मंदिर वाली माताजी
मंदिर वाली माताजी
मेरी कामवाली ने आ कर बताया कि " दीदी आपकी मंदिर वाली माता जी मर गयीं। "
परसों ही तो उन्हें देखा था काफी बीमार लग रही थीं। उनका पोता उन्हें डॉक्टर के पास ले जा रहा था। एक बार को मन किया कि गाड़ी रोक कर माता जी से बात करूँ पर पोता साथ था इसलिए रह गयी। बात कर लेती तो शायद अच्छा होता !!!!
सुनकर लगा कि अफ़सोस करूँ या खुश होऊं ?!!!!
"मंदिर वाली माता जी" ये नाम मैंने ही दिया था उन्हें। पांच सालों से उन्हें सावन में हर रोज़ मिलती थी। मंदिर में रोज़ दिया जलाने जाती तो शाम को वो मेरा इंतज़ार करती मिलती थीं। पांच सालों में उन्हें एक जैसा ही पाया मैंने, उम्र 80 साल, पतली दुबली, थोड़ी झुकी हुईं, शांत और हमेशा पेट की बीमारी से ग्रसित।
एक अनजाना सा रिश्ता था उनसे। मुझे देखते ही मेरे पास आ जातीं, ढेरों आशीर्वाद देती, फिर इधर उधर देखती अपने मन की तकलीफ बताती "आज बहू ने खूब खाना बनाया, जो बचा वो फेंक दिया पर मुझे रोटी नहीं दी। मैंने खुद अपने लिए रोटी बनाई।" कभी कहती, "कई दिनों से मेरे दांत में दर्द है, रोटी नहीं खायी जाती पर दूध नहीं देती बहू।" याद है मुझे, अगले दिन मैं उनके लिए बिना अंडे का केक बना कर ले गयी थी पर उस दिन वो नहीं आई थीं। दुःख हुआ मुझे, पर जाते वक़्त मंदिर के गेट पर मिल गयीं। मैंने उन्हें केक दिया तो उनकी आँखों में आंसू आ गए अगले दिन कह रही थी 5 दिनों बाद पेट भरा कल मेरा।
ऐसा नहीं था कि वो गरीब थीं, 500 गज की कोठी उनके नाम थी। ना वो विधवा थी, बनियो की बेटी, खाते पीते घर की बहू, 4 भाइयों की एकलौती बहन पर कोठी उनके नाम होना उनके लिए जी का जंजाल बन गया था। बेटे,बहू चाहते कि बुढ़िया मर जाए पर वो सख्त जान जिये जा रही थीं। सबसे ऊपर की मंज़िल के कमरे में पंखा नहीं चलने देते थे कि बिजली का बिल आएगा, सर्दी में नहाने को गर्म पानी नहीं देते, पेट की तकलीफ से जब दस्त लग जाते तो वो हर बार ठन्डे पानी से नहाती फिर छाती जुड़ जाती तो खांसी बैठ जाती।
मंदिर में बिताये वो 15 -20 मिनट हम दोनों को ही खूब भाते थे, कई बार ये सुन कर मेरा खून खौल जाता था, डांटती भी थी मैं उनको कि क्यों सहती हो आप ये सब? क्यों नहीं सबको ठीक कर देती? पर वो डरती थीं। जिस दिन मैं लेट होती तो अगले दिन पंडित जी कहते मेरा इंतज़ार किया उन्होंने।
सावन के आखिरी दिन हम दोनों ऐसी हो जातीं कि जैसे कितनी पुरानी सहेली जुदा हो रहीं हों। चालीस दिन का साथ जो छूट रहा होता था। एक दूसरे से वादा करते कि बीच बीच में मिलते रहेंगे मंदिर में और फिर अगले साल सावन तो आएगा ही तब तो मिलना रोज़ होगा ही।
कामवाली बाई हर महीने उनकी कोई न कोई खबर सुना ही देती कि माता जी को उनके घर वालों ने पागल करार दे दिया है। मारते पीटते हैं। एक बार तो घर भी गयी थी उनके, पर उन्होंने मना कर दिया अगर कोई उनसे मिलने आये तो उनके घर वाले घर से निकलना बंद कर देते हैं।
आज उनके जाने की खबर सुन कर दुःख हुआ कि अब सावन के वो चालीस दिन कौन मेरा मंदिर में इंतज़ार करेगा। पर सुकून मिला कि उन्हें अपनी तकलीफों से छुटकारा मिला। भगवान "मंदिर वाली माताजी" की आत्मा को शांति दें। सखी तुम सदा याद आओगी।