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चर्चा : मास्टर और मार्गारीटा - 6

चर्चा : मास्टर और मार्गारीटा - 6

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अध्याय – 6

उन्माद, यही बताया गया


जब मॉस्को के बाहर, नदी के किनारे स्थित हाल ही में बनाए गए प्रख्यात मानसिक रुग्णालय के अतिथि-कक्ष में सफ़ेद कोट पहने तीखी दाढ़ी वाला एक व्यक्ति दाख़िल हुआ, तब रात का डेढ़ बज रहा था. तीन स्वास्थ्य कर्मचारी सोफ़े पर बैठे हुए इवान निकोलायेविच पर से दृष्टि नहीं हटा रहे थे. वहीं, बहुत परेशान कवि र्‍यूखिन भी था. जिन तौलियों से इवान निकोलायेविच को बाँधा गया था, वे अब उसी सोफ़े पर एक ढेर में पड़े थे. इवान निकोलायेविच के हाथ और पैर अब मुक्त थे.


प्रोफेसर स्त्राविन्स्की का क्लिनिक शहर के बाहर नया नया खुला है. हम देखेंगे कि अधिकाधिक लोग वहाँ लाए जाएंगे.

इवान बेज़्दोम्नी धमकी देता है कि वह बलपूर्वक इस मानसिक रुग्णालय में लाए जाने का विरोध करेगा. वह इस बात पर ज़ोर देता है कि वह पूरी तरह सामान्य है.


“तुम सब मुझसे दूर हटो, जहन्नुम में जाओ, सचमुच जहन्नुम में जाओ!” इवान रूखेपन से चिल्लाया और उसने मुँह फेर लिया.

 “आप गुस्सा क्यों होते हैं? क्या मैंने आपसे कोई अप्रिय बात कह दी?”

 “मेरी उम्र तेईस वर्ष है,” तैश में आकर इवान बोला, “और मैं आप सबकी शिकायत करूँगा, और जूँ के अण्डे, तुम्हें तो मैं अच्छी तरह देख लूँगा!” उसने र्‍यूखिन से अलग से कहा.

 “आप किस बात की शिकायत करेंगे?”

 “यही कि आप सब, मुझको, एक स्वस्थ आदमी को ज़बर्दस्ती पागलखाने ले आए है!” इवान ने क्रोधित होकर कहा.


अब र्‍यूखिन ने इवान को ग़ौर से देखा. उसके हाथ-पैर ठण्डे पड़ गए : सचमुच, उसकी आँखों में पागलपन के कोई लक्षण नहीं थे. अब वे धुँधली के स्थान पर, जैसी कि ग्रिबोयेदव में थीं, पूर्ववत स्पष्ट पारदर्शी दिखाई देने लगी थी.

‘बाप रे!’ घबराहट से र्‍यूखिन ने सोचा, ‘हाँ, यह तो बिल्कुल सामान्य है? ओह, क्या गड़बड़ हो गई! हम उसे, सचमुच, यहाँ क्यों घसीट लाए हैं? सामान्य है, एकदम सामान्य, सिर्फ कुछ खरोंचें हैं...’

अब र्‍यूखिन  को एहसास होता है कि इवान के चेहरे पर तो किसी भी मानसिक बीमारी का कोई लक्षण ही नहीं है. वह घबरा जाता है...


इवान पर तो र्‍यूखिन का भण्डा फोड़ करने की धुन सवार हो गई:

....बेवकूफ़ों की भीड़ में एक सामान्य व्यक्ति तो मिला, उन बेवकूफ़ों में से पहला है मूढ़ और प्रतिभाशून्य साश्का!

 “यह साश्का प्रतिभाशून कौन है?” डॉक्टर ने जानना चाहा.

 “यही र्‍यूखिन!” इवान ने अपनी गन्दी उँगली से र्‍यूखिन की ओर इशारा करते हुए कहा.

वह अपमान से फट पड़ा.

....


“इसकी मानसिकता एकदम कुलाकों जैसी है,” इवान निकोलायेविच ने आगे कहा, जिसे र्‍यूखिन का भंडाफोड़ करने की धुन सवार थी, “ऐसा कुलाक, जिसने सर्वहारा वर्ग का नक़ाब पहन रखा है. इसके मरियल जिस्म को देखिए और उसे इसकी खनखनाती कविता से मिलाइए जो इसने पहली मई के उपलक्ष्य में लिखी थी : हा...हा...हा... ‘ऊँचे उठो!’ और ‘बिखर जाओ!’...और आप इसकी अंतरात्मा में झाँककर देखिए, वह क्या सोच रहा है... और आप चौंक पड़ेंगे!” इवान निकोलायेविच भयंकर हँसी हँसा.


र्‍यूखिन गहरी साँसें ले रहा था. उसका चेहरा लाल हो गया था. वह सिर्फ एक ही बात सोच रहा था – उसने आप ही नाग को अपने सीने पर बुला लिया है, कि उसने उस व्यक्ति के मामले में टाँग अड़ाई है जो उसका कट्टर शत्रु साबित हुआ है. रोना तो इस बात का था कि अब कुछ किया भी नहीं जा सकता था : पागल के ऊपर कौन गुस्सा कर सकता है?


र्‍यूखिन बहस नहीं करता, मगर जब वह इवान को अस्पताल में छोड़कर मॉस्को वापस लौट रहा था तो वह स्वीकार करता है कि वे शब्द जो इवान ने उस पर फेंके थे हालाँकि बड़े अपमानजनक थे, मगर थे एकदम सही. बुल्गाकोव ने जिस प्रकार र्‍यूखिन का चित्रण किया है, उससे पता चलता है कि उसका इशारा प्रसिद्ध क्रांतिकारी कवि व्लादीमिर मायाकोव्स्की की ओर है. निम्नलिखित वर्णन इस बात को स्पष्ट करने में सहायक है:


इसकी मरियल कदकाठी की ओर ध्यान दीजिए और उसकी तुलना इसकी गरजदार कविता से कीजिए, जो इसने पहली मई के मौके पर लिखी है... ’उठो!....और बिखर जाओ!’ और क्या यह अपने द्वारा लिखी गई कविता के एक भी शब्द पर विश्वास करता है? ज़रा उसके दिल में झाँक कर देखिए और आप चौंक जाएँगे यह देखकर कि वह क्या सोच रहा है!


मास्टर और मार्गारीटा, में हम अक्सर सभी घरों से, शहर के सभी कोनों से रेडिओ से आती हुई एक भारी-भरकम आवाज़ को सुनते हैं... यह मायाकोव्स्की की ही आवाज़ है. बुल्गाकोव और मायाकोव्स्की एक दूसरे को पसन्द नहीं करते थे और एक दूसरे की खिंचाई करने का कोई भी मौका नहीं छोड़ते थे. मायाकोव्स्की ने अपने नाटक ‘खटमल’ के एक दृश्य में बुल्गाकोव का मज़ाक उड़ाया है यह कहकर कि उसका नाम सिर्फ पुरातन शब्दों के शब्दकोष में ही पाया जाता है.


बुल्गाकोव ने भी मायाकोव्स्की को कभी छोड़ा नहीं...

मगर मॉस्को वापस लौटते समय र्‍यूखिन अपनी परिस्थिति का विश्लेषण करता है और उसे इस बात का एहसास हो जाता है कि उसका जीवन व्यर्थ हो चुका है और अब उसे सुधारने के लिए कुछ भी नहीं किया जा सकता. “मैं 32 वर्ष का हूँ, और आगे क्या? शायद मैं हर साल कुछ कविताएँ लिखता रहूँ... फिर क्या? कब तक? बुढ़ापे तक? इन कविताओं से उसे मिला ही क्या है? प्रसिद्धी? ओह, कम से कम अपने आप को तो धोखा न दो.... प्रसिद्धी कभी उनके कदम नहीं चूमती जो वाहियात किस्म की, बेवकूफी भरी कविताएँ लिखते हैं. वे कविताएँ वाहियात क्यों हैं? जो कुछ भी मैं लिखता हूँ, उसके एक भी शब्द पर मैं विश्वास नहीं करता! ज़िन्दगी में अब कुछ भी सुधारना मुमकिन नहीं है...वह बरबाद हो गई है!”


फिर र्‍यूखिन को लेकर आ रहा ट्रक एक स्मारक के पास रुकता है... पाषाण का बना हुआ एक आदमी सिर झुकाए खड़ा है, “ये है वास्तविक, सम्पूर्ण सफलता का उदाहरण! जो कुछ भी उसने किया, चाहे जिस परिस्थिति में भी उसे धकेला गया, हर चीज़ ने उसे प्रसिद्धी ही प्रदान की! वर्ना कैसा सम्मोहन है इन शब्दों में, ‘तूफ़ानी धुँध...’? और उस श्वेत सैनिक ने उसे मार डाला और अमर बना दिया...यह ज़िक्र है पूश्किन के बारे में...


तो, बुल्गाकोव ने बीसवीं शताब्दी के दूसरे-तीसरे दशकों की साहित्यिक झलक दिखला दी है और उसकी तुलना उन्नीसवीं शताब्दी के साहित्य से करके यह दिखा दिया है कि वह कौन सी चीज़ है जो कविता को अमर बना देती है!


कृपया ध्यान दीजिए कि हमारे घटनाक्रम का पहला दिन यहाँ समाप्त होता है. ये सप्ताह का कौन सा दिन है, यह अभी तक पता नहीं चल पाया है. घटनाक्रम पत्रियार्शी तालाब के किनारे बने पार्क में और उसके आसपास तथा ग्रिबोयेदोव भवन में घटित होता है फिर वह मॉस्को के सीमावर्ती भाग में बने स्त्राविन्स्की क्लिनिक में स्थानांतरित हो जाता है. इवान को ‘शिज़िफ्रेनिया’ का मरीज़ बता दिया जाता है... तो इस तरह रहस्यमय प्रोफेसर की दोनों भविष्यवाणियाँ सही साबित होती हैं.


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