये एक फैसला लिया था कि जब तक तुम वयस्क नहीं हो जाती, तुम्हारा विवाह नहीं हो जाता तब तक हम अलग नहीं होंगे। इस समझौते के साथ उसने एक शर्त मेरे सामने यह भी रखी थी कि साथ-साथ रहने के बावजूद तुम कभी मेरे या मेरी बेटी के समीप आने का प्रयत्न मत करना। इस समझौते के बावजूद वर्षो तक मैं इसी उम्मीद में जीता रहा कि शायद समय के साथ हमारी गलतफहमियाँ दूर हो जायें तथा एक दिन हम सहज जीवन बिता सकें।


अपने बेजान हो आये रिश्ते पर लोगों की नजर न पड़े इसलिये हम सभा समारोह में सदा साथ जाने का प्रयत्न करते। मन की कडुवाहट को कुछ पलों के लिये भुलाकर सामान्य रहने का भी प्रयास करते लेकिन घर की चारदीवारी में घुसते ही चेहरों की भाषा बदल जाती, मुस्कान लुप्त हो जाती, तब लगता हर इंसान एक अभिनेता है। हाँ, यह बात अलग है कि कोई इसी के बल पर अपनी रोजी रोटी कमाता है और कोई अभिनय करते-करते पूरी जिंदगी ही गुजार देता है किंतु उसके इस गुण का किसी को पता भी नहीं चल पाता...।


कितने सुनहरे दिन थे वे, जब मैं हैदराबाद के ब्रांच आफिस में जनरल मैनेजर के पद पर स्थानांतरित होकर आया था। पहली बार जी.एम. बना था। नया-नया पद तथा रूतबा था। युवा खून तथा काम करने का हौसला भी था। कंपनी को लाभ पहुंचाने के लिये मैं नित नये-नये प्रयोग कर रहा था। संभावनायें तलाशने के लिये लगभग हर हफ्ते ही दो तीन दिन के लिये बाहर जाना पड़ता था। मुझे खुशी थी तो इतनी कि तुम्हारी माँ प्रीति मेरे हर फैसले में सदा मेरे साथ रही थी। उसने कभी देर सबेर आने पर मुझे टोका नहीं, न ही कभी क्रोधित हुई। उसने घर बाहर की पूरी जिम्मेदारी संभालकर मुझे घर के झंझटों से मुक्त कर दिया था। मैं स्वयं को अत्यंत ही भाग्यशाली समझता था जिसे इतनी समझदार पत्नी मिली। सच तो यह था कि उसके सहयोग के कारण ही मैं आफिस में पूरे मनोयोग से काम कर पा रहा था। उस समय मुझे लगता था कि किसी ने सच ही कहा है आदमी की सफलता के पीछे औरत का योगदान होता है।


काम से मैं कभी घबड़ाया नहीं था। मेरा मानना था जब तक काम चैलेन्जिग न हो तब तक काम करने का मजा ही क्या है? अपनी इसी खासियत की वजह से मैं मात्र दस वर्षो में ही उस जगह पर पहुँच गया जहाँ तक किसी अन्य को पहुँचने में वर्षो लग जाते हैं। आधीनस्थ कर्मचारी जहाँ मेरे काम के प्रति कठोर रवैये से खौफ खाते थे वहीं कुछ आफिस के बगल में बने कैबिन में बैठी खूबसूरत सैक्रेटरी को देखकर ईष्यालु भी हो उठते थे।


वस्तुतः सैक्रेटरी मिस एलफेंसो थी भी गजब की सुन्दरी। ऊपर से उसका लिबास ऐसा कि अच्छे से अच्छा अपनी सुधबुध खो बैठे लेकिन काम में बेहद चुस्त। एक विश्वस्त अधिकारी ने उसकी प्रशंसा करते हुए चेतावनी के स्वर में कहा था, ‘सर, इससे आज तक कोई बच नहीं पाया है, संभलकर रहिएगा...।’


‘मैं उन लोगों में नहीं हूँ जो किसी की बाह्य सुंदरता को देखकर पिघल जाऊँ। ऐसी ओछी हरकत सभ्य और सुसंस्कृत व्यक्ति नहीं वरन् ओछी मनोवृत्ति वाले ही करते हैं।’ तब मैंने अकड़कर कहा था।


एक आवश्यक मीटिंग चल रही थी उसके कुछ आवश्यक पाइन्टस को नोट करने के लिये मैंने मिस एल्फेन्सो को बुलाया था। उसके अंग-प्रत्यंग झलकाते टॉप को देखकर मेरे मुँह से अनायास निकल गया, ‘मैडम, यह आफिस है न कि फैशन परेड का स्टेज, आइंदा से आफिस आते समय आप अपने लिबास पर ध्यान दिया करें।’


मेरे वाक्य को सुनकर मेरे साथ बैठे अन्य अधिकारी मुस्करा दिये थे। अपमानित तथा आहत सी मिस एल्फेन्सो ‘एस सर’ कहकर न चाहते हुए भी डिक्टेशन लेती रही...।


मेरे रूप और अदाओं के भंवर जाल से आज तक कोई बच नहीं पाया है। न जाने यह किस मिट्टी का बना है, जो मेरी सराहना करना तो दूर हर समय अपमानित ही करता रहता है... चेहरे पर लिख आई उसके मन की इबारत को पढ़कर मन ही मन आई हँसी के साथ ही साथ अपने दृढ़ चरित्र पर मैं गर्वोन्मुख भी हो उठा था।


यह सच है कि मेरा उसको अपमानित करने का कोई इरादा नहीं था और न ही यह मेरे व्यक्तित्व में सम्मिलित था किन्तु यह भी सच था कि उस अधिकारी के उक्त कथन के पश्चात मैं उसके प्रति कुछ ज्यादा ही विरक्ति का प्रदर्शन करते हुये उससे शालीनता की अपेक्षा करने के साथ उसे यदा कदा टोक भी दिया करता था पर उस दिन कई लोगों के सामने टोकना शायद मिस एलफेंसो को आहत कर गया था। औरत का यह रूप मुझे कभी भी पसंद नहीं था। मेरा मानना था कि एक औरत को सदा शालीनता के दायरे में रहना चाहिए चाहे वह घर में हो या बाहर...। इसी मनोवृत्ति के कारण अनायास ही मुँह से निकले उस वाक्य पर मुझे किंचित भी अफसोस नहीं हुआ था।


कुछ समय पश्चात् मेरा बैंगलोर जाने का कार्यक्रम बना। ऐसे टूर्स में मीटिंग की ब्रीफिंग के लिये विवाद से बचने के लिये मिस एलफेंसो की जगह मैं अपने अन्य असिस्टेंट को ले जाया करता था पर इस बार उसने स्वयं ही आकर कहा कि सर, गार्डन सिटी में मेरी बहन रहती है। वह काफी दिनों से बीमार है, अगर आप मुझे साथ ले चलें तो मेरा उससे मिलना भी हो जायेगा।


उसके आग्रह को इंसानियत के नाते ठुकरा नहीं पाया। बंगलौर पहुँचकर हम एक ही होटल में रूके। कमरे अगल-बगल थे। रात दस बजे दरवाजे पर दस्तक हुई। दरवाजा खोला तो बाहर मिस एलफेंसो को खड़ा पाया। मुझे देखते ही मिस एलफेंसो ने कहा, ‘सर, अकेले बहुत घबड़ाहट हो रही है, अगर आपको आपत्ति न हो तो क्या मैं अंदर आ सकती हूँ?’


उसकी आवाज में आकुलता और घबड़ाहट देखकर असमंजस की स्थिति में मैं उसके शब्दों को तौल ही रहा था कि वह वहीं खड़ी-खड़ी लड़खड़ाने लगी। उसे लड़खड़ाकर गिरता देख एकाएक मैंने उसे अपनी बाहों में थाम लिया तथा अपने ही पलंग पर लिटा दिया। डाक्टर को बुलाने के लिये फोन की तरफ हाथ बढ़ाया ही था कि उसने मुझे रोकते हुए कहा, ‘रहने दीजिए सर, अभी कुछ देर में ठीक हो जायेगा... बस एक गिलास पानी...।’


‘हाँ... हाँ क्यों नहीं...?’ पानी से भरा गिलास उसकी ओर बढ़ाते हुए मैंने कहा था।


‘अगर आपको बुरा न लगे तो कुछ समय मैं आपके साथ आपके कमरे में बिता सकती हूँ, पता नहीं क्यों अकेले में बहुत बेचैनी हो रही है... आज से पहले ऐसा कभी नहीं हुआ।’


मानवता के नाते मैंने उसकी बात मान ली तथा दूसरे दिन की मीटिंग की तैयारी करने लगा। एकाएक लगा कि किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा है। पीछे मुड़कर देखा तो मिसेज एल्फेन्सो खड़ी है। उसके हावभाव देखकर कुछ अजीब सा लगा। मैं एकाएक खड़ा हो गया तथा उसे नम्रतापूर्वक अपने कमरे में जाने को कहा किंतु वह टस से मस नहीं हुई। मन किया कि होटल के स्टाफ को बुलवाकर उसे अपने कमरे से बाहर निकलवा दूँ पर अपने आफिस की बदनामी के डर से ऐसा करना उचित नहीं लगा। अंततः मैं स्वयं ही कमरे से बाहर निकल आया। काफी देर तक उसके बाहर निकलने का इंतजार करता रहा किन्तु वह बाहर निकलने का नाम ही नहीं ले रही थी। सुबह से थका माँदा आँखें नींद से बोझिल हो रही थीं अंततः मैं उसके कमरे में जाकर सो गया। बेटा, बस यही मुझसे गलती हुई जिसकी सजा मैं आज तक भुगत रहा हूँ...।


अभी झपकी लगी ही थी कि बाहर शोर सुनकर उठ बैठा। जब तक कुछ समझ में आता स्थिति मेरे हाथ से निकल चुकी थी। मिसेज एलफेंसो ने अपनी अवहेलना तथा अपमान का बदला लेने के लिये मुझ पर उसके कमरे में जबरदस्ती घुसकर, जबरदस्ती करने का आरोप लगा दिया था। पुलिस केस हो गया। होटल के मैनेजर को भी अपने होटल के रेपुटेशन की चिंता थी अतः उसने भी तुरंत ही होटल खाली करने का आदेश दे दिया।


अपमानित सा अधूरा काम छोड़कर घर लौट आया था। सोचा था कि प्रीति को सारी बातें बताकर अपने दिल का बोझ हलका कर लूँगा। पति के मन को पत्नी नहीं समझेगी तो और कौन समझेगा? इससे पहले कि मैं अपनी सफाई में कुछ कह पाता, उसे जो परोसा गया, उसे ही उसने सच मान लिया। मेरे पहुँचने के पहले ही पी.एस. के साथ रंगरेलियाँ मनाने की खबर की धमक उसके पास पहुँच गई। तुम्हारी माँ एक बार शायद मुझे क्षमा भी कर देती किंतु अग्नि में घी डालने काम मेरे आफिस के ही एक आफिसर ने करवाया था। वह जी.एम. पद का हकदार था किंतु कंपनी द्वारा मेरी नियुक्ति कर दिये जाने के कारण वह जी. एम. नहीं बन पाया था। इस अवसर का फायदा उठाते हुए उसने अपनी पत्नी के द्वारा मेरे और मिस एलफेंसो के बारे में तरह-तरह की झूठी बातें तुम्हारी माँ तक पहुँचाकर उसके मन में ऐसा जहर भर दिया जिसकी कोई दवा मेरे पास नहीं थी...।


आश्चर्य तो मुझे तब हुआ जब मिस एलफेंसो ने अपना आरोप वापस लेने के लिये मुझसे दस लाख की माँग की। उसकी माँग स्वीकार करना मेरे लिये अपमानजनक ही नहीं अपना दोष स्वीकारने जैसा लगा। इस बात का भी क्या भरोसा कि उसकी माँग मान लेने पर वह अपनी जबान से मुकरेगी नहीं या इसी हथियार को मेरे विरूद्ध साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत करने से नहीं हिचकेगी...।


मैं सोच भी नहीं सकता था कि एक स्त्री अपने अपमान का बदला लेने के लिये अपनी इतनी छीछालेदर... इतनी बदनामी भी करवा सकती है या अपने शरीर को हथियार बनाकर किसी का शोषण भी कर सकती है। बाद में पता चला कि लोगों को अपने रूप जाल में फँसा कर पहले अपने करीब लाना तथा बाद में उसे ब्लैक मेल कर रूपये ऐंठना मिस एलफेंसो आदत थी। आफिस का एक कर्मचारी भी इस कार्य में उसकी मदद किया करता था। मुझे अपने रूप जाल में न फँसता देख तथा बात-बात में उसे टोकने के कारण बदला लेने की नीयत से उसने यह जाल बुना था और उसमें वह सफल भी हुई थी। दुख तो इस बात का था कि तुम्हारी माँ ने इस समय अपने पति से अधिक दूसरे लोगों की बातों पर भरोसा किया था...।


उस दिन मिस एलफेंसो का फेंका तीर गले में फँसी ऐसी हड्डी बना जिसे मैं जिंदगी भर निकाल कर फेंक नहीं पाया। मैं भूल गया था जहाँ स्त्री ममता, त्याग, बलिदान की देवी होती है वहीं ईर्ष्या, क्रोध और बदले की भावना में जलती दुर्गा का रूप धारण कर संसार को ध्वस्त करने की भी क्षमता रखती है।


इसके साथ ही जिंदगी एक दुखद अध्याय बनकर रह गई। कोर्ट कचहरी में स्वयं को निर्दोष साबित करने के प्रयत्न के साथ ही प्रीति का असहयोग भी झेलना पड़ा था। तुम उस समय मात्र चार वर्ष की थीं। सकून है तो सिर्फ इतना कि जज ने साक्ष्यों और मेरी बातों पर विश्वास करके, मुझे बाइज्जत बरी कर दिया पर मैं चाहकर भी तुम्हारी माँ का विश्वास नहीं जीत पाया...।


उस घटना की छाया से मुक्ति पाने के लिये मैंने वह कंपनी छोड़ दी। दूसरी कंपनी ज्वाइन कर दूसरी जगह चला आया किंतु उससे भी कुछ लाभ नहीं हुआ। बेटी, जीवन में एक सैलाब आया था जो हमारे प्यार और विश्वास के धागों को बहाकर ले गया। मैं यह सोचकर जीता रहा कि अनकिये पाप की सजा का कभी तो अंत होगा किंतु वह समय कभी आया ही नहीं। तुम अपनी माँ के ज्यादा करीब थीं। मैं अलग थलग पड़ गया था। कभी तुमसे बैठकर बातें करना चाहता या तुम्हें घुमाने ले जाना चाहता तो तुम्हारी माँ अपनी शर्त याद दिला देती अतः धीरे-धीरे मन पर अंकुश रखने लगा। अगर तुम मेरे पास आना चाहती तो तुम्हारी माँ यह कहकर रोक देतीं तुम्हारे पापा बहुत व्यस्त हैं उन्हें परेशान मत किया करो। तुम्हारे आगे बढ़े कदम ठिठक जाते। तुम सोचती होगी कि कैसे हैं तुम्हारे पिता जो न कभी कहीं घुमाने ले जाते हैं और न ही कभी आइसक्रीम, चाकलेट खिलाते हैं पर मैं मजबूर था बेटा...।


मुझे पत्नी के रहते पत्नी का सुख तो मिला नहीं किंतु इससे भी बड़ा दुख इस बात का था कि संतान के रहते भी संतान सुख भी नहीं मिला। आंतरिक पीड़ा से बेचैन होकर कभी-कभी सोचता कि इस तरह से जिंदगी बिताने से अच्छा तो यह है कि हम दोनों तलाक लेकर अपनी-अपनी इच्छानुसार जिंदगी जीयें या मैं ही घर छोड़कर भाग जाऊँ किंतु तभी तुम्हारा मासूम चेहरा सामने आकर अनियंत्रित विचारों पर रोक लगा देता। मैं यह नहीं कहता कि सजा सिर्फ मैंने पाई, सजा तो तुम्हारी माँ ने भी पाई और तुमने भी...। सच कहता हूँ बेटा अगर एक बार वह अपना पूर्वाग्रह त्यागकर मेरी आँखों में झाँकती तो वहाँ उसे मेरी निर्दोषता अवश्य दिखाई देती पर उसने तो अपनी आँखों पर काली पट्टी बाँध रखी थी । जिसे मैं जी जान से चाहता था उसे ही अपनी निर्दोषता का विश्वास नहीं दिला पाया...एक अजीब सी बेचैनी और घुटन सी छा गई थी जीवन में...।


मैंने सोचा था कि तुम्हारे विवाह के पश्चात अकेलेपन की त्रासदी शायद हमें नजदीक ले आये या जीवन की आवश्यकतायें ही हमारे बीच की दूरी को खत्म कर दें। पति-पत्नी का संबंध तो हम निभा नहीं पाये शायद मित्र बनकर ही शेष जीवन काट लें किंतु तुम्हारी माँ को वह भी मंजूर नहीं हुआ । हम दोनों के बीच का एकमात्र सेतु तुम जा चुकी थी। तुम्हारे जाने के पश्चात् तुम्हारी माँ और भी अंतर्मुखी होती चली गई थीं...।


बेटा, तुम्हारे जाने के पश्चात मैंने चार महीने तो किसी तरह काटे पर जब और सहा नहीं गया तब मैंने बहुत दुखी मन से आखिर वह फैसला ले ही लिया जो तेरे रहते नहीं ले पाया था। वैसे भी हमारे बीच हुआ समझौता तब तक के लिये ही था जब तक तेरा विवाह नहीं हो जाता। अब कोई बंदिश नहीं थी फिर भी मोह तो था साथ ही परिस्थितियों को अपने अनुकूल न बना पाने का दुख भी। दुखी मन से एक दिन सूटकेस में अपने कुछ कपड़े लेकर बिना कुछ कहे सुने घर से निकल गया। असमंजस की स्थिति में रेलवे प्लेटफार्म पर बैठा ही था कि मोबाइल बज उठा... फोन मेरे बचपन के मित्र विनय का था वह दुबई में रहता था तथा सदा की तरह छुट्टियाँ बिताने भारत आया था। उसने मिलने की इच्छा जाहिर की। उसे अपने घर कैसे बुलाता? मैं ही उसके घर चला गया...।


हाथ में सूटकेस देखकर उसने पूछा कि कहीं बाहर जा रहे थे क्या...? उसके इस प्रश्न को सुनकर रहा नहीं गया तथा वर्षो से दिल में संजोया दर्द जुबां पर आ ही गया। मेरी बातें सुनकर वह हतप्रभ रह गया। उसे हमारे बीच की दूरी का एहसास तो था पर इसका अंजाम ऐसा होगा, उसने सोचा भी नहीं था। उसने क्या अपने रिश्ते के इस अंजाम की यह कल्पना तो मैंने भी नहीं की थी। सदा यही सोचता रहा कि नया दिन शायद हमारे बीच की गलतफहमियाँ दूर कर दे पर ऐसा न हो सका। मैं थक गया था बेटा... हार गया था...।


मुझे हैरान परेशान देखकर उसने अपने ही घर में रहने की पेशकश की। साल के ग्यारह महीने तो उसका घर खाली ही रहता था। उस समय मैं उसे कोई उत्तर नहीं दे पाया शायद उस समय भी मेरे मन में एक आशा थी कि शायद तुम्हारी माँ मुझे वापस बुला ले पर दो दिन पश्चात भी जब उसका कोई फोन नहीं आया तब मैंने मान लिया कि उसे मेरी कोई परवाह ही नहीं है। आखिर विनय की बात मानकर मैं उसके घर में रहने लगा।


मेरी हालत देखकर विनय से रहा नहीं गया... वह मेरे मना करने के बावजूद तुम्हारी माँ से सुलह करवाने के उद्देश्य से उससे मिलने चला गया। उसने सदा की तरह उसका स्वागत किया। जब विनय ने मेरे बारे में तुम्हारी माँ से पूछा तो उसने सहज स्वर में कहा कि मैं किसी कार्य के सिलसिले में विदेश गया हूँ... सुनकर वह हतप्रभ रह गया। वह समझ नहीं पा रहा था कि यह कैसा रिश्ता है जिसमें न जुड़ने का प्रयत्न किया जा रहा है और न तोड़ने का। ऐसी स्थिति में वह कहता भी तो क्या कहता, बिना कुछ कहे सुने लौट आया।


शायद तुम्हारी माँ सच्चाई बयान कर अपने दामन पर कोई दाग नहीं लगने देता चाहती थीं, इसीलिये झूठ बोल गई। अपनी ऊँची नाक को बचाने के लिये उसने न सिर्फ विनय वरन् अन्य लोगों से भी इसी तरह की बातें की होंगी। शायद इसी ऊँची नाक को बचाने के लिये उसने इस बेमतलब हो आये संबंध को ढोया भी था। वह महान है बेटा, तभी उसने राज को राज ही रहने दिया पर मैं महान नहीं बन पाया तभी मैंने अपने घर का राज दूसरे के सामने उजागर कर दिया किंतु बेटा, मैं तंग आ गया था इस बेमकसद बन गये जीवन से... व्यर्थ के तनाव से... उस समय मुझे जो उचित लगा वही मैंने किया...। तुम्हारी माँ के झूठ को सच बनाने के लिये नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। पी.एफ. ग्रेच्युएटी से मिले पैसे का एक चाैथाई अपने पास रखकर तुम्हारी माँ के एकाउन्ट में जमा करा दिये। ज्यादा पैसे रखकर भी क्या करता? आखिर मेरी आवश्यकतायें थीं ही कितनी...?


जब तक तू उस घर में थी मेरी जिम्मेदारी थी अब तू अपने घर में है... पर यह मत भूलना कि घर की नींव की बुनियाद प्यार और विश्वास पर रखी जाती है। इसके लिये कभी-कभी कठिन परीक्षाओं से भी गुजरना पड़ता है... समझौते करने पड़ते हैं, कभी अपने लिये तो कभी बच्चों की खुशी के लिये। घर तोड़ना बहुत आसान है मेरी बच्ची किंतु घर जोड़ना बहुत ही कठिन है। अविश्वास की एक छोटी सी किरच भी भरे पूरे दाम्पत्य जीवन को क्षण भर में तहस-नहस कर सकती है, मुझसे ज्यादा इस तथ्य से कौन परिचित होगा...?


बेटा, जब दो अलग-अलग परिवारों से आये दो व्यक्ति एक ही नाव पर सवार होकर अपना सफर पार करने की कसमें खाते हैं तो उनमें स्वभावगत विभिन्नतायें तो होती ही हैं, कभी अहम् से अहम् टकराते हैं, कभी गलतफहमियाँ पैदा होती हैं... इन सबसे उबरने के लिये समझौते भी करने पड़ते हैं। जीवन में कोई भी अहम् फैसला लेने से पहले इतना अवश्य ध्यान रखना कि तुम्हारे किसी फैसले पर एक नहीं वरन् कई जिंदगियाँ दांव पर लगी हुई हैं। वैसे भी हम सब इंसान ही हैं। गलतियाँ हर इंसान से हो सकती हैं... क्षमा इंसान का सबसे बड़ा गुण है। यदि तुम किसी से प्यार करती हो तथा उसके साथ-साथ जीवन बिताने का फैसला लेती हो तो उसके गुणों के साथ-साथ अवगुणों को भी अपनाने के लिये प्रयत्नशील रहना होगा, तभी जीवन सार्थक हो पायेगा...।


सच कहता हूँ बेटा, घर छोड़ने के बाद भी मोह नहीं छूट पाया। सदा तुम लोगों की खबर लेता रहा... पर हाँ यह अवश्य है कि तेरी माँ को दिये वचन के कारण मैंने तेरा फोन रिसीव नहीं किया क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि मेरा अता पता किसी को मिले। चाहता तो था कि किसी से बिना कुछ कहे, बिना कुछ सुने आँख मूँद लूँ किंतु अंतिम पलों में तुझे देखने की न जाने कैसी लालसा मन में जाग उठी है तभी जीवन के अंतिम क्षणों में वचन तोड़ने के अपराधबोध से भी स्वयं को मुक्त कर तुम्हें पत्र लिखने का साहस कर पा रहा हूँ। कुछ पलों का ही जीवन शेष है... तुम यदि चाहो तो इस मरते हुए इंसान को... अपने पिता को सुकून के दो पल दे दो...।

 

- तुम्हारा पापा

 

आँखों से झर-झर आँसू बह रहे थे। स्वयं को संयत कर लिफाफा देखा तो पते की जगह अस्पताल का नाम लिखा था। अनीशा हाथ में लिये पत्र को पढ़कर किंकर्तव्यविमूढ हो गई...। अतीत की सारी घटनाओं पर गौर किया तो लगा पापा ने ठीक ही लिखा है। पापा जब-जब उसके पास आने का प्रयत्न करते, माँ की कठोर मुद्रा उन्हें उससे दूर ले जाती। माँ से पूछने का प्रयत्न करती तो वह सपाट स्वर में कहतीं कि मैं नहीं चाहती कि वे अपने लाड़ प्यार से तुम्हें बिगाड़ें...। 


ओफ! कैसा छल किया भाग्य ने... पिता के रहते वह पिता के प्यार से वंचित रही, आखिर क्यों? पिताजी के घर छोड़कर जाने से वह बहुत आहत हुई थी। कुणाल तथा उसके घर वालों के चेहरे पर भी उसने कई प्रश्न देखे थे... पर उसने वही कहा जो माँ ने उससे कहने के लिये कहा था... दरअसल विनय अंकल को बताई बात ही उन्होंने सबको बताई थी। लोगों के मुँह तो बंद हो गये थे पर जैसे-जैसे दिन बीतते जा रहे थे, उनके तरह-तरह के प्रश्न उन्हें परेशान करने लगे थे...। तब लगता अनकहे ही सच्चाई सामने आती जा रही है।


अचानक अनीशा उठी कुणाल बाहर टूर पर गये हुए थे। वह कार निकालकर अकेली ही माँ के पास गई। वस्तुस्थिति जानकर भी माँ ने उसके साथ चलने से मनाकर दिया...। अंततः उसके मुँह से निकल गया…


 ‘माँ अब तो अपना पूर्वाग्रह छोड़ दो, मरने वाला कभी झूठ नहीं बोलता... वैसे भी वे मेरे पिता हैं, आप जाओ या न जाओ मैं अवश्य जाऊँगी।’ 


अनीशा की बातों ने उस पर असर किया या अंतिम पलों में साथ देने की इच्छा ने... उसको चलने के लिये तैयार देख उनसे रहा नहीं गया तथा वह भी साथ चलने को तैयार हो गई। वह उनको लेते हुए अस्पताल पहुँच गई। रिसेप्शनिस्ट से पूछा तो पता चला कि इस नाम का एक व्यक्ति जनरल वार्ड में एडमिट है... आप वहाँ जाकर देख लें...।


जरनल वार्ड पहुँचकर पता चला कि इस नाम के आदमी की तबियत अचानक बिगड़ गई थी जिसके कारण उसे आई.सी. यू. में ले जाया गया है। वे वहाँ पहुँची... सामने से आते डाक्टर से पूछा तो उसने उन्हें हिकारत की नजर से देखते हुए कहा, ‘आप अब आई है... पिछले दो महीने से वह बीमार था, तब तो आपने सुध नहीं ली, अब उसे आपकी तो क्या किसी की भी आवश्यकता नहीं है।’ कहते हुए वह चले गये।


डाक्टर की बातों ने उन्हें हतप्रभ कर दिया। क्या पापा नहीं रहे? वह सोच ही रही थी कि बाहर आती आवाजों ने उसके मनमस्तिष्क को शून्य कर दिया…


‘शायद इसका अपना कोई नहीं है, तभी तो इससे मिलने कोई नहीं आता था...।’


‘देखने में तो अच्छे घर का लगता है लेकिन न जाने ऐसा क्या हो गया था कि अपनों ने ही इसका साथ छोड़ दिया। अल्लाह, ऐसा दिन किसी को न देखना पड़े...।’ तीसरी आवाज ने खुदा की इबादत में अपने हाथ जोड़ दिये।


‘तुम ठीक कह रही हो, अभी हफ्ते भर पहले ही इसने मुझसे एक कागज और पैन माँगा था। मैं देखती थी जरा भी ठीक महसूस होने पर ये कुछ लिखने बैठ जाते थे। फिर फाड़कर फेंक देते, उसे ऐसा करते देख मैंने उनसे पूछा तो उत्तर दिया कि किसी को कुछ लिखना चाहता हूँ पर समझ नहीं पा रहा कि लिखूँ या न लिखूँ...। तब मैंने कहा, मन की बात कह देने से मन का बोझ हलका हो जाता है। अगर आप किसी को कुछ लिखना चाहते हैं तो अवश्य लिखें। तब उसने एक पत्र लिखकर मुझे पोस्ट करने के लिये दिया था तथा आग्रह करते हुए कहा था... ‘बहुत जरूरी है, प्लीज सिस्टर समय से पहुँच ही जाना चाहिए...।’


पता अपने ही शहर का था। उनके शब्दों में ऐसा आग्रह था कि मैं यह सोचकर स्वयं पत्र लेकर उस पते पर गई कि डाक से न जाने कितने दिनों में यह पत्र पहुँचे पर बाहर ताला लटका देखकर पत्र घर के बाहर लगे लैटर बाक्स में डाल आई। पता नहीं वह पत्र उसे मिला या नहीं जिसे वह भेजना चाह रहा था। सच बहुत ही भला आदमी था, इतने कष्ट में भी उसने कभी किसी को बुरा भला नहीं कहा... अपना दर्द स्वयं सहता रहा पर कभी ऊफ तक नहीं की।’


‘अब इसकी लाश का क्या करेंगे?’ दूसरी आवाज थी।


‘और क्या करेंगे? इसे भी मुर्दाघर में डाल देंगे। कोई क्लेम नहीं करेगा तो अंत में वही होगा जो ऐसे अन्य लोगों के साथ किया जाता है...।’ पहली आवाज थी।


‘ नहीं... सुना है, एडवांस पेमेंट करने के साथ-साथ, जाते जाते वह अपना शरीर मेडिकल कालेज को दान कर गया है...।’


‘क्या...? मुझे तो पता ही नहीं था।’


‘मेरे सम्मुख ही उन्होंने सारी औपचारिकतायें पूरी की थीं...।’


‘अवश्य ही कोई भला आदमी था तभी शरीरदान का निर्णय ले पाया... ईश्वर उसकी आत्मा को शांति दे।’


एकाएक वहाँ मौन पसर गया...। उनका वार्तालाप सुनकर अनीशा को अपने पैरों के नीचे से जमीन खिसकती महसूस हुई...। पापा को शायद उस पर विश्वास नहीं रहा था, तभी उन्होंने अपने शरीर को दान करने का निर्णय लिया होगा। स्वयं को संभालकर अनीशा ने अंदर प्रवेश करके दृढ़ स्वर में कहा, ‘ये मेरे पिताजी हैं... मैं इनकी कस्टडी लेना चाहूँगी।’


‘आपके पिताजी... अगर इनकी कस्टडी लेना चाहती है तो आफिस जाकर सारी औपचारिकतायें पूरी कर लीजिए...।’ वहाँ खड़ी एक सिस्टर ने उत्तर दिया।


उस सिस्टर की नजरों में न जाने ऐसा क्या था कि वह बहुत देर तक उसका सामना न कर सकी तथा माँ को वहीं बिठाकर वह अन्य औपचारिकतायें पूरी करने के लिये चली गई। वहाँ जाकर उसे पता चला कि नर्स सच ही कह रही थी। उनकी अंतिम इच्छा का मान रखते हुए अस्पताल प्रशासन ने उनके पार्थिव शरीर को उसे देने से मनाकर दिया... वैसे भी अस्पताल प्रशासन बिना किसी प्रूफ के उन्हें उनका पार्थिव शरीर देता भी देता कैसे?


माँ की आँखों में उसने सदा पिता के लिये विरक्तता या शून्यता ही देखी थी किंतु आज उनकी आँखों में आई नमी को देखकर वह चौंक गई...। क्या माँ भी पिताजी को प्यार करती थीं...? कहने सुनने का वक्त बीत गया था पर इतना अवश्य समझ में आ गया था कि एक छोटी सी भूल या एक गलत फैसला पूरे जीवन को तहस नहस करने की क्षमता रखता है। वे दोनों खाली हाथ घर लौट आई। किसी से कहती भी तो क्या कहती, पर उनकी मृत्यु की सूचना तो देनी ही थी अन्यथा कब तक झूठ को गले लगाये रखती। लोग तो जब तब पूछ ही बैठते थे कब आ रहे हैं आलोक बाबू...?


अनेकों झूठ में एक झूठ की और वृद्धि हो गई... लोगों से कहा गया कि दूर देश में एक एक्सीडेंट में आलोक की मृत्यु हो गई है। शव इतनी बुरी तरह क्षत विक्षत हो गया था कि उसको यहाँ लाना संभव ही नहीं था अतः उनके मित्र ने वहीं उनका दाह संस्कार कर दिया। उनकी मृत्यु का समाचार सुनते ही शोक प्रकट करने वालों का तांता लग गया। माँ को निःशब्द सारी रस्में निभाते देखकर अनीशा सोच रही थी कि काश यही जिम्मेदारी माँ पिताजी के जीते जी निभाती तो उसका अतीत रसहीन एवं कड़ुवाहट से ओत-प्रोत न रहता...।


मन में चलता बबंडर उसे चैन नहीं लेने दे रहा था। बार-बार उसे एक ही विचार परेशान कर रहा था... गलती किसकी थी...? माँ की जिन्होंने पिताजी को समझना ही नहीं चाहा या पिताजी की जो एक अनकिये अपराध की सजा ताउम्र भोगने को बाध्य रहे...। कभी-कभी इंसान को समझने में कितनी बड़ी भूल हो जाती है। पिता भी थे, उनका प्यार भी था किंतु उसने उन्हें, उनके प्यार को कभी समझने का प्रयत्न ही नहीं किया और अब जब वह नहीं है तो उनके लिये आँसू बहा रही है। कैसी बेटी है वह जो उनके जीते जी न उन्हें खुशी दे पाई और न ही उनकी अंतिम इच्छा का मान रख पाई...? काश! उन्हें जीवन के कुछ पल और मिल पाते...!! कई काश उसके मन में अनेक कैक्टस उग कर उसके तन-मन को लहूलुहान किये जा रहे थे पर वह उफ भी नहीं कर पा रही है... माँ के मन के कैक्टस ने, उस एक पल के फैसले ने तीन जिंदगियों को उम्र भर का दर्द दे दिया था।


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