चाय के साथ पकोड़े
चाय के साथ पकोड़े
अकेले रहने से माँ की तबियत सही नहीं रहती थी इसलिए माँ को अपने पास बुला लिया था । यहाँ बच्चों के साथ थोड़ा मन बहल जाएगा और मैं भी उनकी देख रेख कर सकूँगी। माँ के साथ बच्चे तो घुल मिल गए थे । जब वे घर पर होते माँ हंसती बोलतीं और उनके स्कूल जाने के बाद या फिर शाम में खेलने निकलने के बाद माँ फिर चुप चुप हो जाती थी। कुछ बात करने की कोशिश करो तो हाँ-हूँ में जवाब दे गुमसुम हो जाती थीं। समझ ही नहीं आता कि क्या करूँ ।
वैसे तो माँ को खाना बनाने का बड़ा शौक़ था और बाबूजी को खाने का, लेकिन बाबूजी के बाद तो माँ जैसे रसोई में जाना ही भूल गई थीं। मैंने सोचा क्यों ना इनका ये शौक़ फिर से जगाऊँ ताकि कुछ बदलाव आए ।
जब बच्चे स्कूल चले जाते तो मैं माँ से अलग अलग व्यंजन बनाना सीखती। कभी कभी फ़रमाइश भी करतीं कि आज माँ के हाथ का बना ये खाना है तो कभी वह। माँ शुरुआत में बेमन से खाना बनाती या सिखाती थीं । धीरे धीरे बदलाव आने लगा। अब स्वयं ही कहतीं कि आज बच्चों के पसंद के आलू के व्यंजन बनाती हूँ तो कभी मेरी पसंद के बेसन के व्यंजन बनती हूँ।
घर में इतने दिनों से क्या चल रहा है मेरे पति को पता नहीं था। शाम जब वह जल्दी घर आए तो मैं चाय बनाने को रसोई में जाने लगी तो माँ से कहा माँ आज चाय के साथ तुम्हारे हाथ के पालक के पकोड़े खाने हैं। ये सुनते ही पतिदेव की सीख शुरू हो गई ।कहते हैं कि तुम्हें कभी माँ के हाथ के पकोड़े खाने होते हैं तो कभी हलवा। कभी माँ को भी तो कुछ बना कर खिलाओ। क्यों ना आज तुम ही खिलाओ पालक के पकोड़े , माँ और मुझे। मैं और माँ हँस पड़े । माँ तो माँ होती है और माँ ने तो अब तक समझ ही लिया था कि मेरी मंशा क्या होती है ऐसा कहने के पीछे।माँ को बैठक में पतिदेव के साथ बिठा कर मैंने चाय संग पालक के पकोड़े बनाए और सभी को खिलया। पकोड़े की तारीफ़ों भी मिली और सुकून भी मिला।माँ में ज़िन्दगी के साथ चलने की चाह मेरे लिए किसी अनमोल मोती से कम ना था।