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Sudha Adesh

Drama

4.0  

Sudha Adesh

Drama

जीने की नई राह

जीने की नई राह

13 mins
488



प्रियंका गिल कमरे में बेचैनी से चहलकदमी कर रही थी दिसंबर की कड़क सर्दी में भी माथे पर पसीने की बूंदें झलक रही थी आई थी अपनी बेचैनी कम करने के इरादे से गिलास में पैक बनाकर कमरे में पड़ी आराम कुर्सी पर बैठ गई …

राज जिसके घर जाने से ना तो वह स्वयं को रोक पाती थी ना ही वहां से आने के पश्चात सहज हो पातीं थीं। आज उसने जो देखा सुना, उसे महसूस कर वह आश्चर्यचकित थीं... क्या किसी रिश्ते में इतना माधुर्य, एक दूसरे के प्रति चिंता एवं समर्पण भी हो सकता है ? 

आज प्रियंका राज के घर बिना बताए चली गई थी। संयोग से दरवाजा खुला था। वह बिना घंटी बजाये ही अंदर चली गई। उसने देखा कि राज की पत्नी आरती उससे चाय पीने का आग्रह कर रही है, वहीं उसकी बड़ी बेटी शिखा उसके माथे पर बाम लगा रही है तथा छोटी बेटी शेफाली अपने नाजुक हाथों से उसके पैर दबा रही है।

उसे देखते ही राज उठ खड़ा हुआ तथा झेंपती हंसी के साथ बोला , 'जरा बुखार क्या हो गया, तीनों ने घर आसमान पर उठा लिया। चाय के नाम पर काढ़ा पीना पड़ रहा है।'

' देखिए न, तीन दिन से बुखार है... ऑफिस जाने के लिए मना किया था पर माने ही नहीं, न डॉक्टर को दिखाया... ऑफिस से भी अभी-अभी आए हैं  स्वास्थ्य की ओर बिल्कुल भी ध्यान नहीं देते हैं।' आरती ने राज की ओर देखते हुए शिकायती स्वर में कहा।

' जुकाम की वजह से थोड़ी हरारत हो गई थी। अब इतनी सी बात के लिए डॉक्टर के पास क्या जाना !!' राज ने सफाई देते हुए कहा।

सवाल जवाब में छुपे प्यार ने प्रियंका को झकझोर कर रख दिया था । जरा से जुकाम में पत्नी की पति के लिए इतनी चिंता... उसे सुखद एहसास दे गई थी। उसे याद आए वे दिन जब वह मलेरिया से पीड़ित हो गई थी। यद्यपि पूरा स्टाफ उसके स्वास्थ्य के बारे में चिंतित था... डॉक्टर घंटे- घंटे पर फोन कर उसका हाल लेते रहते थे पर उसमें यह अपनत्व और चिंता कहां थी। वह तो अपना अपना कर्तव्य निभा रहे थे। उसकी जगह यदि और कोई भी होता तो उसके साथ भी उनका यही व्यवहार होता। उनका व्यवहार उनकी कुर्सी के प्रति था ना कि उसके प्रति लगाव के कारण...।

आज उसका यदि स्थानांतरण हो भी जाए तो ऐसी स्थिति में इनमें से शायद ही कोई उसका हाल चाल पूछने आए। उसने नाम और शोहरत तो बहुत कमा ली थी पर दिल एकदम खाली था। इस पूरी दुनिया में अपना कहने लायक मां-बाप के बाद शायद ही कोई बचा था। अपने अहंकार और अहम के कारण वह स्वयं अपने परिवार से दूर होती चली गई थी।वैसे भी परिवार के नाम पर बस एक चाचा और एक बुआ ही तो थे।  जब भी वे आते उसे लगता कि उन्हें उससे कोई काम होगा , तभी आये हैं। धीरे-धीरे उनका आना बंद हो गया। पिछले दस वर्षों से वह उनसे मिली ही नहीं है।

 राज और आरती के नोंक-झोंक में आज उसे रिश्तों की गर्माहट का अहसास हो चला था। शायद यही कारण था कि मां -पापा दो अलग अलग व्यक्तित्व होते हुए भी सदा साथ -साथ रहे। कहीं ना कहीं उनके बीच प्यार का सेतु अवश्य रहा होगा जिसे पापा का उग्र स्वभाव भी नहीं तोड़ पाया अगर ऐसा नहीं होता तो क्या वह पूरी जिंदगी एक साथ बिता पाते। वही उनके दिलों में छिपे प्यार को पहचान नहीं पाई थी।

 प्रियंका को आज लग रहा था कि वह पापा की उम्मीदों पर अवश्य खरी उतरी थी पर मन का एक कोना इतना सब पाने के पश्चात भी सूना रह गया था। सीढ़ी दर सीढ़ी सफलता के सोपानों पर चढ़ती, वह स्वयं को आम औरतों से अलग समझने लगी थी जिसके कारण उसका रहन सहन और बात करने का तरीका भी अलग हो चला था। स्त्री सुलभ लज्जा का उसमें लेश मात्र भी अंश नहीं था। पर क्या वह मन के नारीत्व को मार पाई ?

 यह सच है कि पिता उसके आदर्श रहे थे। वह उन्हीं के समान स्वतंत्र और निर्भीक जीवन व्यतीत करना चाहती थी। वह माँ की तरह बंद दरवाजे के भीतर घुटन और अपमान भरी, चौके चूल्हे तक सीमित जिंदगी नहीं जीना चाहती थी। पर अब लगता है कि पापा ने न माँ के साथ न्याय किया और ना ही उसके साथ ...माँ के ज्यादा उनसे ज्यादा पढ़े होने के कारण वह सदा उन्हें नीचा दिखाते रहे। उनकी सही बात को भी वह अपने पुरूषोचित अहंकार के कारण सदा गलत साबित करते रहे। अपनी कमी को उसके द्वारा पूरी करने की धुन में उन्होंने उसके नारीत्व को तो भी रौंद डाला। बचपन से लड़कों के कपड़े पहनने के कारण उसका स्वभाव भी लड़कों जैसा ही बन गया था। 

पिताजी के उपदेशों का ही असर था कि जब भी माँ उसके विवाह की बात चलतीं, वह बिगड़ उठती ...। उसे लगता.. क्या वह किसी अनजान आदमी के साथ समझौता कर पायेगी ? क्या वह अपनी पूरी जिंदगी उसके बच्चों को बड़ा करने में बिता देगी ? उसके अपने कैरियर का क्या होगा ? वह विवाह करके अपने कैरियर को तहस-नहस नहीं करना चाहती थी। ना ही अपनी स्वतंत्रता में किसी का दखल चाहती थी। उसे लगता था कि बंधन हमेशा इंसान को कमजोर बनाते हैं। आखिर क्या कमी है उसे , अच्छा पद है, पैसा है , फिर क्यों किसी का आधिपत्य स्वीकारे ? ' एकला चलो रे 'का मूल मंत्र अपनाते हुए उसने स्वयं को विवाह रूपी बंधन से मुक्त रखने का निश्चय कर लिया था। 

अकेले पुरुष के कम से कम पुरुष मित्र तो बन जाते हैं पर अकेली औरत पुरुष मित्र तो क्या स्त्री मित्र भी नहीं बना पाती। खासतौर पर उसकी तरह ऊँचे पद पर बैठी थी स्त्रियां... स्वयं को श्रेष्ठ समझने के कारण वे आम स्त्रियों से मित्रता कर ही नहीं पातीं यदि किसी से मित्रता करना भी चाहतीं हैं तो उक्त स्त्री के अंदर पनपी ईर्ष्या या अपने पति को खोने का डर मित्रता पनपने ही नहीं देता।

आरती उसे इन सबसे अलग लगी। राज से उसे बातें करते देखकर ना तो उसके अंदर ईर्ष्या जागृत हुई और ना ही कभी मन में कोई कड़वाहट जगी। राज भी उससे सहजता से बातें करता था। कभी आफिस की तो कभी कॉलेज के दिनों की... वह भी सदा उन की हंसी मैं शामिल होती थी। शायद यही कारण था कि ऑफिस से आने के बाद, वह कभी बताये या कभी बिना बताए उसके घर पहुंच जाती... दोनों ही स्थितियों में उसका स्वागत होता। जब उसे पता चला कि आरती सी.ए है तो उसने उससे कैरियर के बारे में पूछा तब उसने कहा ,' दीदी , विवाह से पूर्व में एक प्राइवेट कंपनी में अकाउंट ऑफिसर थी लेकिन राज यहाँ और मैं वहाँ.. क्या फायदा ऐसी नौकरी से , जब अलग- अलग रहना पड़े !! इसलिए मैंने नौकरी छोड़ने का निर्णय ले लिया और आज मुझे अपने निर्णय पर कोई पछतावा नहीं है। अभी मेरे लिए अपने कैरियर से ज्यादा बच्चों की उचित देखभाल एवं परवरिश जरूरी है। लेकिन अभी भी आवश्यकता पड़ने पर या राज के बाहर रहने पर ऑफिस मैं ही संभालती हूँ... काम छोड़ा नहीं है। हाँ दायित्वों के कारण कुछ कमी अवश्य आई है।'

पति पत्नी के बीच प्यार , विश्वास और पारदर्शिता पर निर्भर है। राज ने आरती को न केवल अपने अतीत के बारे में सब कुछ बता दिया था वरन वर्तमान में भी उसके साथ पूरी तरह समर्पित था तभी उनमें ना कोई कुंठा थी और ना ही कोई डर।

 उसे वह दिन याद आया जब वह राज से मिली थी ...उसे इस शहर में आए कुछ ही दिन हुए थे कि उसे अपने सहयोगी पाठक के पुत्र के विवाह के स्वागत समारोह में जाना पड़ा। पार्टी पूरे जोश पर थी।  वर-वधू को आशीर्वाद देने के पश्चात खाना खा ही रही थी कि एक जोड़ा उसके सामने आकर खड़ा हो गया। वह कुछ सोच पाती, उससे पहले ही वह व्यक्ति अभिवादन करते हुए बोला,' क्या आपने मुझे पहचाना ? मैं आपका सहपाठी... राजसक्सेना।'

' ओह ! राज.. बहुत बदल गए हो... कैसे हो ? क्या कर रहे हो आजकल ? ' अचानक फ्लैश की तरह सब कुछ सामने आ गया था। राज उसका सहपाठी था। स्कूल से दोनों का साथ रहा था। उसकी इच्छा सिविल सेवा में जाने की थी वहीं राज सी.ए. करके अपनी एक अलग कंपनी खोलना चाहता था। उसे लगता था कि सिविल सेवाओं में आज योग्यता की नहीं वरन चापलूसी करने वाले व्यक्तियों की आवश्यकता है जो स्थितियों के अनुकूल गिरगिट की तरह रंग बदलते रहें जबकि वह सोचती थी अगर व्यक्ति में योग्यता है ,आंतरिक शक्ति है ,कुछ कर गुजरने की क्षमता है तो वह दूसरों से अपनी बात मनवा सकता है। कायर लोग ही दूसरों के सामने घुटने टेकते हैं।

मंजिलें अलग -अलग थीं अतः वे अलग हो गए ... फिर भी जब भी समय मिलता, वे अवश्य मिलते। अपनी खुशी, अपने गम एक दूसरे के साथ अवश्य बाँटते। अपनी मंजिल पाने के पश्चात राज ने अपने प्यार का इजहार करते हुए विवाह का पैगाम प्रियंका के पास भेजा था। उसके मन के किसी कोने में भी राज के लिए सॉफ्ट कॉर्नर था पर विवाह रूपी बंधन में बंधकर वह अपना कैरियर नष्ट नहीं करना चाहती थी। उसका तटस्थ सुहाग देखकर राज ने भी उसके द्वारा निर्मित लक्ष्मण रेखा को कभी पार करने की चेष्टा नहीं की थी और वह स्वयं भी सिविल सेवाओं की कोचिंग के लिए दिल्ली चली गई थी जिससे जिसके कारण उनका संपर्क भी टूट गया था।

' मैं तो ठीक हूँ, वही वैसा ही... पर आप वैसी नहीं रहीं ...।' राज ने उसी जिंदादिली से अपनी बात कही।

' मैं वैसी नहीं रही ...।'उसकी बात सुनकर अतीत से वर्तमान में आते हुए प्रियंका ने आश्चर्य से पूछा।

' मेरे कहने का तात्पर्य यह था की अब आप पहले वाली प्रियंका नहीं रही... अब तो मेरे लिए आप प्रियंका गिल हैं, एक जाने-माने हस्ती ...हमारे शहर की कमिश्नर ...।' एक बार फिर उसके स्वर में खुशी झलक आई थी।

उसकी बात सुनकर, प्रियंका के चेहरे पर अनायास ही मुस्कान आ गई। इतने दिनों में पहली बार उसे सहज और स्वाभाविक स्वर सुनने को मिला था वरना यस मैम , आपने बिल्कुल ठीक कहा ...जैसे शब्द ही उसे सुनने को मिलते थे। 

वह कुछ कहती, इससे पहले उसने एक स्त्री से उसे मिलवाते हुए कहा, ' इनसे मिलिये ...यह हैं मिसेज आरती सक्सेना, मेरी धर्मपत्नी ...।' प्यार से अपनी पत्नी की ओर देखते हुए राज ने कहा।

' इन्होंने आपको देखते ही पहचान लिया और मुझे आपसे मिलवाने ले आए।' आरती ने उसका अभिवादन करते हुए कहा।

 कहीं कोई ईर्ष्या या द्वेष  की भावना उसके स्वर या आंखों में नहीं झलकी जैसाकि आम औरतों की निगाहों में उसने देखा था , जब वह उनके पतियों से बातें कर रही होती थी। आरती उसे बेहद आकर्षक, समझदार एवं सुलझी हुई लगी।

 वह कुछ उत्तर दे पाती कि वह पुनः बोली, ' दीदी यदि आपको कोई आपत्ति ना हो तो कल का डिनर आप हमारे यहां करें। यह आपको लेने पहुंच जाएंगे।'

' लेकिन…' प्रियंका समझ नहीं पा रही थी कि वह उनका आतिथ्य स्वीकार करें या ना करें।

'लेकिन वेकिन कुछ नहीं दीदी... आपको आना ही होगा आखिर आप इनकी बेस्ट फ्रेंड रही है। ये जब तब आपका जिक्र करते रहते हैं और आज जब आप मिल ही गई हैं तो आपको हमारा आतिथ्य स्वीकार करना ही पड़ेगा।' आरती ने जोर देकर कहा।

' ठीक है।' उसने कह तो दिया था पर उसे लग रहा था कि इनको भी अन्य लोगों की तरह उससे कोई काम तो नहीं है वरना इस तरह आकर मिलना, खाने का आग्रह करना ...अनचाहे विचारों को झटक कर उसने सकारात्मक सोच अपनाई। 

माँ- पिताजी की मृत्यु के पश्चात पहली बार किसी ने उससे इतनी आत्मीयता से बातें की थीं वरना जो भी लोग मिलते थे लेकिन उनके व्यवहार में चापलूसी ज्यादा रहती थी। किसी से पारिवारिक मित्रता का तो प्रश्न ही नहीं था। वैसे भी उसने स्वयं को सदा रिजर्व रखा था जिससे कि उसका नाम व्यर्थ ना उछले। वैसे भी उसे अपनी ड्यूटी के अलावा इतना समय ही नहीं मिलता था कि वह इधर घर बैठे। जो समय बचता था उसमें वह क्लब में ब्रिज खेलती, ड्रिंक करती तथा देर रात तक लौट कर सो जाती थी। यही उसकी दिनचर्या थी।

राज का उससे इतने अपनत्व से मिलना तथा घर बुलाने के लिए आग्रह करना, वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या करें ? वह सोच ही रही थी कि नौकर ने राज के आने की सूचना दी। पता नहीं क्यों वह मना नहीं कर पाई तथा साथ चली गई। आरती उसका इंतजार कर रही थी। उसकी दोनों बेटियां भी गाड़ी रुकते ही तुरंत बाहर निकल आईं तथा अभिवादन करते हुए अपना- अपना परिचय दिया। सुरुचि घर के कोने कोने में झलक रही थी। 

खाना भी लज़ीज़ एवं जायकेदार था। उनका आतिथ्य भोगकर वह घर चली आई थी पर मन वहीं रह गया था। आज सब कुछ है उसके पास.. मान-सम्मान, नौकर चाकर ,गाड़ी, पैसा लेकिन घर नहीं है जहां कुछ पल बैठकर वह तनाव मुक्त हो सके। अपना सुख -दुख किसी से बांट सके।

यह वही राज था जिसने उससे अपने प्यार का इजहार करते हुए सदा साथ चलने की इच्छा जाहिर की थी पर उसने मना कर दिया था। वह उसका मित्र अवश्य था पर उसका ड्रीम मैन नहीं। वैसे भी उस समय उसे विवाह बंधन लगता था।

 पता नहीं क्यों राज के परिवार से उसे इतना लगाव हो गया था कि वह अक्सर उनके घर जाने लगी थी। वे भी उसके आने पर खुश होते। बाहर घूमना, खाना -पीना भी साथ-साथ होने लगा था पर आज की स्वस्थ तकरार ने उसके दिल में एक हूक पैदा कर दी थी...काश ! उसका भी ऐसा ही घर परिवार होता जिसमें एक दूसरे के प्रति इतना लगाव , इतनी चिंता होती। आज उसे अपना पद ही अपना दुश्मन लगने लगा था। वह अलग-थलग पड़ती जा रही थी। वी.आई.पी . का सम्मान तो उसे मिलता था पर दिल के इतना करीब कोई नहीं था जिसे अपना मित्र ,सखा या सहचर कह सके। प्रकृति के विरुद्ध जाने का साहस तो उसने कर लिया था पर आज वह सिर्फ प्रियंका गिल बनकर रह गई है। विभिन्न रिश्ते जिसमें बंधकर इंसान , अपनी जीवन की नैया की कठिन से कठिन घड़ियों को हंसते -हंसते पार कर लेता है वह उनसे दूर थी।

उसने अपनी मंजिल भले ही पाली हो पर जीवन की अकेली और रूहों को कैसे पार करेगी जो इस मंजिल के पूरे होने के बाद वृद्धावस्था में आएंगे सोचकर वह सिहर उठी।

आज प्रियंका को माँ बहुत याद आ रही थी जो उसके आचार -विचार ,लक्षण एवं विवाह के प्रति नकारात्मक रूप देखकर कहती,' तुम ऊँचा अवश्य उठो पर यह मत भूलो कि तुम एक स्त्री हो, नारीत्व से विमुख स्त्री कहीं की नहीं रहती... सच तो यह है कि नारी की शोभा माँ बनने में है। स्त्री चाहे कितनी भी ऊंची क्यों ना उठ जाए , मां बने बिना वह अधूरी ही है। 

आज उसे माँ के कहे शब्द अक्षरशः सत्य लग रहे थे। शिल्पी और शिखा की मासूमियत ने उसके अंदर के मातृत्व को जागृत कर दिया था। इस उम्र में विवाह .. .अब यह संभव नहीं है ...जिस स्वतंत्रता से वह आज तक रहती आई है उसमें बंदिश क्या वह सह पाएगी ? यह जिंदगी उसने अपने उसूलों पर चलकर बनाई है फिर अफसोस, दुख और निराशा क्यों ? सोचकर वह मन को समझाती पर दूसरे ही पल दूसरा विचार हावी हो जाता ...तो क्या पूरी जिंदगी उसे यूं ही अकेले तन्हाइयों में काटनी पड़ेगी ...। आखिर किसके लिए इतनी मेहनत कर रही है ? जिंदगी निरूद्देश्य नजर आने लगी थी... जब दिमाग में तरह-तरह के विचार हावी हो तो भला नींद कैसे आती ? ड्रायर से नींद की गोली निकाल कर खाई तथा सोने की कोशिश करने लगी..।

 दिन कट रहे थे पर फिर भी कभी-कभी मन बेहद उदास होता था। एक दिन अखबार पढ़ते -पढ़ते प्रियंका की निगाह एक लेख पर पड़ी... भारत में भी सिंगिंल पेरेंटिंग का प्रचलन बढ़ा है... अचानक उसे लगा कि उसके एकाकीपन का एक यही हल है , जिसमें ना तो उसे अपने स्व की तिलांजलि देनी होगी और ना ही अपने एकाधिकार पर किसी का आधिपत्य स्वीकार करना पड़ेगा। इससे उसे अकेलेपन से भी मुक्ति मिल जाएगी तथा कोई तो ऐसा होगा जिसे वह सिर्फ अपना कह सकेगी। सच है नकारात्मक विचार जहाँ निराशा का संचार करते हैं वही सकारात्मक विचार आशा का। आशा- निराशा , दुख -सुख तो जीवन में आयेंगे ही पर मनुष्य वही है जो इन सबके बीच भी सामान्य जिंदगी जीने की कोशिश करें। जीने के लिए एक सहज मार्ग तलाश ले।

इसी के साथ प्रियंका ने एक निश्चय कर लिया कि वह अनाथ आश्रम से बच्चा गोद लेकर अपने जीवन को नया आयाम देने का प्रयत्न करेगी। वह बच्चा न केवल उसके जीवन के अधूरेपन को दूर करेगा वरन बुढ़ापे में भी जीने का संबल बनेगा। उसकी मासूम हँसी में वह अपने दुख अपनी परेशानियां भूलकर नए दिन का प्रारंभ नवउमंग नवउत्साह के साथ किया करेगी। एकाएक ममत्व का सूखा स्रोत बह निकला। 

' एकला चलो रे ' का मूल मंत्र उसने अपने मन से निकाल फेंका। उसी दिन अनाथ आश्रम से बच्चा गोद लेने का निर्णय किया। इस कार्य को अंजाम देने के लिए उसके मुच् दिन बेहद व्यस्तता में गुजरे। आखिर वह दिन भी आ गया जिस दिन उसकी गोद मे नन्ही गुड़िया मुस्कराई। उस अनजान प्राणी को गोद में लेते ही उसके संपूर्ण व्यक्तित्व में पूर्णता का अहसास जग गया। उसकी मासूम मुस्कुराहट ने उसे जीवनदान दे दिया। मन का अवसाद कोसों दूर भाग गया था.. उसे जीने की राह मिल गई थी।


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