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ईश्वर

ईश्वर

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अंजान की आँखों से लगातार आँसू बहे जा रहे थे।

एक छोटी बच्ची के चेहरे पर मुस्कान थी... क्योंकि वह ईश्वर और धर्म का अर्थ समझ चुका था। जबकि वह बच्ची काफी दिनों से उदास थी।

अंजान एक 30 बरस का युवक था। उसका धरम-रम में अत्यंत विश्वास था। वह रोज नियम से शहर के एक प्राचीन मंदिर में दर्शन करने जाता था। वहां लंबी लाइन में लगकर लगभग 20 से 25 मिनट में उसको भगवान के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होता था लेकिन वहां चढ़ावा चढ़ाने के बावजूद उसके मन को शांति न मिलती थी। वह दर्शन करने के पश्चात भी बुझे मन से घर की ओर चल देता था। यह उसका रोज का नियम बन चुका था। अंजान अक्सर सोचा करता था कि वह रोज ईश्वर के दर्शन करता है प्रसाद चढ़ाता है किंतु उसके मन को संतोष क्यों नहीं मिलता?

रोज की तरह ही आज भी अंजान मंदिर पहुँचा और प्रसाद खरीदने के लिए एक दुकान पर पहुंचा तो पीछे से एक 6-7 साल की बच्ची ने आवाज दी "भैया भैया भूख लगी है कुछ खिला दो ना!" तो दुकानदार ने कहा "साहब इनकी आदत खराब है कुछ मत देना।" तो अंजान ने भी छोटी सी लड़की को जोर से फटकार दिया "चल हट पीछे भाग यहाँ से" आवाज में कुछ ज्यादा ही रोष था बच्ची डांट सुनकर सहम गई और उसकी छोटी-छोटी पलके अश्रुओं से भीग गई और वह बच्ची वहां से चली गई अंजान ने प्रसाद लिया और दर्शन के लिए लाइन में लग गया लेकिन आज नंबर आने में कम से कम एक घंटा लगा जब अंदर पहुंचे तो पता चला कि कोई वि.आई.पी. दर्शन के लिए आया हुआ है तो आज प्रसाद की थाली एक तरफ खाली कर बिना भोग लगाए भक्तों को जल्दी-जल्दी आगे बढ़ाया जा रहा था। अंजान ने मन ही मन कहा बताओ भगवान के घर में भी भेदभाव। वह बुझे मन से घर की तरफ चल दिया।

अगले दिन जब वह मंदिर पहुंचा तो वही बच्ची मंदिर के बाहर बैठी हुई नज़र आई। उसकी नज़र जब बच्ची पर पड़ी तो बच्ची के चेहरे पर उदासी साफ नज़र आ रही थी।बच्ची ने अंजान को देखकर नज़रें ऐसे झुका ली जैसे उसने कोई बहुत बड़ा गुनाह किया हो। अंजान मंदिर में दर्शन कर वापस घर चल दिया। अब वह बच्ची उसको रोज नज़र आने लगी वह उसकी ओर देखता उसकी उदासी देख उसके चेहरे पर भी अब मायूसी के भाव आने शुरु हो चुके थे और वह पहले से ज्यादा खिन्न रहने लगा। एक दिन जब वह मंदिर पहुँचा तो वह बच्ची उसको कही नज़र नहीं आई। वह अपनी नज़रों से उसको इधर-उधर ढूंढता रहा लेकिन वह कहीं नज़र नहीं आई। वह और ज्यादा उदास हो गया और आज बिना दर्शन करे ही वापस चला गया। लगभग हफ्ते भर यही सिलसिला चलता रहा।

सोमवार का दिन था। आज बोझिल कदमो से अंजान मंदिर की ओर बढ़ते हुए सोच रहा था कि उसने ऐसा क्या कर दिया है कि वह उदास है। किसी काम में मन नहीं लगता और क्यों मंदिर के बाहर से ही उसके कदम वापस मुड़ जाते हैं? जैसे ही वह इन बातों के बारे में सोचता है। उसकी आँखों के सामने उस छोटी सी बच्ची का भूखा प्यासा उदास चेहरा घूम जाता है और अंजान को महसूस होता है कि उसने एक छोटी सी मासूम बच्ची के साथ कितना गलत व्यवहार किया। यह सब सोचते-सोचते वह मंदिर पहुंचता है तो आज वह बच्ची उसे मंदिर के बाहर बैठी दिख जाती है। अंजान सीधा बच्ची के पास पहुंचता है और उसकी ओर ध्यान से देखता है बच्ची उसको देखकर सहम जाती है और वह अपनी नजरें नीची कर लेती है। वह बच्ची के सर पर प्यार से हाथ फेरकर कहता है "बिटिया डरो मत मैं तुमसे माफ़ी मांगता हूँ।" और बच्ची उसकी तरफ देखती है और बढ़ी बेबसी से कहती है "भैया भूख लगी है कुछ खिला दो ना!" उसकी आवाज में लाचारी साफ झलक रही थी। यह सुनकर अंजान भावुक हो जाता है और उसकी आँखों में नमी आ जाती है। वह बच्ची को भर पेट भोजन कराता है। भोजन करने के बाद बच्ची के चेहरे पर एक बेहद ही खूबसूरत मुस्कान आ गई थी और वह अंजान से कहती है "धन्यवाद भैया काफी दिनो से भर पेट भोजन नहीं किया था।" यह सुनकर वह बच्ची के सर पर करुणा से हाथ फेरकर कहता है "बेटा तुम्हारे माता पिता कहाँ है?" बच्ची बोलती है "माँ बाबा अब नहीं रहे।" तो अंजान कहता है "फिर तुम रहती कहाँ हो तो बच्ची कहना शुरु करती है कि "माँ कहती थी कि ईश्वर ही हम सब के माँ बाबा है इसलिए मेरे माँ बाबा नहीं रहे तो मैं यँहा मंदिर के बाहर रहने लगी हूँ।" अंजान ने कहा "तुम कभी मंदिर में अंदर गई हो?" बच्ची ने कहा "नहीं हमें अंदर नहीं जाने दिया जाता, वो लोग कहते है मंदिर में दर्शन करने के लिए पैसा और प्रसाद चढ़ाना पड़ता है। मेरे पास तो है ही नहीं।" इस पर अंजान बोलता है "तुम लोगों को प्रसाद मिलता है?" बच्ची कहती है "कभी-कभी" फिर दोनो चुप हो जाते हैं। अंजान कुछ सोच रहा होता है तभी बच्ची कहती है "भैया भूख लगती है इसलिए तो आप से खाना माँग रही थी लेकिन आपने मना करने की जगह डांट दिया। मैं डर गई थी फिर किसी से माँगने की हिम्मत ही नहीं हुई और पिछले कुछ दिनो से मंदिर वालो ने यहाँ से भी हटा दिया था।" यह कहकर बच्ची उदास हो गई जबकि अंजान की आँखों से अब लगातार आँसू बहने लगे और उसने बच्ची को जोर से गले लगा लिया। आज उसे बेहद ही संतोष महसूस हो रहा था क्योंकि अब अंजान को ईश्वर और धर्म का असल अर्थ समझ आ चुका था। उसे उस अंजान बच्ची से एक अंजाना रिश्ता महसूस हो रहा था। बिलकुल वैसे ही जैसे हम सब जानते हैं कि ईश्वर हर चीज में विराजमान है लेकिन फिर भी अंजान बने रहते है।


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