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हिप हिप हुर्रे

हिप हिप हुर्रे

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पिछले एक घंटे से उसके हाथ मोबाइल पर जमे हुए थे। पबजी गेम में उसकी शिकारी निगाहें दुश्मनों को बड़ी मुश्तैदी से साफ कर रही थीं। तकरीबन आधे घंटे की मशक्कत के बाद वो जोर-जोर से चिल्लाने लगा। हुर्रे, हुर्रे, हिप हिप हुर्रे। आखिकार लेबल 30 पार कर ही लिया। डेढ़ घंटे की जद्दोजहद के बाद उसने पबजी गेम का 30 वाँ लेबल पार कर लिया था। उसी जीत का जश्न मना रहा था। हुर्रे, हुर्रे, हिप हिप हुर्रे।

कड़ी मेहनत के बाद फ्लैट की बॉलकोनी में जाकर आती-जाती कारों को निहारने लगा। एक कार, फिर दूसरी, फिर तीसरी, फिर चौथी....।कबूतर की तरह अपने फ्लैट नुमा घोंसले से बाहर आकर आसमान में उड़ते हुए कभी कबूतरों को देखता, कभी लम्बी-लम्बी अट्टालिकाओं के बीच आँख-मिचौली करते सूरज को। चेहरे पे जीत की खुमारी छाई हुई थी। सीने में अहम की दहकती हुई ज्वाला प्रज्वलित थी पर अहम का प्रक्षेपण गौण। किसपे करे अपने मान का अभिमान ? खुद ही खेल, खुद ही खिलाड़ी, खुद ही दर्शक, खुद ही शिकारी। अलबत्ता जीत का सेलिब्रेशन डिजिटल हो गया था। व्हाट्सएप्प, फेसबुक और इंस्टाग्राम पे अपनी जीत का स्टेटस अपडेट कर फ्रिज से कोक और पिज्जा निकाली और खाने लगा। व्हाट्सएप्प, फेसबुक और इंस्टाग्राम पर उसके दोस्तों के कंमेंट और डिजिटल मिठाइयाँ आने लगीं। वो भी उनका जवाब डिजिटल इमोजी से देने लगा।थोड़ी देर में दरवाजे की घंटी बजी। वो जाकर दरवाजा खोला। सामने मैथ के टीचर थे। वो झुँझला उठा।

शीट मैन, सर को भी अभी आना था। झुंझलाते हुए 10 किलो का स्कूल बैग लेकर स्टडी रूम में मैथ के टीचर के साथ चल पड़ा।शाम के 5 बज रहे थे। मुमुक्षु अपने बेटे सत्यकाम को मैथ टीचर के साथ स्टडी रूम में जाते हुए देख रहा था। उसका बेटा सत्यकाम एक नामी गिरामी इंटरनेशनल स्कूल में पढ़ता था। उसकी दिनचर्या रोजाना तकरीबन 6.30 सुबह शुरू हो जाती। मुमुक्षु की पत्नी अपने बेटे को सुबह 6.30 से ही उठाने का प्रयत्न करने लगती। वो थोड़ा और, थोड़ा और करके 5-5 मिनट की मोहलत लेते रहता। लगभग 7.15 बिछावन से उसका मोह भंग होता। फिर आनन फानन में मुँह धोता, नहाता, कपड़ा पहनता और स्कूल के 10 किलो का बस्ता लेकर अपने पापा मुमुक्षु के साथ 8 बजे तक स्कूल पहुँच जाता।

फल, हरी सब्जियों से उसकी जैसे जन्मजात दुश्मनी थी। सत्यकाम की माँ लंच में उसके लिए पिज्जा, बर्गर या फ्रेंच फ्राई रख देती। दोपहर को लगभग 2.30 बजे स्कूल से होमवर्क के बोझ के साथ लौट जाता। घर आकर रोटी दाल और सब्जी के साथ सलाद खाता और फिर उसकी निगाहें मोबाइल पे टिक जाती। बीचृबीच मे कार्टून चैनल भी चला देता। इतने में 4 बज जाते।मुमुक्षु के पास सत्यकाम को पढ़ाने के लिए समय नहीं था। केवल स्कूल की पढ़ाई के भरोसे स्कूल में अव्वल आना टेढ़ी खीर थी। लिहाजा होम ट्यूशन लगा रखे थे।

शाम को 4 बजे मैथ टीचर 1 घंटे के लिए आते थे। 5 बजे लौट जाते। फिर आधे घंटे का ब्रेक। फिर 6 से 7 बजे तक साइंस टीचर। फिर आधे घंटे ब्रेक। 7 बजे टी. वी. पे सत्यकाम का प्रिय डोरेमन का कार्टून आता था। वो डोरेमन देखते हुए रोटी सब्जी खाता। फिर 8 से 9.30 तक होम वर्क कराने वाले टीचर का समय था। तकरीबन इसी समय मुमुक्षु आफिस से घर आता था। होम वर्क पूरा करके सत्यकाम फिर 1 घंटे के लिए मोबाइल पे लग जाता। और दुघ पीकर लगभग 11 बजे सो जाता फिर सुबह तैयार होकर स्कूल जाने के लिए।

आज रात को सत्यकाम पे जीत की खुमारी शायद ज्यादा हीं चढ़ी हुई थी। शायद जीत का आनंद उसके होम वर्क के बोझ से ज्यादा भारी पड़ रहा था। रात को सपने में दो-तीन बार उठ कर उसने हिप हिप हुर्रे की भाव भंगिमा बनाई।

मुमुक्षु को उसका खुद का बचपन, गाँव में उगती सूरज की सुनहली किरण, मुर्गे की बाँग, चिड़ियों की चहचहाहट, सरसों के खेत की भीनी भीनी खुशबू याद आने लगीं। कोयल की मधुर पुकार उसे सुबह-सुबह उठा देती। नहा धोकर बाहर निकलता तो उसके दोस्तों की टोली घर के बाहर इन्तजार करती मिलती। फिर सब साथ चल पड़ते महुआ बीनने। मोती के दानों की तरह घास के बीच झिलमिल-झिलमिल करते महुए के फल बच्चों का इन्तजार करते।

अपने पीतल के थाली को सब सूरज की रोशनी में रख देते। जब पीतल की थाली गर्म हो जाती तो उससे अपने बोरे की इस्त्री करके सारे बच्चे स्कूल नंगे पाँव पहुँच जाते। भृंग राज के पत्तों से स्लेट को बिल्कुल साफ रखा जाता। कोई कोई भाग्यवान हीं चप्पल पहनता और उसे बच्चों में विशिष्ट माना जाता। भटकुइयाँ के बैर मुमुक्षु और उसके दोस्तों के प्रिय आहार हुआ करते।इधर मास्टरजी पहला क्लास ख़त्म के क्या जाते, मुमुक्षु अपने दोस्तों के साथ रफ्फूचक्कर हो जाता। शैतानों की टोली जामुन के पेड़ पे धमा चौकड़ी मचाती मिलती। बंदरों की तरह एक डाल से दूसरे दाल और उछलते हुए बंदरों के जामुन को हजम कर जाते। और तो और बारिश के मौसम में जब स्कूल में पानी जमता तब तीन महीने की छुट्टी तय हो जाती। मुमुक्षु को एक एक कर अपने बचपन के दिन याद आने लगे।

बारिश की मौसम में स्कूल की छुट्टियों में वो अपने दोस्तों के साथ चील चिलोर, आइस बाइस, कबड्डी, चीका, गिल्ली डंडा खेलता। शीशम और तरकुल के पत्तों को चबाकर पान की तरह मुँह लाल करता। आम की आँठी से सिटी बजातता ।मक्के के खेत में बने मचान पे बच्चों की टोली जमती और पास के ही खेतों से मूली, मिर्च, टमाटर निकाल कर भोज किया जाता।होली में होलिका के लिए मुमुक्षु की टोली गाँव के सारे पुराने लकड़ियों को दीमक की तरह चट कर जाते। होली के कुछ दिन पहले उसकी टोली का आतंक इतना बढ़ जाता कि बूढों की खटिया भी होलिका के दहन में खप जाती। होलिका दहन पर लुकार भांजना, ठंडी में घुर के पास बैठकर आग तापना, पुआल की चटाई पे अपने दोस्तों के साथ सोना, ये सारी बातें धीरे-धीरे मुमुक्षु के मानस पटल पे एक-एक करके याद आने लगी।अभी सत्यकाम के हाथों में सारे क्रिकेट के मैच लाइव आते हैं। तब मुमुक्षु को अपने दोस्तों के साथ पांडेय जी के खिड़की के पीछे चोरों की तरह देखता। हालांकि उस चोरी में भी अति आनंद की पुर्ति होती। महाबीरी झंडा में गदका खेलना, कठपुतलियों का नाच देखना, शहर जाकर सर्कस का आनंद लेना।आज तो अँधेरा क्या होता है, ये किसी को बताना भी मुश्किल था। गाँव में जब मुमुक्षु अमवस्या की रात में बरगद के पेड़ के चारो तरफ जुगनुओं की बारात देखता तो ऐसा लगता कि सारे तारे जमीं पे आ गए हैं। बारिश के मौसम में मेढ़कों की टर्र टर्र और झींगुर की झंकार से सारा वातावरण गुंजायमान हो उठता।

जामुन के पेड़ से कलाबाजियाँ खाते हुए तलाब में छलांग लगाना, गांज पर से धान की पुआल पे कूदना, पिता की की मार से बचने के लिए मड़ई में जाकर छुपना, आम के टिकोड़ों और पीपल के कलियों को नमक से साथ खाना, बरगद के पेड़ पर दोला पाति खेलना और फगुआ में झूम-झूम के फगुआ के गीत गाना। क्या दिन थे वो।

मुमुक्षु को अनायास अपनी वो पिटाई भी याद आ गई जब वो अपने दोस्तों के साथ पीपल के डंठल को बीड़ी बनाकर पी रहा था। बरसात के मौसम में कागज के नाव को बहाना, पीले-पीले मेढ़कों को भगाना, खेतों में मछलियों को पकड़ना, गिल्ली डंटा खेलना, पतंग उड़ाना। जीतने पे चिल्लाना और हारने पे हिप हिप हुर्रे करके दोस्तों को चिढ़ाना। तब जीत भी साथ-साथ होती, हार भी साथ-साथ।

अब सब कुछ बदल गया है। सब कुछ डिजिटल भी है और सिंगल भी।


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