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समानता

समानता

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कहने के लिए तो बहुत सी चीजें हैं, उनमें से महत्वपूर्ण विषय है लड़का और लड़की की समानता पर। आज कल तो बातें होती हैं सिर्फ परंतु असल जिंदगी में ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है जहाँ बेटियों को खुशी-खुशी अपनाया जाए। अगर पहली बेटी हो तो दूसरा बेटा ही चाहिए ऐसी जिद्द घरवालों की हमेशा होती है। घरवालों की सोच ही ऐसी होती है कि क्या कर सकते हैं। बुजुर्ग लोग तो ज्यादातर यही बोलते हैं पर यहाँ पर दिनों दिन चीजें खराब होती जा रही हैं। आखिर कब तक ऐसा चलता रहेगा...

रेनू का जन्म एक सामान्य परिवार में हुआ था पर उसके जन्म से उसके दादा-दादी खुश नहीं थे। वो अपने माँ और बाउजी की लाडली थी पर दादी की बातें हमेशा परेशान करती रहती थी। दूसरी और तीसरी भी बेटी ही पैदा हुई। इधर घर वाले काफी परेशान हो चुके थे। रेनू की चाची जी को दो लड़के थे और इधर रेनू के पिता जी को तीन बेटियाँ थी। पूरे गाँव में काफी चर्चा शुरू थी इस विषय को लेकर पर उनके हाथ में कुछ था ही नहीं। उन दोनों ने बहुत समझाने की कोशिश की पर कोई बात मानने के लिए तैयार नहीं था। इधर रेनू की माँ की सेहत पर काफी फर्क पड़ रहा था उधर दादी पोते को लेकर जिद्द पर अड़ी थी।

कुछ महीने बाद रेनू की माँ पेट से थी। यह खबर सुनकर घर वाले काफी खुश थे पर उससे ज्यादा चिंतित कि इस बार क्या होगा। अगर बेटी हुई तो घर में प्रवेश नहीं मिलेगा ऐसा कह दिया। सब काफी ख्याल रख रहे थे पर क्या होगा इसकी अलग ही चिंता थी। दिन महीने बीत गए। वक्त आ गया अब जानने का, सब उत्सुक थे और यही हाल गाँव में भी था। समय बीत रहा था, आखिरकार वक्त आया पर इस बार भी बेटी ही हुई। गाँव और परिवार में जैसे सन्नाटा छा गया। दादी ने पोती की तरफ देखा भी नहीं। दादी ने घर में आने से मना कर दिया। दोनों घर गए तो दादी घर के बाहर चारपाई पर ही बैठी थी, उन दोनों को देखते ही दादी ने उन्हें और उनके बच्चों को घर से बाहर निकाल दिया। घरवालों ने बहुत समझाने की कोशिश की पर कुछ असर नहीं हुआ। वे दोनों चल पड़े।

रेनू के बाउजी ने अपने मित्र के सहारे किराए का मकान लिया और बदली शहर में करवा ली। सब वहीं के निवासी बन गए। गाँव से जैसे पूरा संबंध टूट गया हो। धीरे-धीरे रेनू के बाउजी ने जमीन ले ली और वहीं पर मकान बनाया। किसी भी त्यौहार पर वह गाँव नहीं जाते, जो कुछ भी करना है वह शहर में करते थे। लड़कियाँ बड़ी हो गईं, बड़े-बड़े पदों पर। लड़कियों की प्रगति अख़बारों में छपने लगी, कैसे उनकी बेटियों ने संघर्ष करके यह मुकाम हासिल किया। माँ बाउजी बहुत खुश थे, इसी खुशी को परिवार के साथ मनाया। जब दादी और बाकी के परिवार वालों ने देखा तो उन्हें यकीन ही नहीं हुआ। वे सब तुरंत शहर के लिए निकल गए। परंतु यहाँ पहुँचने पर जो प्यार दादी दे रही थी वह कुछ हजम नहीं हुआ और रेनू के माँ बाउजी़ ने सबसे बात करना पसंद नहीं किया। इतने सालों में घरवालों ने देखा भी नहीं जिंदा हैं या नहीं पर इनकी इतनी कामयाबी और पैसा देखकर अब याद आई। पर ये अब किसी को मंजूर नहीं था, जैसे मेहमान की खातिरदारी होती है ठीक वैसे ही घरवालों की। दादी से यह सब देखा न गया और सबके सामने माफी मांगी बच्चों की तरफ देखकर। वे कुछ नहीं बोले पर उनकी खामोशी ही बहुत कुछ कह रही थी। जैसे तैसे रेनू की माँ ने उन्हें समझाया और वे वापस गाँव चले गए। जानते थे कि अंत तक कोई असर नहीं पड़ेगा पर चले गए वापस गाँव।


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