ललिया भौजी
ललिया भौजी
आज बहुतै याद आ रही है वो ऊंचे-ऊंचे चबूतरो वाली ड्योढ़ी, मेहराबदार दरवाजों में जड़े भारी-भरकम आबनूसी पल्ले और उन पर जड़े हुए पांच पत्ती वाले फूल, फूलों के बीच से लटकते, पीतल के चमचमाते गोल कुंडे और याद आ रही है पिछवाड़े पर की वह घनेरी निंबिया जिसकी कुछ डालें हमारी अटरिया पर झुक आईं थीं। ये डालें कुछ इस तरह झुकीं थीं कि उनके और अटरिया की चाहरदीवारी के बीच ऐसी जगह बन गई थी कि वहां खड़ा व्यक्ति जल्दी से न इस तरफ से नजर आता था न उस तरफ से और इसी महफूज से कोटर में अचानक टकरा गई थी मुझसे ललिया भौजी उस जेठ की चिलचिलाती दोपहरी में। उस पल से पहले भौजी हमारे लिए अधिकतर हरे रंग की धोती में लिपटी, ठोढ़ी तक घूंघट काढ़े, कभी बखरी के कोने में बने चूल्हे पर झुकी रोटियां थोपती या फिर ललिया बहू-ललिया बहू की आवाजों पर इस दालान से उस दालान भागती एक परछाई भर थीं।
. बड़ी ड्योढ़ी के ऊंचे फाटक के पीछे, खुली बखरी के चारों ओर दालानों और दालानों के पीछे के कमरों कोठरियों में दादी, बड़ी दादी, चाची दादी, ताइयों, चाचियों का एक भरा-पूरा संसार था जिसमें भौजी बस एक थी, ललिया भौजी। उस बड़े से कुनबे में हमारे पिता जी पहले व्यक्ति थे शहर जा नौकरी करने वाले। हम लोग साल में एक बार गर्मियों की छुट्टी में ही गांव आते थे। हमारे बाबा बच्चों की एक मासिक पत्रिका मनमोहन डाक से मंगवाते थे और उसकी हर प्रति आते ही अटरिया में बने इकलौते छोटे से कमरे में रखे लकड़ी के संदूक में ताला लगा बंद कर देते थे।हमारे गांव आते ही वे हमें चाभी पकड़ा देते और फिर हर दोपहर जब घर के बाकी बच्चे खा पी कर नीचे किसी दालान के ठंडे कोने में लुढ़क कर सो जाते हम दबे पांव ऊपर आ जाते और फिर छत के सन्नाटे में जाग उठता कहानियों का संसार। हम कमरे में पड़े एक छोटे से खटोले पर लेट कर ही पढ़ते थे कहानियां पर उस दिन पता नहीं क्या हुआ कि हम अपनी किताब लिए निंबिया के नीचे आ गए.और घुसते ही ठिठक कर खड़े रह गए। हरी हरी नीम की पत्तियों के बीच दीवार से चिपकी ललिया भौजी की छरहरी देह भी जैसे एक लचकती डार। भौजी की पीठ थी मेरी तरफ और वे उचक कर दीवार के पार कुछ देख रहीं थीं.
भौजी को भी हमारे आने की कुछ आहट लग गई थी शायद तभी वो हड़बड़ा कर पलटीं और हमारा मुंह खुला का खुला रह गया। ये भौजी तो एकदमे हमारी कहानियों की राजकुमारी.
हाय भौजी आप कित्ती सुंदर हो....मेरे मुंह से अस्फुट से शब्द निकले
अरे ,काहे की सुंदर, बिट्टी...भौजी भी जैसे मुंह ही मुंह में बोलीं
भौजी को आँख भर पूरी तरह से हमने पहली ही बार देखा था। हमने क्या शायद किसी ने भी भाभी का चेहरा पूरी तरह देखा होगा इसमें हमें संदेह था। दहिनी दालान की बड़की ताई यानि कि ललिया भौजी की सास की गिद्ध दृष्टि जैसे हर समय भौजी की तरफ लगी रहती थी। उनका घूंघट आधे पोर भर भी इधर- उधर हुआ नहीं कि दुनाली से निकलती गोलियों की तरह कलेजा चीरने वाली न जाने कौन कौन सी बातें उनके मुंह से धाराप्रवाह निकलनी शुरू हो जाती थी।ऐसा नहीं था कि परिवार की और महिलाओं को ताई का भौजी के प्रति यह कठोर और अन्यायपूर्ण व्यवहार अखरता नहीं था लेकिन एक तो भौजी ठहरी उनकी अपनी बहू और फिर ताई की जबान। पूरे घर में किसी की हिम्मत नहीं थी उनसे मोर्चा लेने की.
सच कहें तो इन सब बातों पर उस दिन के पहले हमने इतना कुछ ध्यान भी नहीं दिया था। एक तो हम लोग कभी कभार ही आते थे गांव दूसरे खाने नहाने के अलावा हमारा अधिकतर समय छत के कमरे में कहानी की किताबों का साथ ही बीतता था लेकिन उस दिन भौजी को छत पर देख लगा जैसे किसी पत्रिका के अंक में किसी कहानी का बीच का भाग हाथ लग गया हो और उसके पहले भाग तक पहुंचने को मन बेचैन होने लगा था।
बाल सुखाने आए थे यहां. आज सिर धोया था.........अटक अटक बोली थी भौजी।अब मेरा ध्यान भौजी के बालों की ओर गया और न जाने क्यों एक विचार कौंधा मन में, भौजी जैसे ऊंचे बुर्ज में दुष्ट राक्षस की कैद में तड़पती राजकुमारी हो जो पिछवाड़े के खेतों के पार दूर पगडंडी पर घोड़े पर सवार किसी राजकुंवर की बाट जोह रहीं थीं और उसके आते ही भौजी अपने घुटनों से नीचे तक लहराते बाल छत की दीवार के पार लटका देतीं।
वैसे सच कहें तो हमारी ललिया भौजी भरे-पूरे घर में भी कहानी की राजकुमारी सी ही अकेली थी, नितांत अकेली,अव्वल तो उनके घूंघट की दीवार भेद उनकी आंखों में झांकने का मौका शायद ही कभी मिलता हो किसी को और अगर मिला भी तो सामने वाला बहुत देर देख ही नहीं सकता था....इस कदर सूनी और भावहीन आंखे...उफ...जैसे इंतजार में बिलकुल ही पथरा गई हों.
ललिया भौजी का बड़के भैया से ब्याह ताऊ जी की जिद से हुआ था। सुनते हैं ताई ने इस विवाह का बहुत विरोध किया था पर पता नहीं क्यों ताई की हर गलत, सही बात को चुपचाप मान लेने वाले ताऊ जी इस बात पर अड़ गए थे। ताऊ की इस जिद ने ताई के भीतर की असुरक्षा को बेइंतहा हिंश्र कर दिया था। दरअसल हमारे ताऊ जी थे लम्बे चौड़े, गोरे चिट्टे सुदर्शन व्यक्तित्व के मालिक और स्वभाव से भी विनम्र और मधुर। धनाढ्य परिवार की, चार भाईयों के बीच इकलौती बहन हमारी ताई से उनका विवाह किसी पारिवारिक आपदा को टालने के लिए हुए समझौते के तहत हुआ था।वरना बेडौल शरीर और रूखे चेहरे वाली हमारी ताई ने तो ऐसे सुदर्शन वर की कल्पना भी न की होग। .यद्दपि ताऊ जी ने ताई से अपना रिश्ता पूरी ईमानदारी से निभाया,न कभी उनकी अवहेलना की और न ही कोई ताना दिया पर फिर भी ताई के मन में शायद कभी यह विश्वास जम ही नहीं पाया कि ताऊ ने उन्हें सचमुच मन से स्वीकारा है बल्कि ताऊ का उन्हें जरूरत से ज्यादा मान देना, उनकी हर बात पर चुपचाप सहमति दे देना शायद उनके भीतर की असुरक्षा और चिड़चिड़ाहट को पर्त दर पर्त और भी बढ़ाता ही चला गया और फिर पैदा हुए हमारे बड़के भैया। भैया दुबले पतले,छोटे कद के बहुत ही कम बोलने वाले थे। भैया के होने के बाद से ताई की निराशा और मन की कड़ुवाहट जैसे जबान की नोक पर आ कर बैठ गई। बाकी सबसे धीरे धीरे दूर होती ताई भैया के ही चारों ओर सिमटती चली गई और अनजाने ही भैया के लिए भी ताई की हर बात जैसे ब्रह्म वाक्य बनती गई। और फिर आई भौजी,ताऊ की उन्हें घर लाने की जिद और भौजी का अतुलित सौन्दर्य़ वैसे ही ताई के कलेजे में फांस सी गड़ रहे थे, रही-सही कसर पूरी कर दी मुंह दिखाई में आई गांव जुवार की औरतों की दबी जुबान में की गई बातों और फुसफुसाहटों ने।
सात साल की ब्याहाता जिंदगी में तरस गई भौजी किसी से जी भर बात करने को,किसी के पास दो पल फुरसत से बैठने को.और तरस गई थी भौजी अपने गरीब अकेले बाप की शक्ल भी देखने को। पता नहीं कौन सी कसम दी थी ताई ने बड़के भैया को, या क्या समझाया था कि उन सात सालों में एक बार भी उन्होंने न तो भौजी की कुठरिया की देहरी लांघी न ही उनका घूघंच पलटा। ताई को समझाने की किसी की भी कोशिश उनके मन की आग को और भड़का जाती थी और बिचारी भौजी की लानतों मलालतों का सिलसिला और आक्रामक हो उठता था।ताऊ जी का हर प्रयास और बबर्र बना जाता था उन्हें। बड़के भैया से बात करने पर बस एक चुप से ही सामना होता था। कुछ नहीं बोलते थे वे, बस मुंह झुकाए बैठे रहते थे।
और फिर एक दिन भौजी के भीतर का सन्नाटा उन्हें लील ही गया। अन्दर ही अन्दर घुन से खोखले हो गए पेड़ सी जो गिरी बखरी में उस दिन तो फिर नहीं उठी।
बीच बखरी में लेटी थी भौजी गोटा किनारी लगी लाल साड़ी में लिपटी. गोरे गोरे मुलायम पांवों में कैसा खिल रहा था चमकता लाल-बैंगनी महावर। मोटी मोटी पायल, हर अंगुली में बिछिया, कोहनी तक लाल चूड़ियां। सोलह सिंगार किया गया था भौजी का आखिर सुहागिन विदा हो रही थी संसार से। पूरा आंगन भरा था गांव भर की औरतों से। हर कोई सुबक रहा था....शायद उस अभागिन की तकदीर पर. बस सूखी थी तो कोने में अभी भी खटोले पर बुत सी बैठी ताई की आंखें। पता नहीं कैसी अजब सी चमक थी उनकी आंखों में।
हाथ में सिंदूर की डिबिया लिए हुए छोटी चाची झुकीं भौजी पर दूसरे हाथ से उनका घूंघट उठाने कि किसी ने पीछे से उनका हाथ रोक लिया।पता नहीं कब कैसे बेआवाज बड़के भैया वहां तक आ गए थे। चाची की अचरज भरी आंखें भैया के चेहरे पर जमी रह गईं। सारी सुबकियां, सिसकियां ऐसे शांत हो गईं जैसे किसी ने जादू की छड़ी घुमा सबको मंत्रबद्ध कर दिया हो। कोने में बैठी ताई के शरीर में हलचल हुई पर तब तक भैया चाची को धीरे से पीछे कर चुके थे और उनके हाथों से सिंदूर की डिब्बी ले ली थी। भौजी के सिहराने बैठ भैया ने आहिस्ता से उनका सिर अपने पैरों पर रखा। एक बार आखें उठा नजर भर ताई को देखा और भौजी का घूंघट उठा दिया और ढेर सिंदूर से भौजी की मांग पूर दी। माथे से पीछे चोटी तक.हमें लगा जैसे भौजी हौले से मुस्कुरा दीं हों न जाने कौन सी माटी से गूंधा था ऊपर वाले ने कि प्राण निकलने के बाद भी उनका चेहरा दम-दम दमक रहा था। ब्याह कर ड्योढ़ी लांघ इस बखरी में जिस दिन आईं थीं भौजी उस दिन देखा था सबने उनका चेहरा घूंघट की ओट से लजाया, शरमाया चेहरा और आज जब पहली बार ड्योढ़ी के बाहर जाने की तैयारी में हैं वे तो सब कुछ और नजदीक सिमट आए उन्हें नजर भर देखने। कैसा तो एक अनोखा सा तेज था उनके चेहरे पर। क्या इतनी वेदनाओं को चुपचाप पीती शिव हो गई थी भौजी या फिर उनकी आत्मा ने भैया के मौन को बांच लिया था? मंडप के नीचे की उस सिंदूरी रेख को जैसे भैया ने आज की भौजी की मांग से ला मिलाया था और खचाखच भरी बखरी में स्वीकार लिया था कि इन सात सालों में हर पल भौजी उनके भीतर थीं.
शमशान भूमि से लौट भैया फिर कभी घर नहीं आए . रोते बिलखते भौजी के पिता को सहारे दिए वहीं से उनके साथ ही चले गए थे और फिर पलट कर कभी भी न अपनी ड्योढ़ी की ओर देखा और न ही ताई की ओर। पता नहीं वे प्रायश्चित कर रहे थे या सजा दे रहे थे खुद को भी और ताई को भी। भौजी के जाते ही जैसे भैया और ताई के बीच भी सब खत्म हो गया था।
ताऊ जी ने तो ड्योढ़ी के भीतर कदम रखना बहुत पहले ही छोड़ दिया था। एक एक कर धीरे धीरे लगभग सभी चले गए।किसी को रोजी रोटी दूर खींच ले गई देहरी से, कोई पढंने के लिए बाहर चला गया और कुछ का ऊपर से बुलावा आ गया। उस ढहती ड्योढ़ी की उजाड़ बखरी में अब भी गूंजती है ताई की बड़बड़हाट.....ऐ ललिया, ललिया करमजली एक गिलास पानी लाने गई रहै कि अपने पुरखे तारन........सब कहते हैं जब तक ताई जिंदा है ललिया भौजी को मरने भी नहीं देगीं.