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Pratiman Uniyal

Others

0.8  

Pratiman Uniyal

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मर्ज का इंतज़ार

मर्ज का इंतज़ार

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अरे! विंदु कितना बजा है, आदत के अनुसार दद्दा थोड़ी-थोड़ी देर में विंदु से पूछते। क्या करेंगे जानकर अभी शाम हो रही है, प्लीज लेटे रहो।

लेटे रहो, यह शब्द दद्दा पिछले एक साल से सुन रहे है। आखिर कोई इस 20x15 के अस्पताल के कमरे के 8x6 के पलंग पर कोई कब तक लेटा रह सकता है। अस्पताल कितनी भी सुविधाओं से लेस क्यों न हो, कितना भी अच्छा इलाज क्यों न चल रहा हो, अस्पताल तो अस्पताल ही होता है। दिन में एक बार दद्दा विंदु से जरूर गिड़गिड़ाते कि अब तो घर ले चल मुझे। पर घर जाने के लायक ही होते तो यहां क्यों होते। कार्किनोमा, मेलिगनेंसी, कैंसर यह शब्द हथौड़े की तरह पड़ते हैं जब भी कोई डॉक्टर या कोई आगंतुक कहता।

आज भी याद है, क्या सुबह थी तारीख 2 अक्टूबर, याद इसलिए भी है क्योंकि महात्मा गांधी जो कि दद्दा के पूज्य है उनकी जयंती। सुबह से ही नहा धोकर चहक रहे थे कि अचानक चक्कर आया, कुछ धुंधलके की शिकायत की, फिर उल्टी सी लगी जिसमें हल्का खून सा आया। फौरन अंजन, उनका बेटा उनको पास के अस्पताल में ले आया। टेस्ट पर टेस्ट, पता लगा कि फेफड़ों का कैंसर है, एडवांस स्टेज, एडमिट होना पड़ेगा।

वो तब का दिन और अब का दिन, एक ही कमरा एक ही दीवारें अस्पताल की। हां कुछ बदलता तो पड़ोस के पलंग का मरीज। जनरल वार्ड असहनीय था, सिंगल रूम बहुत महंगा था तो फिर डबल शेयरिंग रूम लिया।

वैसे तो हर मरीज अपने में खुद एक कहानी होता है और फिर पड़े-पड़े दद्दा करते भी क्या। जो भी नया मरीज होता उससे और उसके तीमारदारों से बातचीत।

अभी पिछले हफ्ते डेंगू की एक मरीज आई थी राधा। उसके साथ उसकी भाभी नयनतारा जो कि बेलगाम बोलती। एक घंटे में ही बता दिया कि राधा को पिछले साल भी डेंगू हुआ था, उसका पति कहीं बाहर काम करता है, उसका बेटा एक बड़े नामचीन स्कूल में पढ़ता है। दद्दा अपने आदत से सलाह देने से बाज नहीं आते। अरे बेटा इसको पपीते के पत्तों का सत्त दो, बकरी का दूध पिलाओ, नारियल पानी पिलाओ देखना शाम तक ही प्लेटलेट बढ़ जायेंगे।

प्लेटलेट, अरे दद्दा कोई कम थोड़े ही है, गुरू है गुरू। ठीक है पढ़ाई उतनी जितना लिख-पढ़ सके, पर ज्ञान इतना कि जमाने को पीछे छोड़ दें। सिर्फ लिखने-पढ़ने से ही समझ आती या ज्ञान आता तो सारे के सारे एमए पास आज विलायती गाड़ियों में बँगले में रह रहे होते। कभी किसी ने अंबानी, टाटा, बिरला से पूछा कि भाई कितनी जमात पढ़े हो। उनको देखो और अपने को देखो। विंदु को इसी बात से गुस्सा आता। ठीक है कि इंजीनियर बनकर एमबीए भी कर लिया, पर दद्दा को यह थोड़े ही मालूम कि देश में मंदी आ रही है। बहुतों की नौकरी गई। उसकी भी चली गई। पर कोशिश तो कर रहा है। और दद्दा को देखो कह रहे है कि एक रेस्टोरेंट ही खोल देता तो करोड़पति हो जाता। रेस्टोरेंट से करोड़पति कैसे। दद्दा कहते मुझे क्या मालूम पर लवली भी तो हलवाई था, रसगुल्ले बेचता था पर आज एक बड़ा कालेज खोलकर डिग्री बेच रहा है। बता करोड़पति नहीं है क्या वो। कम अक्ल कम से कम एक चाय का ठेला ही खोल दे या पान की दुकान। अगर पूछो कि क्या वो लवली उनकी जान पहचान का है और उन्हीं के यहां वह रसगुल्ले खाने जाते तो फट दद्दा कहते हां, हां वो हल्दीराम, बीकानेरवाले, नथ्थू सब मेरे सगे वाले है। अरे मनहूस, उन लोगों ने भी एक दुकान से शुरूवात की थी और आज देख वो कहां और तू, तू तो कहीं नहीं है क्या होगा भी। नौकरी करना चाहता है, बस नौकर ही बने रहना। अपना काम अपना होता है। किसी की चाकरी तो नहीं करनी पड़ती। आज के लड़कों को कौन समझाए। अरे ये मुए कंपनी वाले काम निकल जाने पर मक्खी की तरह बाहर निकाल देते हैं। अरे अपना काम होगा तो कौन निकालेगा। अरे उस काने को देख, पाजामा संभालना नहीं आता था। पर आज टेलर मास्टर है। शहर में कमीज पतलून की अपनी दुकान है।

दद्दा सबके दद्दा है। पूरा इलाका उनको दद्दा के नाम से जानता है। पीढ़ियों की पीढ़ियां गुजर गई पर दद्दा वहीं के वहीं। 100 से एक साल कम। विंदु कहता है कि दद्दा अगले साल आपकी सेंचुरी बनाएंगे तो दद्दा तपाक से कहते अरे सेंचुरी तो कपिल देव ने मारी थी 1983 के वर्ल्ड कप में। क्रिकेट और पोलो के दिवाने। क्रिकेट के तो चलो सभी दिवाने है पर पोलो। अरे हुआ यह था कि उनका एक दोस्त लखनसिंह सेना में था। लखनसिंह लंबा चौड़ा 7 फुटा पोलो खेलने का शौकीन। जब भी उसका मैच होता वो दद्दा को लेकर जाता। खुले मैदान में चार चार घुड़सवारों की दो टीम। हॉकी जैसा डंडा उठाए बॉल को दूसरे छोर के गोल में डालना होता। दद्दा ने भी पोलो के कुछ शब्द जैसे चक्कर, हैंडीकैप, स्ट्राइक जैसे शब्द सीख लिए। लखनसिंह को गए भी 30-35 साल हो गए। पर दद्दा हर पोलो मैच टीवी पर ऐसे देखते जैसे हर घोड़े पर लखनसिंह ही बैठा हो। मोतिया भरी आंखों से तो हर घुड़सवार लखनसिंह ही दिखेगा।

उन... यह क्या कर रहे हो भाई जरा आराम से दद्दा की आवाज सुनकर विंदु की तन्मयता टूटी। डॉक्टर कोई इंजेक्शन लगा रहा था। हर रोज इंजेक्शन, ब्लड टेस्ट शुगर भी है, बीपी भी है, किडनी भी सही काम नहीं कर रही। दिल भी बढ़ा हुआ है। यह बात तो है कि दद्दा का दिल बहुत बड़ा है। पूरे मोहल्ले में बड़े दिलवाले दद्दा के नाम से प्रसिद्ध है। कोई भी समय हो रात या दिन काई भी जानने वाला आए पड़ोसी रिश्तेदार, बगैर खिलाए तो भेजना ही नहीं। अगर कोई परेशानी पैसों की या किसी चीज की तो फौरन मदद। पैसे तो दद्दा के पास हमेशा ही रहे हैं। आज के समय के हिसाब से भी अच्छी खासी पेंशन मिलती है उन्हें। पहले गाय भैंस बकरी पालते थे तो कई बार कोई जानने वाला आता कि उनके मवेशी मर गए, मदद चाहिए, तो दद्दा अपने ही मवेशियों में से एक उसको पकड़ देते। अब कौन समझाए कि भैंस लाख से कम नहीं और बकरी 20-25 हजार से कम नहीं आती। अब तो खैर गांव से शहर में है तो मवेशी कैसे होंगे। अभी है गांव में, पर दूसरों के भरोसे। दद्दा अभी भी सोचते कौन उनकी गौरा या काली को सान भूसी खिलाता होगा।

टिक-टिक-टिक रात का एक बज रहा है। अस्पताल के कमरे की चारदीवारी में क्या एक और क्या पांच, क्या सुबह क्या रात। दद्दा वक्त के हमेशा पाबंद रहे है। सुबह पांच बजे उठना, निवृत्त होकर दो घंटे पूजा करना। सात बजे नाश्ता जिसमें चार रोटी, लहसुन-प्याज की चटनी के साथ और गुड़, साथ में एक बड़ा गिलास मलाई से भरा फीका दूध। जब भी विंदु दद्दा के पास गांव जाता तो दद्दा उसे यही नाश्ता देते तो विंदु नाक भौंह सिकोड़कर बोलता की रोटी सूखी है, चटनी से बास आ रही है, दूध में मलाई है। धत्त तेरे की, कैसा बच्चा है रे! जो मलाई नहीं खा सकता। चटनी तो अभी पीसी है, हां रोटी कल रात की है पर बासी थोड़े ही है। अरे हम तो यही खा कर बड़े हुए। वो तो उम्र हो गई इसलिए दो गिलास दूध ही दिन में पचा पाते हैं नहीं तो पतीला कब साफ कर जाते पता ही नहीं चलता। कुंए से पानी खींचना और वहीं नहाना-धोना। विंदु हमेशा नाक सिकोड़ता, कहता पता नहीं बाथरूम में क्यों नहीं नहाते। वो तो जब तक बाथरूम में गर्म पानी और गोदरेज का साबुन ना मिले, नहा ही नहीं सकता। दद्दा को देखो दो बाल्टी पानी की उडेली कहा- हर-हर-गंगे और हो गया स्नान। अरे ऐसे कैसे कोई नहा सकता है। दद्दा के खेत के खेत हैं, सुबह एक चक्कर पूरा लगाते। चक्कर क्या लगाते कि साथ चलने वाले अच्छे-अच्छों की सांसें फूल जाती। विंदु उत्साह में तो आ जाता पर आधा किलोमीटर चलने के बाद ही वहीं बैठ जाता। तब दद्दा कहते वापस जा नालायक जो जरा से चल नहीं सकता वो परिवार को क्या चलाएगा।

आज दद्दा चलना तो दूर कमरे से बाहर ही नहीं जा सकते। अस्पताल का कमरा। सांस तो फूलने लगा था। खांसी भी कुछ समय से थी। पर दद्दा ने कभी ध्यान नहीं दिया। सुबह तुलसी का पत्ता मुंह में रखते, अदरक इलायची चबाते। हल्दी वाला दूध पीते और कहते देखो इससे खांसी भी दूर होगी और चुस्ती भी आएगी। खांसी क्या दूर होती। फेफड़े ही धोखा दे गए। दद्दा कहते कि तंबाकू या सुपारी खाना तो दिनचर्या का हिस्सा है। हुक्के की गुड़गुड़ से ही तो मन ताजा होता है। हो गया सब कुछ ताजा। सिर्फ यादें। हुक्का, तंबाकू, सुपारी तो पता नहीं कहा छुपा दी डॉक्टर के कहने पर।

दद्दा हैप्पी दीवाली, नर्स ने कमरे में घुसते ही कहा। दद्दा ने कहा दीवाली है आज। दीवाली, दद्दा के लिए खास त्यौहार था। उसकी शुरूवात तो नवरात्रों से हो जाती। पूरे घर में चूना मिट्टी पुतवाना। गाय भैंसों के लिए नई घंटियां लाना। छत से कुएं तक झालरें लगाना। दशहरे तक हर रात रामलीला देखने जाना। दशहरे के दिन मैदान में मेला लगता। दिन भर वहीं घूमना, धूल मिट्टी के गुबार के बीच हर दुकान में जाना और अगर खाने की दुकान हो तो कुछ न कुछ खाना। नहीं तो दुकानदार यह नहीं कहेगा कि लो दद्दा आए हमारे यहां और कुछ नहीं खाया। समोसे, ब्रेड पकोड़े, जलेबी, लड्डू, इमरती, बालूशाही, चीनी की बर्फी, न जाने क्या क्या। हां जो नापसंद था वो थी नौटंकी। अरे वो भी कोई देखने की चीज है। पैसे भी दो और नचनियों को देखकर वापस आ जाओ अरे इतने में तो 1 किलो जलेबी और 1 किलो रसगुल्ले आ जागें। मीठा तो दद्दा की रग-रग में बसा था। तभी तो उन्हें शुगर भी हो गया। अभी पिछले महीने ही उनका शुगर लेवल 200 चल रहा था। अस्पताल में रहते हुए अगर 200 तो गांव में कितना रहता होगा। तभी पिछले दो एक सालों से बार बार दिल घबराना और चक्कर बता रहे थे। पर गांव के झोला झाप डॉक्टर बस यह कह देते कि दद्दा घबराओ नहीं गैस हो गई है, लो यह चूरन एक हफ्ता खा लेना आराम आ जाएगा। अस्पताल के डाक्टर कह रहे थे कि अगर दद्दा को थोड़ा पहले दिखा देते तो मामला इतना नहीं बढ़ता।

सुबह सात बजे से ही नर्सों का आना जाना शुरू। कभी दद्दा का ब्लड प्रेशर, ब्लड टेस्ट, दवा। फिर सफाई वाले, झाडू पोछा। फिर दद्दा का स्पंज, हफ्ते में एक बार दाढ़ी बनाना। फिर जूस, नाश्ता। ढेर सारी दवा। फिर दुबारा सन्नाटा दोपहर तक। फौज की फौज आनी शुरू। पहले ट्रेनी डाक्टर, बताया जाता कि कैंसर पेशेंट की दिनों-दिन हालत कैसी होती है। मानो दद्दा खुद एक डाक्टरी किताब बन गए हों। कभी-कभी तो गुस्से में कह देते कि सालों कभी अपने बाप-दादा पर यह जुल्म करोगे। फिर जूनियर डॉक्टरों का जमावड़ा मानों दद्दा चिड़ियाघर के शेर हों और सब देखने चले आ रहे हैं। आखिर में सीनियर डॉक्टर रे जिनके वह मरीज हैं। स्टेथेस्कोप से दिल सुनते और कहते अरे मिस्टर चौहान अब तो आप बहुत ठीक हो रहे हैं। रोज की यही कहानी। साल के 365 दिन, अब तो नर्सों और हेल्परों की शक्लें तक याद हो गई। रोजी, एडी की सुबह आठ से रात आठ ड्यूटी, लक्ष्मी, क्यूटी की रात आठ से सुबह आठ तक ड्यूटी। हर पंद्रह दिन में क्रम बदलता है, सुबह वाले रात को रात वाले सुबह। बस बदलता नहीं है तो अस्पताल का कमरा, कमरे में दो बेड और एक बेड पर दद्दा।

कल तो दद्दा ने ऐसा काम कर दिया कि डॉक्टरों के भी पसीने छूट गए। सुबह एक मरीज आया। उसका टखना बिल्कुल मुड़ा हुआ था। दद्दा ने पूछा तो बताया कि बस से उतर रहा था। पर उतरते हुए एक स्कूटर वाला उसी साइड से आ गया और वह धड़ाम से स्कूटर के ऊपर गिर गए। स्कूटर वाला तो बच गया पर उसका पैर स्कूटर के नीचे आ गया। अस्पताल में अभी एक्स-रे हुआ है, फ्रैक्चर है, रॉड पड़ेगी। दद्दा ने कहा- अरे भाड़ में गए डॉक्टर। अरे! स्कूटर के नीचे आने से भी टांग टूटती है। मेरी टांग में तो बैल चढ़ गया था। बता कि स्कूटर भारी या बैल। जब मेरी हड्डी उससे नहीं टूटी तो तेरी हड्डी अदने से स्कूटर से कैसे टूट सकती है। दिखा अपना पैर। बगैर उसको कोई मौका दिए, लिया पैर हाथों में और मुड़े टखने को धाड़ से सीधा कर दिया। कड़ाक की आवाज और वह मरीज जो जोर से चीखा, सारे डॉक्टर भागे-भागे आए। मरीज पसीने-पसीने और बेहोश। स्ट्रेचर में फौरन ले गए। पता लगा कि जो टखना उन्होंने सीधा किया वह दूसरा पैर था। अब दोनों पैरो में फ्रेक्चर है, दोनों में रॉड पड़ेगी। उस मरीज ने कह दिया कि जान ले लो पर दद्दा के पास मत ले जाना।

आज दद्दा की कीमोथेरेपी है। सुबह से ही दद्दा परेशान हैं। हर कीमो के बाद उन्हें थकावट और उल्टी आती है। बाल भी सारे झड़ गए। दर्द भी बहुत होता है जब कीमो की दवा अंदर जाती है। कीमो खत्म होते ही डॉक्टर खुराना बोलते कि बहुत अच्छा रिस्पांस है, हो सकता है कि अगले हफ्ते आपकी छुट्टी कर दे। छुट्टी, यह तो दद्दा पिछले एक साल से सुन रहे हैं। उन्हें भी पता है छुट्टी कब मिलेगी।

पर वह इंतजार कर रहे हैं, अपने घर जाने का इंतजार, अपने गांव वापस जाकर दीवाली मनाने का इंतजार। रोटी और गुड के साथ मलाई वाला दूध पीने का इंतजार और अपने विंदु की दुकान खुलने का इंतजार।

उन्हें एक और चीज का इंतजार है-

अपने मर्ज का इंतजार, जिसका इलाज अभी चल रहा है। उन्हें विश्वास है कि कैंसर जैसी बीमारी कुछ होती ही नहीं है। टी.बी होता है, चेचक होता है, माता होती है, हैजा होता है। कैंसर कुछ नहीं होता, सब शहरी छलावा है। दद्दा आज भी अपने मर्ज का इंतज़ार कर रहे हैं।

 


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