साहस
साहस
राधा अपने बेटे के गृह प्रवेश में आई हुई थी।
बेटे-बहू उनके दोस्त सब वहाँ मौजूद थे। राधा एक कोने मे खड़ी थी। किसी ने बैठने तक को नहीं कहा। काफी देर तक उससे खड़ा भी न रहा जाता था।
उम्र हो गई थी, पैरों के दर्द काफी बढ़ गये था। राधा ने बहू से कहा- कुछ पूजा के काम हो तो कहो ! बहू ने कुछ उत्तर न दिया। बहु की दोस्त वंदना ने उत्तर दिया- नहीं माताजी अपनी उम्र तो देखो ! यह तो बैठ जाने की उम्र है, जाके बैठ जाओ।
राधा मायूस हो गई। उसने कहा- घर में तो मैं काम करती ही हूँ ! बहू तो पाठशाला पढ़ाने जाती है।
फिर वह रसोई में गई और बोली- लाओ कुछ पुड़ियाँ ही बेल दू !
बहू जोर से गरजते हुई बोली- अरे ! जाओ न माँ, जाकर बैठ जाओ।
राधा गुमसुम सी जाकर बैठ गयी। रात में बेटे ने माँ को खूब लताड़ा- कहीं चुप से बैठ नहीं सकती हो ! लोगों से बातचीत का सलीका तक नहीं, मेरा गृहप्रवेश था, तुम्हें इससे क्या लेना- देना ? मुझे सभी के बीच निंदा का पात्र बना दिया !
राधा अपना दोष समझ न पायी। कुछ लड़खड़ाते हुए बूढ़े हाथों से रोटी बनाने रसोई में चली गई। अपना दोष पूछने का साहस उसमें न था।