"मृत्यु का शव "
"मृत्यु का शव "
घर के अंदर औरतों का जमघट लगा हुआ था। बाहर बेशुमार आदमियों की भीड़ लगी हुई थी।
आखिर क्यों न लगे भीड़, तीन लड़कों, तीन लड़कियों के 75 वर्षीय पिता सुशांत सक्सेना का निधन हो गया था।
तीन दिन पहले तक तो बिलकुल स्वस्थ थे। अचानक छाती में दर्द उठा और तीन दिन के अचेतावस्था में अस्पताल में ही देहांत हो गया।
अपने पुशतैनी घर में वह अपने पिता के संग रहते थे। और उसी घर में उनके साथ उनका ज्येष्ठ पुत्र रहता था। अभाव का कहीं नाम नहीं था।
बड़ी सरकारी नौकरी के रिटायर्ड पेंशन याफ्ता थे। सारी जिम्मेदारी बहुत पहले ही निपटा चुके थे।
सबसे प्रसन्नता की बात तो यह थी कि शेष पांचों बच्चे यहीं इसी शहर में सैटिल्ड थे। तीनों बेटियों, दोनों लड़कों का बसा बसाया घर इसी शहर में था।
घर से बाहर सड़क तक नाते-रिश्तेदारों, सुशांत बाबू के परीचितों , बच्चों के परिचितों से भरा जा रहा था।
हमारे यहाँ दस्तूर जो है कि जिंदा रहते पूछो या नहीं पूछो, पर मुर्दों की शवयात्रा में सम्मिलित होना पुण्य का काम है।
दूसरे यह बात भी नजर में रहती है कि कौन नहीं आया था हमारे दुख में ?
बाहर एक कुर्सी पर बच्चों ने अपने दादा को बिठा रखा था।
कोई परीचित महिला जब सुशांत बाबू की पत्नी से मिलकर उन्हें ढ़ाढस बंधाने अंदर जाती तो एक समवेत शब्द गुंजता रूदन का, और खत्म होने पाता तब तक
कोई और परीचित महिला ढ़ाढस बँधाने पहुँच जाती..
92 साल के दादाजी अब जिस उम्र में थे, वहां मौत भी उत्सव बन जाती है।
रिटायर्ड सेशन कोर्ट के जज थे। जीने की जरूरत से ज्यादा की पेंशन आती थी।
पैंतीस साल की उम्र में ही पत्नी दो बच्चों को छोड़कर परलोक सिधार गईं थीं।
बच्चों का इहलोक न बिगड़ने पाए, अतः दूसरा ब्याह नहीं किया। बच्चों ने भी इस त्याग का मान रखा और आज तक तकलीफ न होने दी।
सिवाय एकाकीपन के कोई तकलीफ नहीं थी। सारा दिन धोती-कुर्ता पहने, गाँधी टोपी लगाए इधर-उधर घूमते ही रहते थे। शायद यही कारण था कि आज-तक किसी सहारे के आश्रित न थे सिवाय छड़ी के।
और यह शायद सुबह से अब तक सौं वीं बार था , जब किसी ने उनसे कहा था कि.....
अरे दादाजी, अब तो आपके चला-चली के दिन थे। परंतु ईश्वर की कारसाजी को देखो, पिछले साल बेटी
को जाते देखे, और अब बेटे को।
अब असह्य हो गया दादाजी को, सिर उठाकर तनिक रोष से बोल ही उठे, यह तुम कह रहे हो विद्या सागर,जो मेरे जीवन से तबसे परीचित हो, जब दस साल के रहे होगे। मृत्यु तो मेरी पैंतीस साल में ही हो चुकी थी जबसे सुशांत और प्रमिला की माँ हमें छोड़ कर मर गई थी।
यह तो मृत्यु का शव है जिसे मैं आज तक ढ़ो रहा हूँ।
हो सकता है कि मैं आज का भीष्म पितामह होऊँ, पर इच्छा- मृत्यु का वरदान मेरे हाथ में नहीं हैं,
बताओ ?? क्या करूँ .....
दादाजी के दिल का गुबार आँसुओं में बह रहा था.... !!
पर बाहर एक सन्नाटा ठिठक गया था....!!