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भावुक मूर्ख

भावुक मूर्ख

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विजय ने उस छोटे से बक्से का ताला खोला जिसमें वह हर महीने कुछ पैसे जमा करता था।

उसने गिनती की पूरे बीस हज़ार रुपए थे।

विजय ने सोचा, इससे सुभाष की कुछ सहायता हो जाएगी। सुभाष सदा बिना सोच-विचार के दूसरों की सहायता को तैयार हो जाता था। उसकी बेटी नीलिमा की इंजीनियरिंग की फीस भरने में भी उसने सहायता की थी किंतु आज वह स्वयं दूसरों से पैसे माँगने को विवश था।

विजय पैसे रखने के लिए लिफाफा लेने के लिए उठा। पैसों को लिफाफे में रखते हुए कुछ सोच कर रुक गया। उसने आधे पैसे गिन कर दोबारा बक्से में रख दिए। बाकी बचे दस हज़ार लिफाफे में रखने लगा किंतु अंत में उसमें से भी आधे पैसे दोबारा बक्से में डाल कर ताला लगा दिया। पाँच हज़ार लेकर वह सुभाष के पास चल दिया।


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