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kavi manoj kumar yadav

Tragedy

4.9  

kavi manoj kumar yadav

Tragedy

शरीर जिंदा है

शरीर जिंदा है

2 mins
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घर में तंगी का माहौल चल रहा था। अगले महीने भांजे की शादी होने वाली थी। बहू को सोने का कुछ तो गिफ्ट देना बनता ही था। बच्चों की फ़ीस और किताबें खरीदने के लिए भी जूझना था। एलआईसी की पौलिसी और अपनी पीएचडी की फ़ीस भी जमा करनी थी। खुद्दार और कर्त्तव्यनिष्ठ मनीष काफी परेशान था। पत्नी की अचानक खराब हुई‌ तबियत पर हजारों रुपए पानी की तरह बह चुका था। लेकिन सब उसे अकेले ही मैनेज करना था। अपनी समस्याएं दूसरों के साथ शेयर करने में मनीष काफी असहज महसूस करता था।

काम के प्रति वफ़ादार मनीष अपने कार्यस्थल में भी बेहद संवेदनशील और सीधी बात कहने वालों में से था। अपने पारिवारिक दायित्वों को उसने कभी भी कार्य संबंधी जिम्मेदारियों के बीच नहीं आने दिया था। लेकिन मनीष का यह व्यवहार भी कुछ लोगों को बहुत खटकता था। उसके प्रति साजिशें करने वालों की संख्या भी कम न थी। लेकिन इन सबसे जूझते हुए आगे बढ़ना मनीष की मानो आदत बन गई थी।

उस दिन मनीष काफी दुखी था। कुछ अकर्मण्य चापलूसों ने उस पर लापरवाही का आरोप लगाकर उच्च अधिकारियों के अच्छे से कान भर दिए थे। मनीष ने जब अपना पक्ष रखा तो पूर्वाग्रह से ग्रस्त होने के कारण उच्च अधिकारियों ने सही होने पर भी उसके खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई की संस्तुति कर दी। मनीष पहली बार स्वयं को असहाय महसूस कर रहा था। लापरवाही का यह गलत आरोप उसे अंदर ही अंदर कचोट रहा था। उसने फैसला कर लिया कि सच के लिए आखिरी सा तक लडूंगा भले ही कितना भी आर्थिक नुकसान क्यों न उठाना पड़े।

जैसे ही घर पहुंचा तो बच्चों ने बताया कि मम्मी की तबियत काफी खराब हो गई है। मामा जी अस्पताल लेकर गए हैं। वह फौरन बैग रखकर अस्पताल जा पहुंचा। पत्नी अस्पताल के बेड पर लेटी कराह रही थी। मनीष का सारा गुस्सा मानो हवा हो गया। अचानक से सारी जिम्मेदारियाँ मानो उसके सामने आकर खड़ी हो गईं हों और कह रही हों कि इस दुनिया में सीधे सादे इंसान केवल शोषित होने के लिए ही पैदा होते हैं। हर कदम पर अपना आत्म सम्मान बेचकर घर और परिवार के लिए जीना ही तुम्हारी नियति है। इससे अधिक सोचोगे तो घर परिवार और समाज कहीं के नहीं रहोगे। अगले दिन मनीष बैग लिए पुनः कार्यालय जा पहुंचा। किंतु अब न काम में वो पहले वाली बात थी और न ही घर त्यागकर घंटों ओवर टाइम करने की ललक। अगर कुछ शेष था तो वह था पारिवारिक दायित्वों के निर्वहन हेतु जिम्मेदारी का एहसास जिसमें जलकर बाकी सब स्वाहा हो चुका था। शरीर अवश्य जिंदा था किन्तु शायद मनीष की आत्मा मर चुकी थी।


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