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शर्तों पर बंधा प्यार......

शर्तों पर बंधा प्यार......

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"अच्छा आज शाम को मैं घर पर अकेली हूँ। शाम को घर पर ही आ जाना साथ में खाना खाएंगे।"
"नहीं मुश्किल है।"
"क्यों? मम्मी पापा आज सुबह से ही शादी में गए हैं। कल दोपहर को वापस आएंगे। आ जाना फिर कब ऐसा मौका मिलेगा।"
"नहीं"
"लेकिन क्यों? बड़ी मुश्किल से मौका मिला है। थोड़ी देर चैन से साथ रह पाएंगे।"
"नहीं"
"प्लीज़ कभी तो मन रख लिया करो। क्या वजह है नहीं आने की।"
"मन तो बहुत रखता हूँ पर नहीं। बस ऐसे ही।"
"प्लीज"
"नहीं"
एक और नही सुनने से पहले ही सुनने वाली ने झल्लाकर फोन का रिसीवर क्रेडिल पर पटक दिया।
"हूँ! नहीं, नही। जब देखो तब नहीं। जब खुद का मन होता है तब तो कुछ भी हो जाये जनाब को मिलना ही है। और जब मेरा मन करे तो नहीं। सौ बहाने उठ खड़े हो जाते हैं बीच में। एक मैं हूँ, जब भी माणिक का फोन आता है, मिलने को कहता है, चाहे कुछ भी हो जाये मैं मिलने जरूर जाती हूँ चाहे कितनी ही ऊँच-नीच झेलनी पड़े, बहाने बनाने पड़ें।" उसने एक गहरी साँस ली। आँखे भर आयीं, ऐसा लगा अब बरसी कि तब बरसीं।
"हाउ इन्सल्टिंग!" वह मन ही मन भुनभुनाई " माणिक को मेरी फीलिंग्स का जरा सा भी ध्यान नहीं है।"
आँसू आँखों से छलक पड़ने को हो रहे थे " नहीं मैं नहीं रोऊँगी।" और आँसू रोकने की कोशिश में उसने अपना निचला होंठ बड़े जोरों से दाँतो में भींच लिया।

"दीदी आज आपके लिए खाने में क्या बनाऊँ?"
दरवाजे पर आकर किशन ने पूछा तो वह चौंक पड़ी कि वह उससे क्यों पूछ रहा है। फिर अगले ही क्षण उसे ध्यान आया, आज मम्मी घर पर नहीं है, इसलिए उसकी मर्ज़ी पूछी जा रही है। उसका मन किया कि चिल्लाकर कह दे कि उसे खाना ही नहीं खाना है कुछ न बनाये। पर बेचारे किशन का क्या दोष।
"कोई भी दाल सब्जी बना दो।दही हो तो रायता बना देना।" ऐसी मानसिक हालत में भी वह इतने सयंत स्वर में नरमाई से कैसे बोल गयी उसे खुद पर आश्चर्य हुआ।
" जी दीदी।" किशन चला गया।
किशन के जाते ही उसका ध्यान फिर से माणिक पर चला गया। माणिक क्यों हमेशा ऐसा करता है उसके साथ। कभी तो उसके इतना आगे-पीछे घूमता है कि बस जैसे दुनिया में अन्विता के अलावा उसका कोई भी नहीं है। और कभी उसे ऐसे निगलेक्ट करता है कि जैसे उसे अन्विता से कोई लेना-देना ही नहीं है। उसके आज के व्यव्हार ने अन्विता को अंदर तक आहत कर दिया। उसके सर से पैर तक अपमान की एक जलन सी दौड़ गयी।पूरे बदन में गुस्से की वजह से एक झुरझुरी सी होने लगी। जबकि अन्विता का मन पूरे समय माणिक में लगा रहता है, माणिक जब भी बुलाये वह हमेशा उससे मिलने के लिए तैयार रहती है।
और आज भी जब उसने सुना कि मम्मी पापा शादी में जा रहें हैं पास के शहर और रात में घर नहीं आएंगे तो उसकी ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं रहा। माणिक के साथ कुछ पल चैन से, अधिकार से वह खुलकर जी पायेगी। माणिक को उसके मम्मी-पापा भी अच्छे से पहचानते हैं। पर उन्हें यही पता है कि वह उसके साथ ही रिसर्च कर रहा है और उनकी पहचान मात्र पढ़ने-लिखने तक ही सिमित है। वह उससे मिलने जाती है या दोनों के बीच 'कुछ' है कि खबर उन्हें नहीं है।
लेकिन माणिक ने उसकी सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। क्या-क्या रोमांटिक सपने देख डाले थे उसने, किशन और उसकी पत्नी को जल्दी घर भेज देगी और वह और माणिक, बस दोनों जने आराम से कैंडल लाईट डिनर करेंगे, लाईट म्यूज़िक पर थोड़ी देर डांस भी किया जा सकता था, वह और माणिक बस। सुबह से ही उसे, बल्कि कल रात से ही ये उम्मीद लगी थी।वह कल से ही ख़यालों में खोई हुई थी, माणिक के आने पर ऐसे दरवाजा खोलेगी, कैसे मुस्कुराएगी, क्या पहनेगी, फिर दोनों रोमांटिक बातें करेंगे, साथ में खाना खाएंगे, फिर........
और माणिक!
उसका मन हमेशा अन्विता में क्यों नहीं रहता? कैसे वह इतना तटस्थ भी रह लेता है कि काम के बीच या जब भी वह नहीं चाहे उसे अन्विता की याद नहीं आती। जब वह चाहे, उसे अन्विता की याद  तभी आती है बाकी समय वह कितनी आसानी से उसे भुलाये रहता है। कोई इतना प्रेक्टिकल कैसे हो सकता है। जबकि अन्विता को चौबीसों घण्टे माणिक का ही ध्यान रहता है। सोते-जागते, उठते-बैठते, पढ़ते-लिखते हर समय वह माणिक में ही खोई हुई रहती है। जब वह पढ़ते समय उसे भुलाना चाहती तब तो माणिक उसे और भी तेज़ी से याद आता।
तो माणिक ऐसा क्यों नहीं है, अन्विता जैसे।
उसे अन्विता के लिए उतनी तड़प, उतनी बेचैनी क्यों नही है जितनी अन्विता को उसके लिए है। उसे अन्विता की याद सिर्फ तभी क्यों आती है जब वह उसे याद करना चाहे। उसके मन को अन्विता की याद हर समय घेरे क्यों नही रहती जैसे अन्विता को माणिक की याद हर समय घेरे रहती है, वह चाहे या न चाहे।
हाँ सब एक जैसे ही होते हैं। चाहे माणिक हो चाहे तेज़।
और अन्विता की साँस क्षोभ और अपमानित सा होने के मिले-जुले भाव से घुटी-घुटी सी हो गयी।
हाथ पर गर्म सा कुछ लगा।
आँसू गिरा था। मन का क्षोभ न जाने कब पानी बनकर आँखों से बरसने लगा था।
उसने गालों पर ढुलक आयी आँसू की बून्द पोंछी। मन किया जोर-जोर से रो ले। गुस्से से मन में आग लगी हुई थी। रोने से शायद कुछ ठंडक पड़ जाये। और उसकी आँखे बेआवाज़ बरसने लगी।
"दीदी खाना टेबल पर लगा दिया है।" पीछे से किशन की आवाज आयी।
"हाँ चलो मैं आती हूँ" बिना पीछे देखे उसने जवाब दिया। किशन के जाने के बाद वह तेज़ी से उठकर बाथरूम में गयी और मुँह पर पानी के छींटे मारकर चेहरा ठीक किया।
अन्विता खाना खाने के लिए जब नीचे उतरी तब तक काफी संयत हो चुकी थी। गुस्से की तीव्रता को आँसुओं ने काफी हद तक ठंडा कर दिया था। लेकिन माणिक के व्यव्हार ने उसके मन में पीड़ा की एक लकीर खींच दी।
रात का खाना खाकर वह किताब लेकर थोड़ी देर ड्राइंग रूम में बैठी रही। किशन और उसकी पत्नी को उसने यहीं खाने को कह दिया था। सोचा मम्मी-पापा तो हूँ नहीं इसलिए दोनों यहीं सोयेंगे तो खाना भी यही खा ले। जब दोनों खाना खा चुके तो किशन की पत्नी ने रसोईघर साफ किया और अन्विता को एक गिलास दूध लाकर दिया। दूध का ग्लास लेकर अन्विता ऊपर अपने कमरे में आ गयी।
ऊपर आकर उसे फिर से माणिक की याद आ गयी।
"माणिक आया नहीं। लेकिन कम से कम फोन तो कर सकता था। उसे पता है मैं अकेली हूँ। किसी के फोन सुन लेने का भी डर नहीं। उसे फोन तो करना चाहिए था।" और उसकी आँख से एक आँसू टपक पड़ा।
कितनी बार माणिक अपने ऐसे व्यव्हार से उसे आहत कर चुका है। अक्सर वह खीज कर पूछ भी लेती -
"तुम्हे मुझसे प्यार है भी या नहीं?"
तब तो माणिक हमेशा ही कहता "है बहुत है। आय लव यू।"
तब फिर वह बार-बार ऐसा क्यों करता है।
कभी उसे लगता 'नहीं मैं ही गलत सोचती हूँ। माणिक को मुझसे प्यार तो है।'
और कभी वह सोचती 'नहीं माणिक मुझे बिलकुल भी नहीं चाहता।'
माणिक को लेकर बहुत समय वह ऐसी ही उहापोह की स्थिति में जी रही है।
स्टडी टेबल से उसने एक किताब उठा ली और गैलरी में आकर बैठ गयी। ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी। किताब खोलकर अन्विता ने एक पन्ने पर अपनी आँखें गढ़ा दीं और यूँ ही कुछ पढ़ने की कोशिश करने लगी लेकिन कुछ भी पल्ले नहीं पड़ रहा था। पल्ले पड़ भी कैसे सकता था, किताब खोलकर बैठना वो भी इस परिस्थिति में , अपने आपको भुलावा देने या यूँ ही अपने को बहलाने के सिवाय कुछ नहीं था। मन तो वहीं उलझा रहा, घूमता रहा माणिक के आसपास। और वह चाहकर भी भुला नहीं पायी न माणिक को, न ही तेज को।
देर तक अन्विता गुमसुम सी बैठी रही। ठंडी हवा के झौंके आकर उसे सहला जाते और बदले में वो उन्हें अपनी गर्म ऊँसासे थमा देती। जब रात काफी हो गयी तो वह उठ कर अपने कमरे में आ गयी। मन माणिक को फोन कर लेने के लिए तड़प रहा था पर जैसे तैसे उसने अपने पर नियंत्रण रखा। आखिर थक कर वह बिस्तर पर लेट गयी। सुबह यूनिवर्सिटी की लायब्रेरी भी जाना है। रिसर्च का काम जल्दी से पूरा करके आगे फिर कुछ किया जाये। रात भर वह बिस्तर पर करवटें बदलती पड़ी रही।
दूसरे दिन सुबह दस बजे तक तैयार होकर और नाश्ता करके अन्विता यूनिवर्सिटी की लायब्रेरी पहुँची। रिसर्च से सम्बंधित कुछ पुस्तकें छाँटनि हैं। सुबह तक वह काफी सम्भल चुकी थी। लेकिन मुँह पर उदासी पुती हुई थी। पुस्तकों के शेल्फ से पुस्तकें निकालते समय न चाहते हुए भी माणिक की याद बगल में आकर खड़ी हो गयी। जिस तरह से समुद्र की लहरों के आने पर मनुष्य का कोई बस नहीं होता वो प्रकृति के नियमों से बँधी हुई अपने आप ही एक के बाद एक आती रहती हैं, उसी तरह अन्विता के लिए माणिक की याद थी जो उसके बस में नहीं थी और पता नहीं कौनसी अदृश्य शक्ति के इशारे पर एक के बाद एक माणिक की यादें उस पर हावी रहतीं।
अपने काम की दो-तीन किताबें छाँट कर अन्विता ने वो किताबें लायब्रेरियन के पास जाकर अपने नाम से इश्यू करवाईं। उसे अपने गाइड के पास भी जाना था लेकिन आज उसका मन ही नहीं किया कहीं जाने का तो वह कैम्पस से बाहर निकल आयी।
गेट से बाहर निकलते ही दायीं ओर नज़र पड़ी, माणिक खड़ा था। अपनी काले रंग की बाइक पर काले पेंट पर मोटी लाइनिंग वाली आधी बाँहों की गहरी पीले और काले रंग की टी शर्ट पहने। गोरा-चिट्टा माणिक आँखों पर काला धूप का चश्मा लगाये अन्विता की ओर देखकर मुस्कुरा रहा था। माणिक पर नज़र पड़ते ही अन्विता को रात की बातें फिर से याद आ गयीं। कुछ गुस्से और कुछ आहत किये जाने के बाद हुई पीड़ा के भाव से अन्विता मुँह फुलाए, बिना माणिक की ओर देखे आगे बढ़ने लगी लेकिन माणिक ने अपनी बाइक कुछ ऐसी खड़ी कर रखी थी कि उसे माणिक के सामने रुकना ही पड़ा।
"रुकिए जनाब, जरा रुक भी जाइये। क्या बात है बड़े नाराज हैं?"
माणिक ने अपनी बाइक थोड़ी और आगे करके उसके ठीक सामने खड़ी कर दी।
अन्विता जमीन की ओर देखते हुए चुपचाप खड़ी रही।
"बहुत गुस्से में हो। भई बात तो कर लो।" माणिक अब भी उसी सहज भाव से मुस्कुरा रहा था।
अन्विता के तन-मन में फिर से आग लग गयी। एक तो कल रात में मेरा इतना ज्यादा मूड खराब कर दिया और अब कितनी आसानी से पूछ रहा है कि क्या बात है क्यों नाराज हो। ये आदमी लोग इतनी आसानी से सब कुछ ताक पर रखकर इतना सहज रह लेते हैं। माणिक के चेहरे पर कल के किये के लेशमात्र भी चिन्ह नहीं हैं, मानो कुछ भी नहीं हुआ।
"क्या हुआ कल मिलने नहीं आया इसलिए तुम्हारा मुँह फूला हुआ है न? लेकिन तुम सोचो मैं आ जाता, हम -तुम अकेले रहते, अगर किसी भी तरीके से तुम्हारे मम्मी-पापा को पता चल जाता तो वे क्या सोचते? कितना दुःख होता उन्हें, कितनी ठेस पहुँचती उनके विश्वास को।" माणिक अचानक गंभीर होते हुए बोला।
और उसी पल अन्विता को लगा सचमुच वह कल रात से बेवजह ही भुनभुना रही थी। माणिक ठीक ही तो कह रहा है। मैं ही गलत थी। कई बार हम परिस्थितियों या लोगों के बारे में सही ढंग से सोच ही नहीं पाते और अपने मन में दुःख या गुस्सा पाल कर बैठ जाते हैं जबकि वास्तव में वो उतने जटिल या बुरे नहीं होते हैं जितना हम उन्हें अपनी सोच में बना लेते हैं। अन्विता भी शर्मिंदा सी हो गयी। अबकी माणिक की ओर देखकर एक झेंप भरी मुस्कुराहट उसके चेहरे पर आ गयी।
" हाँ यह हुई न बात।" माणिक की नज़रों में ढेर सारा प्यार छलकने लगा।
अन्विता की रात की सारी पीड़ा, सारा गुस्सा छू हो गया। माणिक की प्यार भरी एक दृष्टि से अन्विता के मन का सारा क्रोध धुल गया। माणिक की आँखों में प्यार भी तो इतना छलकता है कि उससे नाराज रहा भी नहीं जा सकता। अन्विता पिघल गयी।
"अपनी गाड़ी से आयी हो क्या?" माणिक ने पूछा।
"नहीं आज मैं बस से ही आ गयी थी।"
"तो चलिए अब आपके लिए वाहन और वाहनचालक दोनों ही उपस्थित हैं।" कहकर माणिक ने बाईक में किक लगाई।
अन्विता माणिक के पीछे बैठ गयी। यह पल उसे बहुत सुखद लगते। माणिक की पीठ से सट कर बैठना और जब वह गाड़ी चलाते हुए उससे बातें करे तो बातें सुनने के बहाने आगे झुककर उसकी पीठ से और चिपक जाना। और उसकी बातें सुनते हुए अपनी आँखों में चाहे जितना लाड भर कर निःसंकोच होकर उसे देखते रहना या कभी हल्के से उसकी शर्ट या टी शर्ट को चूम लेना।
माणिक ने एक छोटे से रेस्तरां के आगे गाड़ी खड़ी की और दोनो अंदर जाकर बैठ गये। माणिक ने आर्डर देने के लिए वेटर को बुलाया और अन्विता से पूछा-
"क्या खाओगी? क्या मंगवाऊँ?"
"नही  मैं तो नाश्ता करके आयी हूँ। नाश्ता तो तुमने भी कर ही लिया होगा।"
"हाँ! तो दो कप चाय दे जाना" माणिक ने वेटर को विदा किया।
"तुम आज यूनिवर्सिटी किसी काम से आये थे।" अन्विता ने पानी पीते हुए पूछा।
"नहीं आज मुझे कुछ काम नहीं था। मैं तो सिर्फ तुमसे मिलने के लिए आया था।" माणिक ने एक सिगरेट निकाली।
"झूठे! जैसे कि तुम्हे पता ही था कि मैं आज यहां आऊँगी।" अन्विता ने बनावटी गुस्से से कहा।
" हाँ तो। पता तो था ही न। उस दिन तुमने नही कहा था कि शुक्रवार सुबह लायब्रेरी से बुक्स इश्यू करवाने आऊँगी। देखा तुम्हारी कही एक-एक बात पर भी कितना ध्यान रहता है मेरा, कितना याद रखता हूँ हर बात को। पता है आधे घण्टे से गेट पर ही खड़ा था।" माणिक ने बताया।
और जवाब में अन्विता की आँखों में माणिक के लिये ढेर सारा प्यार छलक आया।
"तो अंदर क्यों नहीं आ गए लायब्रेरी में?"
"मुझे पता था तुम बहुत नाराज़ होगी और कहीं तुम वहीँ मुझे पीटना शुरू कर देती तो?" माणिक ने सिगरेट सुलगाते हुए कहा।
"मैं तुम्हे पीटती हूँ क्या....." अन्विता तुनककर आगे कुछ कहने जा ही रही थी कि बेयरा चाय लेकर आ गया।
"लो पहले चाय पी लो।" माणिक हँसने लगा। हँसते हुए वह कितना भला लगता था।
चाय पीकर दोनों बाहर आ गए और घर की तरफ न जाकर एक पार्क में बैठ गए। इस समय पार्क में कोई भी नहीं होता है। बहुत हुआ तो पेड़ों को पानी देता हुआ एखाद माली दिख जाता है। माणिक ने अन्विता का हाथ अपनी चौड़ी मजबूत हथेली में थाम लिया।
"और बताओ रिसर्च का काम कैसा चल रहा है? पिछले हफ्ते जो किताब तुम ढूंढ रही थी वह मिल गयी क्या?" माणिक ने पूछा।
"हाँ आज जाकर मिली है। हफ़्तों से इस किताब के लिए परेशान थी। लोग किताबें इश्यू तो करा लेते हैं पर वापस नही करते।रिइश्यू कराकर अपने ही पास रखे रहतें हैं। जब मैने इस किताब के लिये एप्लिकेशन लगायी तब आज जाकर यह मुझे मिली।"
"अच्छा आज ही कैसे मिल गयी।?"
"आज वे महानुभाव इसे फिर से रीइश्यू करवाने के लिए आये थे, बस मेरी एप्लीकेशन लगी हुई थी तो किताब उन्हें न मिलकर मुझे मिल गयी।" अन्विता ने बताया।
"चलो अच्छा हुआ अब तुम्हारा अटका हुआ काम आगे बढ़ जायेगा।" माणिक ने उसके कंधे पर हाथ रखकर उसे थोडा पास खींच लिया।
अन्विता ने माणिक का दूसरा हाथ अपनी गोद में रख लिया और उसे सहलाने लगी। माणिक का कन्धे पर रखा हुआ हाथ उसके गाल सहलाने लगा। अचानक माणिक ने अन्विता का चेहरा अपनी ओर करके उसे चूमना चाहा।
"क्या कर रहे हो, कोई देख लेगा।" अन्विता ने उसे दूर किया।
"पर यहां है कौन देखने वाला।" माणिक ने आसपास देखते हुए कहा " क्या है एक किस ही तो कर रहा हूँ।"
"इतना ही था तो कल घर पर क्यों नहीं आ गए, वहाँ तो कोई देखने वाला, रोकने-टोकने वाला नहीं था आराम से ....." बात आधी छोड़कर अन्विता चुप हो गयी।
"तुम समझती नहीं। वहां कोई रोकने वाला नहीं था इसीलिए तो नहीं आया। यहाँ ज्यादा से ज्यादा किस ही तो कर सकते हैं, उससे ज्यादा कुछ नहीं। लेकिन घर पर अकेले में अगर और आगे बढ़ने की इच्छा हो जाती तो बताओ कैसे अपने आपको रोकते/" माणिक ने उसकी कान की लव को सहलाते हुए पूछा।
"बेशर्म!" अन्विता के कान लाल हो गए।
"बेशर्म नहीं सच है। झूठ नहीं बोलता मेरा तो मन करने लगता है। सच बताना तुम्हारा मन नहीं करता कभी?" माणिक की आँखों में शरारत झांक रही थी।
"हट! चलो मुझे घर छोड़ दो। आज तुम्हारा ध्यान पता नहीं कहाँ है।" अन्विता ने माणिक का हाथ दूर करते हुए उठने की कोशिश की।
"बैठो न कुछ नहीं कर रहा मैं।" माणिक ने हँसते हुए उसे हाथ पकड़कर फिर पास बिठा लिया। कोहनी से लेकर हथेली तक उसके हाथों को सहलाते हुए वह बोला "तुम्हारे हाथ कितने मुलायम हैं।"
कुछ देर बाद माणिक उसे घर के बाहर पहुँचाकर चला गया। पापा -मम्मी अभी आये नहीं थे। अन्विता अपने कमरे में चली गयी। थोड़ी देर तक किताबें उलट-पुलटकर देखीं फिर बिस्तर पर जाकर लेट गयी।
'तुम्हारे हाथ कितने मुलायम हैं'
माणिक की कही बात उसे याद आयी। वह अपने हाथों पर हाथ फेरने लगी। तेज भी अक्सर उसके हाथ सहलाते हुए यही कहता था।
"तुम्हारे हाथ कितने मुलायम हैं अन्विता।"
आज भी वह जब अपनी बाँहों को देखती है तो उसे तेज की याद आ जाती है। और जब वह उसकी याद में अपनी बाहों को छूती है तो उसे लगता है ये उँगलियाँ उसकी नहीं तेज की हैं, और क्षण भर को उसके रोम-रोम में तेज समा जाता है।
उसे आज भी तेज की याद है। क्या तेज ने अब तक शादी कर ली होगी? क्या तेज अपनी पत्नी को वैसे ही प्यार कर लेता होगा जैसे वह अन्विता को करता था। क्या पत्नी को छूते समय तेज को कभी उसकी याद आती होगी या कभी आएगी। क्या वह पूरी तरह से उसे भुलाकर अपनी पत्नी का हो पायेगा? क्या पुरुषों के लिए यह सब इतना आसान होता है। पुराने कपड़े बदल कर जैसे आदमी भूल जाता है वैसे ही। वह तो आज भी जब भी माणिक के साथ होती है तेज का स्पर्श, तेज की याद कहीं न कहीं साथ रहती है।
आज तेज को उसकी जरूरत नहीं, प्यार भी नहीं है। प्यार तो शायद तब भी नहीं था जरूरत ही थी। दो लोगों को जरूरत भी कभी-कभी आपस में बाँध देती है। ऐसा ही कुछ उन दोनों के बीच था। वह अपनी तरफ से इसे प्यार समझ बैठी थी, क्योकि वह तो प्यार ही करती थी। लेकिन नहीं जानती थी कि तेज उसे इस्तेमाल कर रहा है आगे बढ़ने के लिए। और जब उस पर पाँव रखकर आगे बढ़ गया तो उसे भूल गया, उठाकर एक ओर कर दिया। 'उफ़' आदमी किस हद तक स्वार्थी हो सकता है।
तेज के बारे में अन्विता ने अपने घर में सब बता रखा था क्योंकि वह अपने और तेज के रिश्ते को लेकर पूरी तरह से कॉन्फिडेंट थी, या शायद ओवर कॉन्फिडेंट थी।
यही वजह थी कि अब वह चाहकर भी मानिक के बारे में घर पर बता नहीं पाती।
कहीं माणिक भी वैसा ही निकला तो?
नहीं-नहीं। अब दुबारा वह उस पीड़ा को सह नहीं सकेगी। माणिक से वह बहुत ज्यादा जुडी हुई थी, तेज से भी ज्यादा। शायद अपनी ही मनःस्थिति के कारण या अपनी किसी कमजोरी के कारण। तेज को खोने के बाद से वह बहुत अकेला सा असुरक्षित सा महसूस करने लगी थी। और मणिक को पाते ही कहीं उसे भी खो न दूँ का डर भी उसके साथ ही मिल गया था। और जब आदमी पर किसी को खो देने का डर हावी हो जाता है तो यह डर ही उसे उस व्यक्ति के आसपास कस कर लपेट देता है। ऐसा ही कुछ अन्विता के साथ भी हुआ है। माणिक को खो देने के डर से वह ज्यादा से ज्यादा अपने आपको उसके आसपास लपेटती गयी। या माणिक को लपेटकर रखना चाहने लगी और बहुत अंदर तक उससे जुड़ती गयी। माणिक में खो देने का यह डर नही है तभी शायद वह इतना ईजी या इतना तटस्थ भी रह लेता है। या शायद वह अन्विता से उस गहराई से अब तक जुड़ा ही न हो जहाँ आकर खो देने का यह डर आदमी पर हावी हो जाता है।
अगले पूरे हफ्ते वह रिसर्च के काम में बुरी तरह व्यस्त रही यहाँ तक कि माणिक से भी मिलने की फुर्सत नहीं निकाल पायी। बस दो बार फोन पर ही बात कर पायी। उसके प्रोफेसर को पन्द्रह दिनों के लिए शहर से बाहर जाना था इसलिए रिसर्च का उतना काम हफ्ते भर में कर लेना जरुरी था। अन्विता पूरे हफ्ते भर इस लायब्रेरी से उस लायब्रेरी भागादौड़ी करती रही किताबों के लिए। आठ दिनों तक रात दिन जी तोड़ मेहनत करने के बाद अन्विता थक कर चूर हो चुकी थी। रविवार को वह काफी दिन चढ़े तक सोती रही। दोपहर को उठकर उसने चाय पी, नीचे जाकर मम्मी-पापा से थोड़ी देर बात की फिर ऊपर आ गयी। थकान के मारे सर अभी भी भनभन कर रहा था। बाथरूम में जाकर वह देर तक नहाती रही तब जाकर थोडा हल्का लगा। टॉवल से बाल सुखाती अन्विता बाथरूम से बाहर आकर कुर्सी पर पसर गयी। टेबल पर किताबें पड़ीं थीं पर अभी उसका बिलकुल भी मूड नहीं था उनकी तरफ देखने का भी। उसने माणिक को फोन लगाया। अभी शाम के चार बज रहे थे। कुछ घण्टे माणिक के साथ बिताये जा सकते हैं।
"हेल्लो।" उधर से माणिक की आवाज आयी।
"क्या बात है ऐसी डरी हुई आवाज में हेल्लो क्यों बोलते हो?" अन्विता को हँसी आ गयी। नम्बर नहीं पहचानते क्या, या सेव नहीं किया।"
" ऐसी बात नही है पर हमेशा डर लगा रहता है कि कहीं तुम्हारे घर पर पता लग गया हो और तुम्हारे पापा ने तुम्हारे मोबाईल से लगाया हो डाँटने के लिए।" माणिक भी हंस पड़ा।
"घबराओ मत अभी घर पर किसी को कुछ पता नहीं है।" अन्विता ने उसे आश्वस्त किया।
"तो कब बताएगी?"
"अभी नहीं, पहले मेरा रिसर्च पूरा हो जाये तब। और पहले हम दोनों में तो कुछ तय हो जाये।"
"अरे अभी तुम्हारा तय ही नहीं हुआ है? मै तो समझता था कि हममें सब तय है बस घरवालों को बताने की देर है।"
माणिक की सहजता से कही हुई बात अन्विता को अंदर तक भिगो गयी। यानी उसके और माणिक के बीच में सब बातें साफ हैं, वह अन्विता के साथ पूरा जीवन बिताने, उससे शादी करने के लिए तैयार है। एक ही पल में माणिक उसे इतना ज्यादा अपना लगने लग गया कि उसका और मणिक् का वजूद घुलमिल कर जैसे एक हो गया। तेज के साथ उसे यह अहसास नहीं हुआ था। कोई इतना ज्यादा अपना भी लग सकता है।
"अच्छा बताओ शाम को कहाँ मिल रहे हो?" अन्विता ने ठुनकते हुए पूछा।
"क्या बात है आज तुम्हारी आवाज कुछ ज्यादा ही रोमांटिक लग रही है।" माणिक ने भी शरारती ढंग से पूछा।
"अभी ही नहाकर आयी हूँ और फिर तुमसे बातें कर रही हूँ, इसलिए। पर तुमने बताया नहीं कि हम कहाँ मिल रहे हैं।"
"आज तो मैं नहीं आ सकता।" अचानक ही माणिक का स्वर बदल गया।
"पर क्यों?", अन्विता न चाहते हुए भी कुर्सी पर अचानक ही तनकर बैठ गयी।
"ऐसे ही अभी थोड़ी देर में मामाजी आ रहे है। और फिर मुझे कुछ काम भी है।"
"क्या काम है।" पता था कि माणिक नहीं बताएगा फिर भी अन्विता के मुहँ से आदतानुसार सवाल निकल ही गया।
"बस ऐसे ही कुछ काम है।" फिर एक लापरवाह जवाब।
"पूरे आठ दिन हो गए हैं तुमसे मिले हुए, थोड़ी देर के लिए ही सही आ जाओ न प्लीज।" जानती थी वह नहीं आएगा पर फिर भी दिल के हाथों मजबूर होकर मनुहार करने से अपने आपको चाहकर भी रोक नहीं पायी। ये दिल भी हमारे पूरे व्यक्तित्व को अचानक ही किसी के सामने कितना बेबस और कमजोर सा कर देता है कि आदमी कभी-कभी अपनी ही नजरों में एकदम बौना सा महसूस करने लगता है।
थोडी देर मनुहार फिर हल्की सी तकरार और उसके बाद एक सपाट से नही के बाद फोन डिस्कनेक्ट हो गया। जितने उत्साह के साथ अन्विता ने फोन लगाया था उतने ही बुझे मन से उसने फोन वापस रखा और कुर्सी पर निढाल हो गयी।
ये माणिक उसकी भावनाओं की परवाह क्यों नहीं करता, या शायद वही जरूरत से ज्यादा परवाह करने के कारण उम्मीद भी लगा बैठती है सामने वाले से। पल भर पहले जो उसे बहुत ज्यादा अपना लग रहा था अब एकदम पराया लगने लगा।
अगले तीन-चार दिनों तक भी माणिक कभी काम का, कभी किसी के आने का बहाना बनाकर मिलने नहीं आया। अन्विता सारा दिन चुपचाप घर पर बैठी रहती।
औरत की मानसिकता को प्रकृति ने और कुछ हमारे संस्कारों ने कितना कंडीशंड बना दिया है। जब पुरुष ने चाहा प्यार किया, जब चाहा उठाकर एक ओर रख दिया। पुरुष की मर्ज़ी से मिलने वाले प्यार में ही नारी अपनी सार्थकता देखती है। आखिर कब तक? वह अपनी शर्तों पर प्यार क्यों नहीं कर सकती या पा सकती। अपनी मर्ज़ी से जब वह चाहे तब उसे मिले। अन्विता जब भी माणिक को बुलाती, वह कभी नहीं आता, आता जब उसकी मर्ज़ी हो। चाहे माणिक हो चाहे तेज, सब पुरुष यही करते हैं, 'कंडीशंनल लव' 'शर्तों पर बंधा प्यार'। जबकि वह चाहती थी कि जब प्यार हो तब सर्फ समर्पण हो, शर्तें न हो। दोनों ही एक दूसरे की भावनाओं का खयाल रखें।
'क्या करे?'
क्या माणिक को छोड़ दे?
इतनी सी बात के लिए क्या रिश्ते इतनी आसानी से तोड़े जा सकते हैं? क्या उन्हें तोड़ देना सही होगा या अपनी शर्तों पर जीना ज्यादा ठीक रहेगा। माणिक को छोड़ देने पर क्या अन्विता को खुद को पीड़ा नहीं होगी? वो भी उस दिन का इतना बड़ा आश्वासन वह कैसे झुठला सकती है।
जब तेज उसके जीवन से गया था, तब कितनी तक्लीफ हुई थी उसे तेज को काटकर अपने आपसे अलग करने में। तेज जो उसकी सांसों में घुलमिल गया था, जो उसके वजूद का एक अभिन्न अंग बन गया था।
रिजेक्शन यानि ठुकराना। किसी को नकार देने का भाव। लेकिन कितना फर्क होता है ठुकराने और ठुकराये जाने में। ठुकराने में आपमें एक अहम प्रभावी होता है वो आपके द्वारा होता है, आपका अहम संतुष्ट होता है कि छोड़ा आपने है। पर ठुकराये जाने पर हम आहत होते हैं, हमे चोट लगती है, हम तिलमिला जाते हैं। अन्विता रिजेक्शन की पीड़ा के लम्बे दौर से गुज़री है।
रिश्ता टूटने की पीड़ाएँ भी अलग-अलग होती हैं। रिजेक्ट होने और रिजेक्ट करने में फर्क होता है। तेज से रिश्ता टूटने की पीड़ा अलग थी वहाँ रिश्ता तेज ने तोडा था और वह रिजेक्ट कर दी गयी थी। वहाँ रिश्ता टूटने के साथ ही रिजेक्ट कर दिए जाने का अपमान और पीड़ा भी थी। पर माणिक के साथ यदि वह रिश्ता तोड़ती है, तो शायद उसे इतना दुःख न हो क्योंकि यहाँ रिजेक्ट वह खुद कर रही है। यहाँ सिर्फ रिश्ता टूटने या तोड़ने की पीड़ा होगी, रिजेक्ट होने की नहीं। बल्कि कहीं न कहीं रिजेक्ट कर सकने वाले झूठे अहम की संतुष्टि का भाव ही होगा।
कहीं रिश्ते भी किताबों की तरह तो नहीं होते। एक निश्चित समय तक पढ़े, किताब खत्म होने पर बन्द करके रख दिया। हर किताब की तरह कुछ रिश्तों को भी क्या बंद करके रख देना पड़ता है।
'नहीं-नहीं' माणिक के साथ वह अपना रिश्ता किसी भी तरह नहीं कर सकती। हर बार क्या वह कपड़ों की तरह रिश्ते बदलती रहेगी। पहले तेज, फिर माणिक फिर .......। नहीं।
अब माणिक और बस माणिक ही।
अगले कुछ दिनों तक अन्विता माणिक के साथ अपने सम्बन्ध का विश्लेषण करती रही। उसने तय किया कि अब वह मम्मी-पापा से बात करने में भी देर नहीं करेगी।
कुछ भी हो वह माणिक के साथ अपना रिश्ता तो किसी भी कीमत पर टूटने नहीं देगी, वह हर हाल में उसे जोड़े रखेगी। लेकिन हाँ अब वह अपनी शर्तों पर ही इस रिश्ते को जियेगी। अब वह पुरुषों की इच्छा-अनिच्छा के हाथों खिलौना बनकर नहीं रहेगी। वह भी माणिक को अपनी अहमियत का अहसास अब कराकर ही रहेगी। आखिर अन्विता की तरह माणिक को भी उसकी जरूरत महसूस होनी ही चाहिए। माणिक के लिए भी अन्विता उतनी ही जरूरी, उतनी ही इम्पोर्टेन्ट होनी चाहिए जितना उसके लिए माणिक है।
और अपनी जरूरत का अहसास कराने के लिए उसे अपने व्यव्हार में माणिक के लिए थोड़ी दूरी, थोड़ी तटस्थता लापरवाही दिखानी ही पड़ेगी तभी माणिक छटपटाकर उसके पास आने की कोशिश करेगा।
हाँ तेज के साथ उसने यही गलती की थी कि अपने आपको तेज के कदमों तले बिछाकर रख दिया था तभी तेज उसके ऊपर पैर रखकर आगे निकल गया।
यही शायद वह माणिक के साथ भी कर रही है। अपने आपको उसने माणिक के आगे जरूरत से ज्यादा ही बिछा दिया है, कहीं माणिक भी तेज की तरह उस पर पैर रखकर आगे न निकल जाये।
नहीं।
स्त्री के लिए पुरुष का साथ जरुरी है, उसी तरह पुरुष के लिए भी स्त्री का साथ जरुरी है, वह भी अकेला उम्र नहीं गुजार सकता। यह अहसास वह तेज को नहीं करा पायी थी लेकिन अब माणिक को कराकर रहेगी।
और अन्विता को लगा की अब माणिक हमेशा के लिए उसका हो गया है। उसे खो देंने का डर अब उसे नहीं रहा। इस रिश्ते को लेकर अब वह सच में कॉन्फिडेंट हो गयी थी।
चार-पाँच दिनों तक उसने माणिक को फोन भी नहीं किया। हर बार उसके हाथ फोन तक जाते लेकिन वह मजबूती से स्वयं को रोक लेती।
छठवें दिन माणिक का फोन आया।
"हेल्लो" अन्विता ने फोन उठाया।
"हेल्लो" उधर से माणिक का हड़बड़ाया हुआ स्वर आया "क्या बात है तुमने इतने दिनों से फोन क्यों नहीं किया? तबियत तो ठीक है न, मुझे चिंता हो रही थी।" माणिक की आवाज में सचमुच चिंता छलक रही थी। अन्विता मुस्कुरा दी।
"कुछ नहीं बस ऐसे ही जरा इधर-उधर के कामों में व्यस्त थी।"
"अरे ऐसा भी क्या काम था कि मुझे एक फोन तक नहीं कर सकीं।"
"बस ऐसे ही" एक संक्षिप्त तटस्थ उत्तर दिया अन्विता ने।
"अच्छा आज मैं चिनार गार्डन में तुम्हारा इंतज़ार करूँगा। शाम को ठीक पाँच बजे पहुँच जाना।"
"आज तो मैं नहीं आ पाऊँगी।"
"क्यों?" खासा आश्चर्य था माणिक की आवाज में उसे अन्विता से कभी भी नहीं की उम्मीद नहीं थी।
दो दिन, चार दिन ........
"कुछ काम है मैं नहीं आ सकती।"
"क्या काम है?"
"है कुछ काम"
"काम-वाम कुछ नहीं। बस तुम आ रही हो।"
"नहीं मैं नहीं आ पाऊँगी।" सवाल और जवाब आजकल पलट गए थे। अन्विता के स्वर में लापरवाही और होठों पर मुस्कुराहट नाच रही थी।
" कितने दिन हो गए मिले नहीं हैं। आ जाओ न आज तो।" माणिक के स्वर में वही खुशामद छलकती जो कभी अन्विता के स्वर में छलका करती थी।
"कहा न आज नहीं आ सकती।"
"प्लीज"
"नहीं"
"प्ली...... ज।"
"नहीं"
और अन्विता ने फोन रख दिया।
अब माणिक उससे कभी भी दूर नहीं जायेगा।अच्छा हुआ अन्विता को समय रहते अपनी कमी समझ में आ गयी। फोन की घण्टी फिर घनघनाने लगी। फोन माणिक का ही था।
हँसते हुए अन्विता ने फोन उठाया "हेल्लो"
"आज शाम को हम मिल रहें हैं। बस आज मना मत करना। और अपने मम्मी-पापा से भी जल्दी बात कर लेना।"
तीर निशाने पर लगा था। अन्विता संतुष्ट भाव से मुस्कुरा दी।

 


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