सपने खुली पलकों के
सपने खुली पलकों के
सब ही तो सपने देखते हैं। कोई रात को सोते हुए तो कोई दिन में जागते हुए। कोई मीठे तो कोई डरावने। किसी के सपने सच हो जाते हैं और किसी के बस सपने ही रह जाते हैं। यूँ तो सब के अपने अलग अलग सपने होते हैं पर कुछ ऐसे सपने भी होते हैं जो हर कोई देखता है। ऐसा ही एक सपना हर लड़के और हर लड़की के मन में होता ही होता है। यही की कोई हो जो उसे टूट कर प्यार करे। जो उसे सबसे सुंदर और प्यारा माने। ये सपना पूरा होता है या नहीं ये सिर्फ और सिर्फ वक्त ही बता पाता है।
ऐसा ही एक सपना विभा की आँखों में भी बसेरा कर रहा था।
विभा बहुत छोटी थी जब उसकी बुआ ने उसकी माँ को चेताया था, "अरे इसे रोज हल्दी का लेप लगाया कर। कौन बनाएगा इतनी काली लड़की को अपने घर की बहू ! संदूक भर भर के भी दहेज़ दोगी तो भी कोई हाथ पकड़ने वाला न मिलेगा।"
उनके उन चंद शब्दों की कड़वाहट से विभा का चेहरा पहले से भी ज्यादा मुरझा गया था।
जब पढ़ने के लिए स्कूल गयी तो भी साथ के बच्चों ने खूब चिढ़ाया, "काली कलूटी बैगन लूटी।" वैसे तो बच्चे सब को ही चिढ़ाते हैं किसी को मोटी तो किसी को सुकड़ी। किसी को बंदर तो किसी को लंगूर। हर इंसान को बचपन में कभी न कभी किसी न किसी ने चिढ़ाया ही होता है पर विभा को शायद कुछ ज्यादा ही चिढ़ाया गया।
नतीजा ये निकला कि खूब रो धो और चिढ़-चिढ़ कर वो झल्ली सी ही हो गयी। अब न उसे बाल सँवारने का मन होता था न नए नए कपड़े पहनने का शौक। रूखे सूखे बिखरे बाल और लापरवाही से चुने कपड़े पहन कर रहना ही उसकी आदत बन गया।
सबसे बुरा हुआ जब कॉलेज के फर्स्ट ईयर में इक लड़के ने न केवल उसे छेड़ा बल्कि शिकायत होने पर बेशर्मी से टीचर को दांत दिखाकर बोला था, "क्या मैडम आप कैसे मान रही हो इसकी बात, इस उलटे तवे को कौन छेड़ेगा !"
ये बात काफी थी उसे किसी भी साज-श्रृंगार से हमेशा हमेशा के लिए दूर रखने लिए।
यूँ तो उसे अपने रंग को लेकर ताने सुनने की आदत सी हो गयी थी फिर भी उस दिन तीर गहरा लगा था उसके दिल में; जब पड़ोस की ऑन्टी ने कहा था, "देख री, तुझे लड़के वाले देखने आए तो अपनी बहन को बाथरूम में बंद कर देना। वर्ना उस के सामने कोई पसंद नहीं करने वाला तुझे !"
इन सब बातों का ही असर था कि माँ -बाप ने जहाँ रिश्ता तय किया उसने बिना कुछ देखे सोचे वहीं विवाह कर लिया।
पति ने कभी कुछ नहीं कहा उसके रंग रूप के लिए। न अच्छा, न बुरा। बस दोनों ने गृहस्थी का धर्म निभाया।
अब तक विभा जान चुकी थी की उसके सपने कभी पूरे नहीं हो सकते।
पर फिर भी चाहती थी कि कोई उसे भी प्यार करे ! ढेरों प्यार !
टूटकर ! बेइंतहा !
कोई हो जिसे वो ही दुनिया में सबसे सुंदर लगे।
जिसकी आँखों में बस वो बसी हो !
कहते हैं न भगवान के घर देर है अंधेर नहीं।
आखिर विभा के सपने पूरे हो गए। मिल गए उसे बेइंतहा प्यार करने वाले।
वो भी बस एक नहीं ; पूरे दो !
उसे दिलों जान से प्यार करने वाले,
दो प्यारे प्यारे जुड़वां बच्चे।
जिन्हे दुनिया में सबसे सुंदर अपनी माँ ही लगती है।
उनके प्यार और मनुहार में अब विभा भी सजने सँवरने लगी है। बच्चे भी ख़ुश होते हैं उसकी चूड़ियों से खेल कर। उसके लिए बिंदियां छांट कर। उसके पल्लू में लुक छिप कर।
अब तो जब कोई पुराना जानने वाला मिलता है तो बस एक ही बात उसके कान में पड़ती है, "अरे माँ बनकर कितना निखर गयी है, कितनी सुंदर लग रही है ! हम तो पहचान ही नहीं पाए !"
सच में सपने पूरे हो जाएँ तो रूप निखर ही जाता है और उस निखरे रूप पर जब विभा श्रृंगार कर लेती है तो हो जाता है सोने पर सुहागा।
इतने सालों बाद आजकल उसके पति भी उसे और उसके रूप को सराहने लगे हैं। विभा के सपनो को अब तो पंख लग चुके हैं। अब पुरानी बातें याद कर बस हँस पड़ती है। गीले शिकवे सब अपने बच्चों और पति के प्रेम और स्नेह की नदी में बह कर कहीं दूर जा चुके हैं, बहुत दूर, कभी वापस न लौटने के लिए।