वो आत्मा जो चली गयी
वो आत्मा जो चली गयी
रोज की तरह उस दिन भी रामसुन्दर अपनी पुरानी जवानी का जोश याद दिलाती साइकिल पर बैठ नहर की तरफ निकल पड़े थें।
सुबह से अपने घर के सामने पैर फैलाये बैठा मैं उनपर कड़ी नज़र गड़ाए हुए था। उनका चेहरा भी बिना कुछ कहे कितना कुछ ज़ाहिर कर रहा था वो सुबह से बेकार बैठा मैं ही जान सकता था। ना जाने किस बात की सूई उनके स्वाभिमानी मन को कचोट रही थी ये जानना तो मेरे लिए भी मुश्किल था।
कभी-कभी उनकी झुकी नज़र मेरे घर की ओर उठती फिर अगले पल शायद कुछ भूल जाने के भाव से साइकिल पर पैडल की गति बढ़ा देते।
कुछ अलग तो था उनका आचरण, उनको इस तरह कभी देखा नही था।
मैं अपना विलायती ब्रश मुँह में डाले जैसे ही घर से निकला उनको सामने खड़ा पाया।
हाथ जोड़ना चाहते थे वो, आँखों में आँसू भी आने देना चाहते थे, यहाँ तक की अपनी पगड़ी भी उतार कर मेरे सामने रखना चाहते थे वो, पर ऐसा कुछ हो नही पाया उनसे, उन्होंने बस एक नम आवाज में मुझे कहा कि उनके बेटे का पत्र आया था उसने दस हजार रुपयों की मांग की थी। अपनी पढ़ाई का आधा हिस्सा खत्म कर चुके बेटे ने उन्हे दो साल से शक्ल तक नही दिखाई थी और वो उसके लिए अपना अभिमान तक त्यागने को तैयार थे।
एक बार जो वो मुझे अपने बेटे की तरह डांट कर मुझे पैसे मांगते तो मैंं ज्यादा खुशी से देता।
साल बीतते गए, मगर उस दिन के बाद से वो मुझसे नज़र नही मिला पा रहे थे। खैर उनकी गरीबी का उपहास करने को मैंने उनसे कभी वो पैसे वापस नही मांगे। लेकिन दस हजार छोटी कीमत नही थी ये बात मुझसे ज्यादा उनको पता थी फिर भी उनके बेटे ने एक बार भी अपने बाप की मरती स्वाधीनता का हाल जानने को कोई पत्र तक नही लिखा।
शायद नई फ़िल्मे देखने का शौक कुछ ज्यादा ही चढ़ गया था उसको, इसी कारणवश वो किसी शहरी लड़ाका के चक्कर में पड़ गया होगा।
पर उनके सामने मैंने इस बात की पेशकश कभी नही की।
मेरी खुद की औलाद जब ऐसी ही थी तो दूसरों को क्यों कुछ कहे, हालांकि मेरी हालत भी आर्थिक रूप से कुछ बिगड़ने सी लगी थी। शायद पिछले कर्मो का नतीजा था।
इसलिए एक दिन मैंने उनके बेटे के नाम एक पत्र लिख ही दिया कि या तो मेरे पैसे भेज दे या आकर अपने बाप का खेतों में हाथ बटाए।
कुछ दिन बाद वो पत्र मुझे इस खबर के साथ वापस मिला कि उस पते पर अब कोई और परिवार रहता है, मैंने आश्चर्य के साथ उस पत्र को अपनी अलमारी में एक कोने में ही स्थापित कर दिया।
फिर आगे का क्या बाताऊँ रामसुन्दर मर भी गए पर उनका वो नालायक बेटा आज तक गाँव में वापस नही आया।
मैं खुद में वो ताकत नही खोज पाता की उस पत्र को कहीं भेज सकूं इसलिए नही कि मेरे पास पता नही है बल्कि इसलिए कि उस स्वाभिमानी और ईमानदार आत्मा का नाम लेकर उन तुच्छ पैसों की मांग कैसे करूं।
वो तो चले गए हैं, बस रह गयी है उनकी वो जवान साइकिल।