वक्त की मार
वक्त की मार
''लगता है इस बार बहुत सर्दी पड़ेगी बेटा !'' गोमती ने अपनी घास -फूँस की टूटी हुई झौंपडी की मरम्मत करते हुए अपने दस बर्षीय पुत्र गोरा से कहा जो अनमने मन से अपनी माँ की सहायता कर रहा था।
''हर बार ही तो ठंड पड़ती है। इस बार क्या कुछ नया होगा। आखिर माँ कब तक हम इसी झौंपडी में जिन्दगी गुजारेंगे ?''
''तुझे हो क्या गया है ? पगला गया है क्या ?''
''नहीं माँ देखो वो लोग कुछ काम भी नहीं करते फिर भी मजे से इतने बडे-बडे घरों में रहते हैं। तुम तो पूरे दिन काम करती हो फिर भी !''गोरा ने दूर गगनचुम्बी इमारतो की तरफ़ इशारा करते हुए कहा।
''इसलिये परेशान है मेरा लाल !'' गोमती ने गोरा को सीने से लगाकर प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।
''ऐसे सपने न देख बेटा। गरीब की जिन्दगी इस पेट में लगी भूँख की आग को बुझाने के जुगाड़ में ही निकल जाती है. उसके आगे कुछ नहीं !'' गोमती की आँखे भर आईं।
''माँ तुम रो रही हो ?''
''नहीं रे ! आज तूने सच से सामना करा दिया जिसको मैने कब का मार दिया था !''
''आगे से ऐसे नहीं कहूँगा !''
''खुद भी मत सोचना !'' गोमती ने बेटे की आँखों में देखते हुए कहा तो गोरा माँ से चिपट गया।
''अरे कहीं जलने जैसी गंध आ रही है !''
''माँ --माँ बापू को बाहर निकाल लो !'' दूसरा सात साल का बच्चा चिल्लाते हुए झौंपडी से बाहर आया ।
''क्या हुआ ?''
''डिबिया से आग लग गयी --!''
गोरा झटपट भीतर गया और कराहते हुए हड्डियों के ढाचे को बाहर खींच लाया। वह जर्जर व्यक्ति कोई और नहीं गोमती का पति और गोरा का पिता था जो टी.वी . का मरीज था और बस जीवन के आखिरी सफ़र पर अग्रसर था। देखते ही देखते उन तीनों के सपनो का महल आँखों के सामने सुहा हो गया। वक्त की मार !अब सिर्फ पेट की चिंता नहीं सिर ढकने की भी समस्या उत्पन्न हो चुकी थी। वक्त की मार भी बडी अजीब है।