बसन्ती इन कुत्तों के सामने मत नाचना
बसन्ती इन कुत्तों के सामने मत नाचना
इस कहानी का शीर्षक भारत की अब तक की सबसे हिट फिल्म शोले का एक संवाद है।
शोले १५ अगस्त सन १९७५ को रिलीज़ हुई थी। दिल्ली में फिल्म डिस्ट्रीब्यूटरस (वितरकों) के बीच फिल्म का फीडबैक अच्छा था। लेकिन सुपर डुपर आल टाइम हिट जैसी कोई चर्चा नही थी।
शोले फिल्म ने दुसरे हफ्ते से ऐसी रफ़्तार पकड़ी या यूँ कहिये पिकअप किया की लगभग तीन साल तक बुम्बई के मिनर्वा टॉकीज में हाउस फुल चलती रही। सारे भारत वर्ष में आल टाइम हिट रही। टॉकीजों के गेट कीपरों तक के अपने घर बन गए।
मिनर्वा टॉकीज के स्टाफ ने अपनी आर्थिक खुशहाली के लिए फिल्म के खलनायक श्री अमजद खान (गब्बर सिंह) को बुला कर सम्मानित किया और अपनी कृतज्ञता प्रकट की।
बिल्लू के पापा श्री राजेन्द्र कुमार अग्रवाल जी (मुज़फ्फरनगर निवासी) को शहर सहारनपुर के दर्पण टॉकीज के मालिक श्री ब्रिजेन्द्र जी, शोले का मिनर्वा, में फर्स्ट डे फर्स्ट शो दिखाने के लिए बुम्बई ले गए थे।
दोनों ने हमेशा बालकनी से फ़िल्में देखी थी। बड़ी मुश्किल से १०० – १०० रूपये के दो टिकट ब्लैक में सबसे आगे की क्लास के मिले। आगे से तीसरी लाइन में बैठे। गर्दन उठा के फिल्म देखनी पड़ी, जिसकी उन दोनों को आदत नही थी। श्री ब्रिजेन्द्र जी ने हॉल से निकलते ही भविष्यवाणी कर दी कि यह फिल्म सबसे बड़ी हिट होगी। हुआ भी यही।
बिल्लू ने कई शहरों में शोले देखी, जैसे कि मुज़फ्फरनगर, सहारनपुर, दिल्ली व् बुम्बई में। कई बार देखी। बाद में शायद एक दो रील बढ़ भी गयी थी। शोले का संगीत पक्ष (या गाने) बहुत अच्छा नही था। लेकिन संवाद व् सम्पादन बेजोड़ था। शोले को एक ही फिल्म फेयर अवार्ड मिला, सम्पादन के लिए, श्री एम।एस शिन्दे को।
एच।एम।वी। ने गाने के रिकार्ड्स के साथ साथ इसके संवाद के भी कई रिकार्ड्स बाज़ार में उतारे, जो बहुत सफल रहे। बिल्लू के पास सब थे।
लेकिन शोले कई बार या बार देखने की वजह मित्र राजू की तरह नही थी। राजू ने एक अन्य फिल्म दस बार देख डाली थी। उस फिल्म में हीरोइन कपड़े बदलना शुरू करती है, तभी ट्रेन आ जाती है। राजू बार बार फिल्म इसलिए देखते रहे की कभी तो ट्रेन लेट होगी। दोस्तों के समझाने पर तो उनको समझ नही आया, पर जब पत्नी ने हिन्दी में समझाया तो एक ही बार में समझ में आ गया। लेकिन तब तक दस बार देख चुके थे।
अब भी जब कभी बिल्कुल फुरसत हो और टीवी के किसी चैनल पर शोले मिल जाए, तो बिल्लू शोले देखना छोड़ता नही। और हर बार कोई ना कोई नई कल्पना करता है, जैसे कि हैप्पी एन्डिंग (यानिकि जय ना मरता), या फिर आखरी सीन में जया बच्चन अपने घर की बालकनी से बन्दूक से गोली चलाकर गब्बर को मार डालती है।
‘बसन्ती, इन कुत्तों के सामने मत नाचना’, ‘कुत्ते मैं तेरा खून पी जाऊँगा’, ‘वीरू जा एक एक को मार के आ’, ‘चुन चुन के मारूंगा’, आदि। ये संवाद / वाक्य, ‘गलत’ के विरुद्ध विद्रोह है। फिल्म में गलत का मुकाबला, ठाकुर, बसन्ती, वीरू व् जय करते हैं।
इस कहानी के पात्र, स्वरुपनगर, कानपुर में बसंती, वीरू व् जय तीनों हैं। गब्बर भी हैं, मय साम्भा, कालिया व् फौज पाटे के। इस कहानी की नायिका बसंती उनके सामने नाचती नही है। मुहं तोड़ जवाब देती है।
उसे अंग्रेजी आती है, और जूडो कराटे की हू हा आवाजें निकालना आता है और थोडा बहुत एरोबिक्स (हाथ पैर की वर्जिश) भी जानती है। वीरू व् जय की ज़रूरत बड़े गब्बरों के लिए कभी कभी पड़ती है। वो दोनों लड़कियों को जूडो कराटे सिखाते हैं, बसंती को भी।
बसंती, वीरू व् जय ने कानपुर के हर मोहल्ले की हर बसंती (स्त्री) को आत्म सुरक्षा में सक्षम बनाने का बीड़ा उठाया है। जिससे कि वह हर गब्बर को बता सकें कि नही का मतलब नही। जैसे को तैसा (Tit for Tat)। दुष्ट के साथ दुष्टता का ही व्यवहार करना चाहिये ( शठे शाठ्यम समाचरेत् )।
आज का गब्बर सिर्फ व्यभिचारी डकैत नहीं है। अब वह समाज के बीच में रहता है। मनी (धन) व मसल (सत्ता) पावर (ताकत) उसके पास है। अराजक है। अपना हित ही सभ कुछ है। देश हित से उसे कोई मतलब नही।
समाज को उससे शुद्ध करने के लिए हर ठाकुर, बसंती, वीरू व् जय को युद्ध तो करना ही होगा।
ठाकुर, बसंती, वीरू व्प्रतीकात्मक नाम हैं। उनकी जैसी तपन तो सभी में आनी होगी।
हे भवानी माँ, हे चामुण्डा माँ, हे दुर्गा माँ, हे काली माँ, शक्ति दे।