उपहार
उपहार
"ये आप क्या कर रहें है जी ? ये फूल, ये उपहार किसके लिए ?"
"मेरी जान ! कोई तो होगा ही न जिसे उपहार दिया जाएगा !"
फूलों को करीने से सजा कर ,उपहार के बॉक्स के कार्ड पर अपना नाम लिखते हुए वेद ने कहा।
"न बताओ मुझे क्या ! करो जो करना है। यूँ भी अब किसी को मेरी ज़रूरत क्या है कि जो मुझसे कुछ पूछा या बताया जाए।" मालती ने बुझे मन से कहा और अपने कमरे में जाकर किसी पत्रिका के पन्ने पलटने लगी। पलकें पिछले कई दिनों से किसी न किसी बहाने से भीग ही जाती थीं जिसे आज भी छुपाने का प्रयास कर रही थी कि अचानक हॉल में से आ रही आवाज़ से चौंक गई।
"ये वेद भी न ..!"
मन में बुदबुदाते हुए हॉल में आईं तो हॉल में मद्धम रौशनी में उसकी पसन्द के गीत चल रहे थे।
"ये आप क्या कर रहें हैं..ऐसे माहौल में भी आपको गीत सूझ रहे हैं। हद्द है।"
वेद को साथ में गुनगुनाते देख मालती ने कहा।
"क्यूँ ..माहौल को क्या हुआ है जान ?
बेटे बहू ने अपनी मजबूरी दिखा कर कुछ दिन आने को रोक दिया तो दुनिया बदल गई क्या हमारी ? देखो जान ! रिश्तों में मोह तो ठीक है लेकिन उम्मीदें ही हमेशा तोड़ देती हैं।"
"बस आपका तो भाषण शुरू हो गया ! जानते हो, कितने चाव से सब तैयारियाँ कीं थीं मैंने। "
मालती के भीगे स्वर में भी शिकायत का पुट था।
"तो तुम्हारी छोटी बहन भी तो तुम्हें कब से बुला रही है अपने पास ! चलो इस बार का वैलेंटाइन डे वहीं मनाते हैं हम ।"
स्नेह से पत्नी को उपहार थमा बाहों में भर कर वेद ने कहा।
" मैं अपने बच्चों के पास न जाकर बहन के पास चली जाऊँ ,ये कैसे संभव है ?"
"सम्भव तो है यदि तुम अपनेपन और बँधन के बीच के फ़र्क को समझ सको तो। बाकी तुम्हारी मर्ज़ी।" खीजकर वेद हॉल में ही सोफे पर जाकर बैठ गए।
मालती कुछ पल ख़ामोश सी पति को देखती रही ,फिर उनका दिया उपहार खोलने लगी जिस में एक सुंदर पर्स था।
"पत्नी को खाली पर्स नहीं देते । इसे नोटों से भरिये और चलिये मेरे साथ !"
मालती ने अब प्यार से वेद को मनाने की कोशिश की।
"अरे ! पर कहाँ ...?"
"बाज़ार और कहाँ..! अब विदेश में भी साड़ी सूट पहनूँगी क्या ?"
मुस्कुराते ,लजाते हुए मालती ने कहा।