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हिम स्पर्श 53

हिम स्पर्श 53

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“जीत, मेरे चित्र को देखो तो। देखो, मैंने आज कुछ नया किया है।“ वफ़ाई उत्साह से भरी थी। जीत वफ़ाई के केनवास को देखने लगा। वफ़ाई झूले पर बैठ गई।

जीत ने केनवास को ध्यान से देखा। केनवास खाली था, श्वेत था। उस पर किसी भी रंग का एक भी बिन्दु नहीं था। वह सूरज के किरणों की भांति श्वेत था, गगन की भांति खाली था।

जीत ने पुन: केनवास को देखा यह निश्चित करने के लिए कि कहीं कुछ छूट तो नहीं गया।

“नहीं, कुछ भी नहीं है यहाँ। केनवास पर एक रेखा भी नहीं है। एक बिन्दु तक नहीं है।“ जीत स्वत: बोला।

“वफ़ाई, क्या है ? यहाँ तो कुछ भी नहीं है।“ जीत ने प्रश्न भरी दृष्टि वफ़ाई पर स्थिर कर दी।

“यह कैसे संभव हो सकता है ? कुछ तो है वहाँ। अनेक चित्र है वहाँ। केनवास पर सब कुछ है। तुम ध्यान से देखो, पुन: देखो, जीत।“

जीत ने वफ़ाई के कहने पर पुन: केनवास को देखा। कहानी वही थी।

“मैंने पुष्टि कर ली है। वहाँ कुछ भी नहीं है। केनवास पूर्ण रूप से कोरा है, खाली है। यहाँ आकर देख लो अथवा मुझे केनवास पर चित्र दिखा दो।“

“देखो, वहीं है।“

“तुम मेरा उपहास कर रही हो ? झूले से उठो, यहाँ आओ और मुझे तुम्हारा कला से भरा कार्य दिखाओ। तुम्हारे विशेष चित्र को दिखाओ।“ जीत चित्राधार के एक बाजू खड़ा हो गया। वफ़ाई केनवास के समीप आ गई।

“दिखाओ मुझे, केनवास पर कुछ है क्या ? कहाँ है तुम्हारा चित्र ?” जीत अधीर हो गया।

“हे भगवान।“ वफ़ाई बोल पड़ी,”मेरा कार्य कहाँ गया ? जीत, कहीं तुमने मेरा केनवास बदल तो नहीं दिया ?”

“नहीं, मैंने ऐसा नहीं किया। मुझे लगता है तुम मेरे साथ कोई...।“

“मेरा विश्वास करो, जीत। मैंने कुछ चित्र रचा था किन्तु अभी वह दिख नहीं रहा। मुझे लगता है कि वह अदृश्य हो गया है।“ वफ़ाई ने गंभीरता से कहा।

“ठीक है, मैं मान लेता हूँ कि तुमने कुछ चित्र रचा था। कहो, तुमने किसका चित्र बनाया था ?”

“मैंने मेरे स्वप्न को चित्रित किया था।“

“तो कहाँ है वह ? मुझे दिखाओ।“

वफ़ाई ने गगन को, बादलों को तथा सूर्य को देखा। अपने हाथ हिलाते हुए कहने लगी,”हो सकता है पवन के साथ, इस बादलों के साथ, यह सूरज के साथ वह कहीं उड़ गया।“ जीत भी गगन को देखने लगा।

“उन बादलों को देखो। देख रहे हो ना तुम ?” वफ़ाई कहने लगी,”उस पर ध्यान दो। तुम्हें वहाँ मेरा स्वप्न दिखाई देगा। हाँ, वह वहीं है, वहीं, वहीं। देखो ना।“ वफ़ाई ने दूर गगन मे बादलों की तरफ हाथ खींच दिया।

“मुझे मूर्ख ना बनाओ, वफ़ाई।“

“मैं तुम्हें मूर्ख नहीं बना रही। मैं गंभीर हूँ। मैंने केनवास पर मेरे स्वप्न को रचाया था। मैं असत्य नहीं कह रही। मेरा विश्वास करो।”

“कोई अपने स्वप्न को कैसे चित्रित कर सकता है ? तुम असत्य कह रही हो।“ जीत के शब्दों में रोष था।

“जीत, स्वप्न के पंख होते हैं। है ना ?”

“तो ? क्या ?”

“जिसे भी पंख होते हैं वह उड़ जाते हैं। जैसे मेरा स्वप्न।“

“स्वप्न कभी श्वेत – श्याम नहीं होते। उसे रंग होते हैं। वह रंगीन होते हैं। जो भी केनवास पर रंगों से प्रकट होता है, वह केनवास पर अपना प्रभाव छोड़ जाता है। उसे केनवास पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। किन्तु तुम्हारे केनवास पर तुम्हारे स्वप्न की एक भी रेखा अथवा एक भी बिन्दु तक नहीं। केनवास पर तुमने कभी कोई स्वप्न नहीं चित्रित किया।” जीत रुक गया।

वफ़ाई हँसने लगी। वह हास्य मीठा था। वफ़ाई के हास्य से जीत सदैव पिघल जाता था, आज भी पिघल गया। वफ़ाई के साथ वह भी हँसने लगा।

वफ़ाई ने हँसना रोका और गंभीर होते हुए कहा,”यही तो। मैं अपने स्वप्न को चित्रित नहीं कर सकी।“ वफ़ाई ने नि:श्वास छोड़ा। निराशा उसकी आँखों में स्पष्ट उभर आई थी।

जीत उन आँखों को देखता रहा। उन आँखों में एक गहन समुद्र था जिस में जीत डूबता गया। उन आँखों में कुछ खो देने का भाव था। कुछ छूट जाने का भाव था जो उसके लिए अत्यंत अमूल्य था। उन आँखों की पीड़ा जीत अनुभव करने लगा।

“तुम क्यों तुम्हारे स्वप्न को चित्रित नहीं कर सकी ?”

वफ़ाई ने जीत की आँखों में देखते कहा, ”सूरज की प्रथम किरण के साथ मेरा स्वप्न उड़ गया। जैसे ही मैंने प्रभात में आँखें खोली, वह अदृश्य हो गए, सब चले गए। सब कुछ खाली हो गया। यही कारण था कि मैंने केनवास को खाली रखा था। खाली खाली स्वप्न, खाली खाली केनवास; सब कुछ खाली खाली।“ वफ़ाई अपनी खाली हथेलियों को देखने लगी। उस हथेली के खालीपन को जीत ने अनुभव किया।

जीत वफ़ाई को झूले तक ले गया, वफ़ाई झूले पर बैठी। जीत समीप खड़ा रहा, वफ़ाई को उसने पानी दिया। वफ़ाई धीरे धीरे स्वस्थ होने लगी। जीत शांत होकर प्रतीक्षा करने लगा।


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