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कसक

कसक

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रात तो कब की बीत चुकी थी। रात की बातें भी कब की सूख कर हवाओं में फड़ फड़ा रही थीं। बस में बैठे बैठे कसक खिड़की से बाहर न जाने क्यों देखने, समझने व महसूसने की कोशिश कर रहा था। नींद से आंखें भरी थीं। अधखुली आंखों में कितने ही ख़्याल और सपने धमाचौकड़ी मचा रहे थे। गोया पूरी रात आंखों में ही कटी हो। अब यह तो पता नहीं रात कैसी रही होगी? कौन कौन थे साथ में कसक के। लेकिन कुछ था जो कसक को अंदर से गुदगुदा रहा था। चाहता था बुदबुदाकर ही अंदर की हलचल को शांत कर ले। लेकिन कंट्रोल नहीं कर पा रहा था। साथ बैठी सवारी ने कहा भी

‘‘भाई साहब आपने कुछ कहा क्या ?’’

कसक ने गर्दन हिला दी,

‘‘नहीं तो।’’

जवाब देकर फिर पहाड़ों की आड़ी तिरछी सड़कों, पेड़ों को निहारने लगा। पूरी बातें उसकी जबान पर खेल सी रही थीं। लेकिन ख़ुद से ही भोर में उसने वायदा किया था कुछ भी नहीं। किसी से भी नहीं कहेगा। किसी को भी भनक तक नहीं लगने देगा। अपने इस वायदे पर कायम रहना था। सो कसक पूरी कोशिश कर रहा था। लेकिन फिर भी कुछ शब्द, कुछ भाव, कुछ घटनाएं उसकी आंखों से बाहर छलक सी रही थीं।

वैसे मैं आपको कसक की बात क्योंकर सुनाने लगा। क्यों मुझे आपको सुनाने में दिलचस्पी होने लगी। मैं सोच रहा हूं कि आपको कसम की पूरी कहानी क्यों कहूं। क्यों उसकी बातों में आपको शामिल करूं। फिर सोचता हूं बताने में हर्ज़ ही क्या है? कौन सा उसने दुनिया को किसी ख़तरे में डाला। कौन सा उसने किसी की चोरी की। चोरी, हत्या, जैसी कोई बात होती तो शायद आपको कसक के साथ क्यों चलने को कहता। कह इसलिए रहा हूं क्योंकि मालूम है कसक की रात कोई रोज़दिन घटने वाली व आने वाली नहीं थी। जैसे आपकी ज़िंदगी में वैसी रात नहीं आई होगी। आई भी होगी तो आप शायद उदार मन से साझा करने से बचें। आप बचें कि कहीं कोई आपकी हंसी तो नहीं उड़ा रहा है। कहीं कोई आपके चरित्र पर सवाल तो नहीं खड़ा कर रहा है।

कसक हां वही कसक जो रात भर तकरीबन जाग कर गुज़ारी है। गुज़ारी ऐसी कि कोई भी उस रात पर रस्क कर सकता है। कोई भी चाहेगा कि उसके जीवन में भी वैसी रात रोज़ न सही कभी तो आए।

हुआ तो कुछ ख़ास नहीं था। लेकिन आप उसे आम भी नहीं कह सकते। आम इस लिहाज़ से कि वह साधारण रात नहीं थी। एक विश्वास की रात थी। एक ऐसा गठबंधन था जिसमें कोई राजनीतिक हित नहीं था। किसी को उस रात के बिना पर किसी से कोई मांग नहीं थी। वह रात शायद कमाई गई थी। या कह लें उस रात तक आने में कितनी लंबी यात्रा की थकन रही होगी। थकन भी ऐसी जिसमें एक रोमांच सा हो। एक आशा हो। एक ऐसी उम्मींद जो पूरी हो जाए तो रात की नींद गायब। न पूरी हो तो रात आंखों में कट जाए। उस रात तीन विश्वास एक साथ थे। बल्कि आप कह सकते हैं तीन आपसी आस्था का संयोग था। उन तीनों की आस्थाएं, प्यार, विश्वास शायद पहली बार एक साथ एक ही क्षण साथ हुए थे। अलग से तीनों के बीच कुछ भावनाएं रही हों तो मैं कुछ नहीं कह सकता। लेकिन कसक के मन में तो लंबे समय से उन दो में से एक के साथ गहरा साबका था। गहरा इस रूप में कि उसके लिए कसक ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। यहां तक कि एक बार तो आत्महत्या तक करने की योजना बना ली थी। वैसे वह घटना ही ऐसी थी। जिसमें कसक और क मान लीजिए। क के साथ कसक का रिश्ता किसी मजमे से कम न था। एक तमाशा भी बना कसक और क के बीच के रिश्ते को लेकर। फिर भी कुछ तो वजहें थीं कसक और क के बीच जो रूकने का नाम नहीं ले रहा था। लाख समझाया क ने कि मान जाओ। मान क्यों नहीं जाते कि मैं तुम्हें नहीं चाहती। नहीं रखना तुमसे कोई भी किसी भी किस्म का वास्ता। मगर कसक था कि न तो मानने को तैयार था और न भूलने को।

भूलता भी कैसे कसक को क के साथ रहना, बातें करना और छेड़ना बेहद पसंद था। मगर यह जाने बगैर कि क को अच्छा लगता है कि नहीं वह अपने ही धुन में रहा करता। जिस दिन क अच्छे से बात कर लेती उस पूरे दिन कसक राजा हुआ करता। कोई कुछ बोल भी देता और डांट भी खाता तो किसी पर चिल्लाता नहीं था। वैसे उसे गुस्सा होने, रूठने में कोई ख़ास टाइम नहीं लगता था। लेकिन क ही थी जिससे कई बार उसका मूड तय हुआ करता था। कसक ने कई बार कहा भी कि वह उसे बेइंतेहां चाहा करता है। मगर कभी मुंश्कलें नहीं आने देगा। न तो कभी बोझ बनेगा। मगर क थी कि उसकी अपनी ही रवानगी थी। उसकी अपनी ही इंगेजमेंट थी सो कई बार चाह कर भी कसक को मन तो दे पाई लेकिन टाइम नहीं। टाइम भी कोई मसला नहीं था शायद क डरा करती थी। कैसे कोई उम्रदराज़ के मुहब्बत को संभालेगी।

संभालना तो क्या? कसम को देख कर लगता उम्र से तो बड़ा हो गया है लेकिन दिल और मन कहीं अभी भी छोटा या फिर बच्चे जैसा है। कभी तो रूठ जाता और कभी पल में ऐसे खुश होता कि बिना किसी ख़्याल के उसको खुश करने के लिए पार्टी दे दिया करता। जो भी हो कसक की ज़िंदगी में क की बड़ी अहम भूमिका थी। बस कसक को इस बात का बेहद दुख लंबे समय तक रहा कि उसके निजी ख़्यालों, चाहतों, अनुरागों को तमाशे में शामिल कर दिया गया। सभी को उनके बारे में मालूम था। बस बेख़बर तो कसक ही था। जो बाद में जानकर उसे हैरानी और कष्ट भी हुआ कि उसके क के साथ के रिश्ते की जानकारी सभी को है।

कसक ने पिछले सालों में जो भी क के साथ दिन गुज़ारे, घड़ियां बितातीं वो सुखद और दुखद भी रहे। कसक ने तो सबके सामने उससे हाथ जोड़कर माफी भी मांफी। मांफी मांगने में उसे कोई गुरेज़ नहीं था। बस उसे इस बात का दुख था कि जिसे वह बेइंतेहां मुहब्बत किया करता है। उसे उस मुहब्बत के लिए किसी के सामने मांफी मांगनी होगी। मांफी मांगनी ही होती तो उससे मांग लेता लेकिन तब तक तो तमाशा हो चुका था। सब उस तमाशे में हि हि, हो हो कर रहे थे। दूसरे के तमाशे में किसे मजा नहीं आता। बस कसक को इस बात की गहरी पीडा़ लंबे समय तक सताती रही कि उसे क से सरेआम मांफी मांगनी पड़ी। अगर क कहती तो एक बार। हालांकि क ने कई बार मना किया था। मना किया था। मना करके थक भी गई थी। मगर कसक था कि उसे इस कदर चाहता था कि उसे इस बात का एहसास ही खत्म सा हो चुका था कि किसी को इसके इस अनुराग से परेशानी भी हो सकती है। इसके प्यार की बेचैनी को कोई ग़लत भी मान सकता है? किसी को उससे कोई लगाव नहीं हो सकता इसका शायद उसे इल्म नहीं था।

जो भी हो कसक की चाह तब भी नहीं रूकी। बेइज्जत होने के बाद भी क से उसका राग बना ही रहा। मानता था कसक की कि किसी को तब तक चाहो, चाहते रहो जब तक चाहने की गुंजाइश बची रहे। और वह वही करता रहा। उसकी हर बात में मैं बहुत चाहता हूं जैसे वाक्य गोया ऐसे आते जैसे इन शब्दों के बगैर वाक्य पूरा ही नहीं हो सकता। बस एक ही रव में बोल जाता। हालांकि कई बार वह स्वीकारता भी कि ये तो कई बार पहले कह चुका हूं लेकिन एक बार और कहने की इजाजत दो। और वही अनुराग है, चाहता हूं, तुम अच्छी लगती हो जैसे एहसासात कई बार दोहरा चुका था। लेकिन कसम को बाद में महसूस हुआ कि कम से कम एक बार ही सही क से भी तो पूछे कि उसके मन में क्या है? क्या वह भी ऐसी कोई फिलिंग रखती है या ख़ा म ख़ा शहंशाह बन बैठे हैं। सो एक बार नहीं कई बार पूछा भी। मगर हर बार एक उत्तर और हुंकारी से ज़्यादा जवाब नहीं मिला। फिर क्या वजह थी कि कसक हमेशा हमेशा क को चाहने के दावे किया करता। शायद अव्वल दर्ज़े का बेवकूफ किस्म का इंसान था जिसे लड़की की ना ना और नहीं समझ में नहीं आ रही थी। शायद इस कदर प्यार किया करता था कि उसे आवार या सड़क छाप प्यार करने वाला कहलाए जाने के बावजूद भी कोई फर्क नहीं पड़ता। अगले दिन फिर वही सिलसिला। शायद कई बार कसक के सवालों, उत्सुकताओं को शांत करने या टालने के इरादे से कह देती हां। मगर उस हां में वह एहसास नहीं होता। होता भी कैसे मालूम नहीं उसके मन में क्या था और वह क चाहती क्या थी?

खिड़की से बाहर झांकते हुए कई बार कसक की आंखें गिली भी हुईं। कई बार शायद उसकी आंखों में पिछली रात और कई दिनों के जमे बर्फ को पिघलते हुए भी साथ की सवारी ने देखा। महसूसा मगर कुछ टोका नहीं। टोका नहीं, क्योंकि आज किसी को भी टोकना गुनाह है। गुनाह है यदि आप किसी के साथ संवेदना प्रकट करते हैं। अगर संवेदना है भी तो उसे अपने पास रखें। वरना ग़लत मानने और समझने वाले कम हैं क्या।

कसक पूरी रात क और अ के साथ रहा। यानी अब आप किसी भी किस्म के ग़लतफहमी में न रहें। कि कसक के साथ बाकी दो कौन थे। एकबार दुबार बता देता हूं फिर मुझे दोष मत देना कि मैंने बताय नहीं। कसक, क और अ तीन ही तो थे। कसक और क की कहानी तो मैंने बताने की कोशिश की ही। जहां तक अ का मसला है तो इसके बारे में कसक को कोई ख़ास पहले से मालूम न था। कि अ क के बेहद करीब है। और उसे क की हर मूवमूंट की ख़बर अ के पास है। अ को तो यहां तक मालूम है कि क अब छींकती है। कहां खखारती है और किससे मिला करती है। कसक से कब कब कहां कहां मिली है क। लेकिन एक कसक ही था जिसे मालूम था कि उसकी क के साथ की बातें सिर्फ क तक ही है। मगर उस बेवकूफ को कौन समझाए कि क और अ भी ख़ासा करीब दोस्त हैं।

कसक वास्तव में जिसकी उम्मीद तक नहीं किया था वह उसे उस रात मिली। क और अ दोनों ही साथ थीं। कसक एक लड़का। आप चौकिए मत लड़का व आदमी में कोई ख़ास फ़र्क तो होता नहीं ज़रा उम्र की सीढ़ियां ही तो हैं जो लड़के को आदमी और लड़की को औरत बना दिया करता है। पहले पहल तो क और कसक की वही तनातनी, खींच तान सी रही। लेकिन एक ऐसा भी पल आया जब तमाम सूनामी शांत हो गई। कैटरीना भी आ कर चली गई। आपसी जो भी रंज़िशें रही हों या पीछे कुछ बातें तो काफी समय से अटकी हुई थीं उनके बीच उसे बहने और पिघलने का मौका मिला उस रात। लेकिन अकेला नहीं था कसक। साथ क और अ भी थीं।

एक खुले गले से कबूल किया कसक को क ने। अ चस्मदीद सी बनी रही। पता नहीं क्या हुआ इस दौरान की अ को भी क और कसक ने आपस में खींच लिया। और अब इस कहानी को इस तरह से भी खोल सकते हैं कि कसक, क और अ साथ थे। तीनों ने ही अपनी ग़लतियों को स्वीकार किया। जो जाने अंजाने में तीनों से हुआ था। स्वीकार किया कि हम तीनों को साथ इस कदर रहना है कि कोई लाख कोशिश करें हमें टूटना नहीं है। हमें बिछुड़ना नहीं है। हमें हर संभव कोशिश करनी है कि कौई चौथा हमारे बीच दरार न पैदा करे। क ने कहा भी

‘‘ एक ब्वॉय फ्रैंड बनाने से अच्छा है एक सच्चा और विश्वसनीय दोस्त बनाना। जो कि अब हम हैं।’’

कसक ने क के सीने पर सिर रख कर उसके गालों को सहलाने लगा। सहलाते सहलाते एहसास हुआ कहीं क मुंह न तोड़ दे। क्योंकि वह वाक्य क की पसंदीदा पंच लाइन हुआ करती थी। सो एक बार पूछा भी जिसका जवाब आया ठीक है सिर रख सकते हो। छू सकते हो। वह रात पता नहीं क्यों इतनी सुखद थी। कितनी प्रिय थी। और कितनी विश्वासभरी भी थी कि तीन एक साथ एक ही बिस्तर पर साथ थे। मगर जैसा कुछ आपके दिमाग में चलने लगा होगा जैसे गिलहरी चलती है, जैसे कोई गिरगिट चल जाया करता है या फिर मकड़ी चल जाया करती है। वैसा कुछ उन तीनों के बीच नहीं चला।

अगर कुछ चला तो वह बस इतनी सी बात है कि बाद में कसक क और अ के बीच में आ गया। अपनी क दोस्त को जिस शिद्दत से चाहता था उसे कस के अपने सीने में दबा लिया। और बची अ तो उसे भी इस दोस्ती में शामिल कर लिया।


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