शिक्षा पर विमर्श : एक व्यंग
शिक्षा पर विमर्श : एक व्यंग
शायद ही कभी शिक्षाविदों ने इतनी गहन विमर्श शिक्षा को लेकर किया होगा जितना आजकल डुंगरपुर में गेपसागर पर हो रहा है। उनके आलोचनाओं को सुनकर तो यही प्रतीत होता है ये समीपता से उन शिक्षा नीतियों के निर्माण में भागीदार रहे हैं । मेरे हिसाब से तो यह इतना ही सरल है कि जहां सैकड़ों लोग मौजूद हों ,और दो ही लोग एक अलग किस्म की बात कर रहे हों यानि समंदर में रंग डालकर उसको रंगीन करना। मैंने कहीं सुना है कि एक विचार दुनिया बदल सकता है , यहाँ तो एक,दो, तीन,चार.......................
फिर विचार आता है शुरुआत तो एक –दो ही करते हैं ,गांधी, लिंकन .....आदि ने भी तो कभी अकेले शुरुआत की होगी । वैसे भी हमारे देश की धरती को समय –समय पर महान आत्मा जनने की आदत है । इन लोगों के तर्क होते हैं कि अगर मैं फलां होता तो ये कर देता या ये करता , ये अपनी वास्तविकता से परे जाकर क्यूँ बातें करते हैं? इससे भी मजेदार बात तो ये कि दो और व्यक्ति इनकी इन सब बातों के गवाह बनते हैं ,कभी –कभी इक्का –दुक्का जुमला वो भी दे देते हैं-यानि कुल चार व्यक्ति शिक्षा के पूरे इतिहास से वर्तमान से होते हुए भविष्य तक का सफरनामा उड़ेल देते हैं, पर काफी दिनों से इसमें कुछ नयेपन की कमी सी है ,या ये लोग पुराने शिक्षाविदों की भांति एक ही बात को अलग-अलग तरीकों से कहने का अभ्यास कर रहें हैं।
शिक्षा की वजह से सब समस्या है या शिक्षा खुद एक समस्या है ? इनकी बातें इस प्रश्न को गेप सागर की लहरों पर छोड़ जाती है ,और ना तो सागर की लहरें सिमटेंगी और ना ही इस सवाल का जवाब मिलेगा । शुरुआत में तो इनकी मंशा हल खोजती हुई सी लगती है पर साथ ही इन्हें डर भी रहता है की चर्चा बंद हो जाएगी तो समय कैसे व्यतीत होगा ,ये बड़ी समझदारी से हल से किनारा करते हुए आगे बढ़ जाते हैं और अपने पसंदीदा कार्य में तल्लीन हो जाते हैं । ये लोग लोकतंत्र का भी पोस्ट्मर्टम कर देते हैं पर बड़ी रोचकता से समाज और सरकार को अलग करते हुए-समाज गलत फ़ैसलों से जूझता हुआ और सरकार के तो सिर्फ चेहरे बदलते हैं,करती तो हमेशा एक ही काम है –समाज की परेशानियों को सुनामी बनाना। ये सरकार के साथ बड़ी क्रूरता से पेश आते हैं , समाज के ताने –बाने जो सदियों से चले आ रहे हैं ,शायद उसी समाज से कुछ लोग सरकार में आते हैं पर ये सरकार के एक-एक बयान पर मुकदमा चलाकर सरकार को दोषी मानकर सजा सुना देते हैं।
इनके एक और बड़े दुश्मन से मिला देता हूँ उसे कोसे बिना तो इनकी चर्चा पूरी ही नहीं होती और वो है धर्म । आस्था और पुरानी रीतियों पर तो ये अक्सर जहर उगलते हुए देखे जा सकते हैं। धर्म तो थर्मोकोल की शीट जैसा है , सारे दाने रहते अलग –अलग हैं पर रहते तो एक ही धरातल पर हैं। उनकी विविधता तो ही थर्मोकोल का अस्तित्व है । ये अभिव्यक्ति की आजादी के प्रबल समर्थक हैं, रुशदी ,हुसैन आदि पर रोक इन्हे बहुत अखरती है पर कुछ लोगो के द्वारा दिये गए वक्तव्य पर तो ये उनके पीछे ही पड़ जाते हैं , जैसे किसी ने अगर कुछ कह भी दिया तो क्या वो उसी प्रकार का आचरण भी करेगा ,इन्हे ये जानना चाहिए कि हरिश्चंद्र या तो इतिहास में था या कहानियों का पात्र । इन्हे भी उदारता दिखाते हुए उन्हे क्षमा कर देना चाहिए ।
पर फिर चर्चाए कैसे होंगी ?शिक्षा व्यवस्था को लेकर गहन विमर्श जारी है –देखो मंथन तो हो रहा है निकलता क्या – क्या है ? या निकले हुए के साथ कितनी ईमानदारी की जाएगी?