आ अब लौट चले
आ अब लौट चले
रेलवे स्टेशन भीड़ से खचाखच भरा था विभोर सोच रहा था की लगता है सभी को आज ही जाना है, पता नहीं, मगर मुझे तो हर हाल में आज ही अपने घर कि ओर रवाना होना है ।चलचित्र की भांति अतीत उसकी आँखों में घूम गया ।
"अरे विभोर क्या करेगा दूर शहर जा कर बेटा जैसा भी है अपना शहर अच्छा है कम ही सही साथ तो रहेंगे" विभोर को लगा माँ आज भी उसे ये ही कह रही है ।
उसने अपनी तन्द्रा को झटका दिया मगर स्मृति पटल आज उसकी गाड़ी से भी तेज था ,लगा बाबू जी आँगन में बैठ कह रहे हैं "विभोर की माँ जब बाप का जूता लड़के के पैर में आ जाये तो उसे नसीहत न दी जाती है, लाट साहब हो गए हैं, चार अक्षर पढ़ कर अपने को बड़ा तुर्रम ख़ाँ समझने लगे हैं । बाहर निकलेंगे तो नूं ,तेल ,लकड़ी का भाव जानेंगे जरा जाने दे, घूम फिर कर दो चार महीने में ही लौट आएगा, जी हलकान न कर ।"
गाड़ी की तेज सीटी ने उसकी तन्द्रा भंग की जल्दी से अपना बैग कमर पर लगा हाथ में अटैची संभाले जो डिब्बा सामने आया चढ़ गया उसी में ।अंदर ही अंदर डिब्बों को नजरो से तौलता पहुंच गया अपनी सीट पर पसीने से तर बतर पंखे को देखा लगा बस रस्म अदाएगी कर रहा हैं । पानी की बोतल निकाल गला तर किया विभोर ने, और लेट गया अपनी सीट पर । हमेशा ऊपर की सीट लेने का प्रयोजन भी ये ही होता था उसका कि कोई परेशान नहीं करता हैं , अभी थोड़ी देर ही हुई थी कि झपकी लग गई सपने में भी माँ पुकारती नजर आई कि चौंक कर उठ गया ।
याद आ रहा था बाबू जी का एक एक शब्द "किसी की चाकरी से अच्छा अपना काम है जमी हुई दुकान छोड़ कर धक्के खायेगा पता नहीं क्या चल रहा है इसके मन में " कहते हुए उसकी ओर देखा था आते हुए ।
"बाबू जी मैं अपने पैरों पर खड़ा होना चाहता हूं देखना चाहता हूं कि मुझमें कितना सामर्थ्य है और ये दुकानदारी इतना पढ़ने के बाद कौन करता हैं" कहते हुए निकल आया था अपने सपनो के संग विभोर ।
आज परिस्थियों ने क्या क्या नहीं दिखाया दूर के ढोल जो सुहावने लगते थे वो जूते चटका चटका कर कान फाडू लग रहे थे । सच में मोह भंग हो गया था उसका, इतनी मेहनत करने के बाद भी कभी साल भर में इतना नहीं बचा पाया कि सम्मान जनक रूप में पिताजी ,माँ को भेज सकूँ , और आज तो अहम् टकराव के कारण बेवजह कार्यालय में सबके सामने उसे प्रताड़ित किया तो आँसू निकल आये उसके। वो तुरंत ही कमरे पर जा समान समेट तत्काल में टिकट ले लौट चला अपनो के पास। एक ठंडी सी हवा ने ऊर्जा भर दी विभोर में उसने लंबी गहरी सांस ली और फिर माँ के आँचल की छाँव व बाबू जी के अनुभव में गोता लगाने लगा, ठीक कहते हैं बाबू जी इतनी मेहनत मैंने अपने काम में की होती तो आज न जाने इन दो सालों में कितना बचा लेता ।
खैर शायद इसे ही कहते हैं जब जागो तभी सवेरा ।