बंधन
बंधन
सरल अपने कमरे में बैठा उपन्यास पढ़ रहा था जब रीमा ने चाय लेकर प्रवेश किया। रीमा को उसकी भावभंगिमा से लगा मानो उपन्यास वह सिर्फ समय बिताने के लिए लेकर बैठा है। राखी के दिन सूनी कलाई भला किसे अच्छी लगेगी...
"उदास हो" चाय का कप पकड़ाते हुए रीमा ने पूछा
"नहीं तो, तुम्हें ऐसा क्यों लगा?"
"राखी के दिन तुम्हारी सूनी कलाई देखकर... दीदी भी नहीं आई।"
दोनों अपने-अपने ख्यालों में गुम चुपचाप चाय पीने लगे। याद आ गए वो दिन जब इकलौते बेटे रवि के दिल के छेद के ऑपरेशन के लिए करीब बीस-पच्चीस हजार रुपयों की जरूरत थी। किसी ने साथ ना दिया।
करीबी रिश्तेदारों के नाम पर एक दीदी ही तो थी। वही दीदी जिसकी हर छोटी-बड़ी इच्छा के लिए सरल बचपन से अपनी खुशियाँ कुर्बान करता आया था। दीदी जब भी आती कोई नई फ़रमाइश कर जाती। यहाँ तक कि घर के लिए लाए हुए सामान, रीमा की साड़ी, पर्स, कंगन इत्यादि माँगने से भी ना झिझकती। सरल हर त्योहार पर खुद कुछ ना लेकर भी दीदी को अवश्य नए कपड़े, उपहार इत्यादि देता।
हर तरह से सक्षम होते हुए भी दीदी ने ना-नुकर करके बातों को गोल घुमाते हुए जीजाजी के प्रॉपर्टी के काम के मंदा होने, रुपया फसा होने इत्यादि तरह-तरह के बहाने किए पर ना साफ इंकार किया, ना मदद की।
रीमा ने ही अपने सारे गहने बेच कर और अपनी सहेली से पैसे माँग कर रुपयों की व्यवस्था की। उन्हीं दिनों राखी का त्योहार था। सरल बेटे को अकेला अस्पताल में छोड़कर कैसे जाता? दीदी खुद तो ना आई अपितु शहर से बाहर होने का बहाना बना दिया। बस फोन पर हाल पूछ कर फॉर्मेलिटी निभा दी। शायद समझ भी गई होगी सरल का हाथ तंग होगा तो क्या देगा।
कोई इतना खुदगर्ज कैसे हो सकता है कि सिर्फ खुद के बारे में सोचे। कुछ अनकही बातों से दिलों में फासले बन चुके थे। वही दीदी जो कभी नज़रों में बहुत आदरणीय थी आज नज़रों से गिर चुकी थी।
क्या हुआ जो आज सरल की कलाई सूनी थी, रीमा की कलाई पर भी तो बस काँच की चार चूड़ियाँ थी।
सरल ने भी निर्णय ले लिया था... रक्षा बंधन के बंधन से आज़ाद होकर सिर्फ अपनी और अपने परिवार की रक्षा का पक्का निश्चय कर लिया था।