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वड़वानल - 68

वड़वानल - 68

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हालाँकि दिन समाप्त हो गया था मगर रात बैरन बनकर सामने खड़ी थी। हर जहाज़ पर और नाविक तल पर सैनिक इकट्ठे होकर चर्चा कर रहे थे। ‘तलवार’, ‘कैसल बैरक्स’ और ‘डॉकयार्ड’ के सामने के रास्ते पर टैंक्स घूम रहे थे। रास्ते से गुज़रते हुए टैंकों की आवाज़ सुनकर सैनिक कहते, ‘‘लाने दो उन्हें टैंक्स, दागने दो तोपें। हम लड़ते-लड़ते जान दे देंगे मगर आत्मसमर्पण नहीं करेंगे !’’

लाल–लाल सूरज आसमान पर आया और सारे आकाश में खूनी लाल रंग बिखर गया। प्रकृति ने मानो उस दिन की भविष्यवाणी कर दी थी। वातावरण की उमस के कारण पक्षी भी चहचहाने से डर रहे थे। समूचे वातावरण में तनाव था। रातभर के जागे हुए सैनिक खूनी आँखों से बाहर की परिस्थिति का जायज़ा ले रहे थे। ‘कैसल बैरेक्स’ और ‘फोर्ट बैरेक्स’ के सामने के रास्तों पर सैनिकों की संख्या बढ़ गई थी। अंग्रेज़ों ने यहाँ से हिन्दुस्तानी भूदल को हटाकर ब्रिटिश रेजिमेंट नियुक्त कर दी थी। ‘डॉकयार्ड’, ‘कैसल बैरेक्स’ और ‘फोर्ट बैरेक्स’ के सामने एक–एक टैंक खड़ा था। ज़रूरत पड़ने पर टैंक्स अन्दर घुसाने का निर्णय लिया था लॉकहर्ट ने। एक टैंक ‘तलवार’  के मेन गेट के सामने खड़ा था और चार टैंक्स ‘ बॅलार्ड पियर’ से ‘अपोलो बन्दर’ के भाग में दहशत फ़ैलाते हुए गश्त लगा रहे थे।

सुबह के समाचार–पत्रों में विभिन्न पक्षों द्वारा बन्द और हड़ताल से सम्बन्धित जारी किये गए आह्वान छपे थे। मगर राजकीय पक्षों के निवेदनों को लेशमात्र भी महत्त्व न देने वाले सरकार के चमचे अख़बारों ने सरदार पटेल के बन्द और हड़ताल विरोधी आह्वान को बड़े–बड़े अक्षरों में जैसे का तैसा छापा था।

मुम्बई के मज़दूर, विद्यार्थी और सर्वसाधारण नागरिक साम्राज्य के विरोध में नौसैनिकों के पक्ष में रास्ते पर आ गए थे। मगर वे यह नहीं समझ पा रहे थे कि सैनिकों की सहायता के लिए आख़िर करें तो क्या करें। कुछ कल्पनाशील युवकों ने रातभर जागकर तैयार किए गए पोस्टर्स जल्दी–जल्दी दीवारों पर चिपकाना शुरू कर दिया। काला घोड़ा और फाउंटेन तक का सारा परिसर

‘नौसैनिकों की माँगें मंज़ूर करो’;

 ‘नौसैनिकों पर हुई अमानवीय गोलीबारी की हम निन्दा करते हैं’;

 ‘नौसैनिकों, आगे बढ़ो, हम तुम्हारे साथ हैं।

‘गोलीबारी रोको’;

 ‘बातचीत के लिए - आगे आओ !’  इस तरह के रंग–बिरंगे पोस्टर्स से सज गया था। जमा हुई भीड़ नारे लगा रही थी।

‘‘सोचा नहीं था कि सुबह–सुबह ही इतनी भीड़ जमा हो जाएगी !’’ भीड़ में से किसी ने कहा।

‘‘क्यों, तुम्हें ऐसा क्यों लगा?’’  दूसरे ने पूछा।

‘‘सुबह के अख़बार में छपी सरदार पटेल की अपील नहीं पढ़ी?’’  पहले ने पूछा।

‘‘हालाँकि अपील बन्द और हड़ताल के विरोध में थी, फिर भी क्या जनता को सच मालूम नहीं है? लोगों ने पटेल की अपील को कचरे के डिब्बे में डाल दिया है।’’ तीसरा बोला।

‘‘पटेल के आदेश की परवाह न करते हुए मुम्बई की जनता हज़ारों की तादाद में, जान की परवाह न करके रास्ते पर उतर आई है। शायद ऐसा पहली बार हो रहा है कि जनता ने सरदार जैसे वरिष्ठ नेता के आदेश की अवहेलना की हो।’’  दूसरे ने कहा।

‘‘मगर ऐसा क्यों हुआ?’’ पहले ने पूछा।

‘‘पटेल की अपील पढ़ी? क्या उन्होंने ब्रिटिश सैनिकों द्वारा सैनिकों पर की गई फ़ायरिंग की ज़रा–सी भी निन्दा की है? वे कहते हैं, ‘कांग्रेस नौसैनिकों की दीर्घकालीन न्यायोचित शिकायतें सुलझाने का हर सम्भव तरीके से शान्तिपूर्ण प्रयत्न कर रही थी ’; मतलब क्या कर रही थी, इस बारे में कुछ भी नहीं कह रहे हैं,” दूसरे ने स्पष्ट किया।

सरदार पटेल ने अहिंसक मार्ग पर जाने वाले नौसैनिकों को बिना शर्त आत्म समर्पण करने के लिए कहा, यह बात लोगों को अच्छी नहीं लगी। सरदार के आदेश को ठुकराकर नागरिकों द्वारा बंद और हड़ताल में शामिल होने का मतलब है कि जनता कांग्रेसी नेतृत्व को और 1944 के बाद कांग्रेस द्वारा अपनाई गई समझौते की नीति को अस्वीकार करती है।

सुबह से ही फ़ॉब हाउस में गॉडफ़्रे का फ़ोन लगातार बज रहा था। विभिन्न भागों में बंद और हड़ताल को रोकने की तैयारी की रिपोर्ट्स के बारे में उसे सूचित किया जा रहा था और हर घण्टे बाद इन रिपोर्ट्स को संकलित करके दिल्ली हेडक्वार्टर को भेजा जा रहा था।

“मैं पुलिस कमिश्नर बटलर बोल रहा हूँ, सर।“ मुम्बई के पुलिस कमिश्नर ने ‘विश’ करते हुए कहा।

“बोलिए, कैसे हालात हैं?” गॉडफ़्रे ने पूछा।

“हालात वैसे बहुत अच्छे नहीं हैं। प्राप्त जानकारी के अनुसार कम्युनिस्ट कार्यकर्ता कल रात भर मज़दूर-बस्तियों में सभाएँ कर रहे थे। मिल मज़दूरों की ‘गेट-मीटिंग्ज़’ भी हुईं, परिणाम स्वरूप आज सुबह शहर की नौ कपड़ा मिलों को छोड़कर अन्य सभी कपड़ा मिलों के बंद होने की ख़बर है। इस समय जिन नौ मिलों में काम हो रहा है, वहाँ से भी मज़दूर कब बाहर निकल आएँगे इसका कोई भरोसा नहीं। BBCI और GIP रेल्वे के वर्कशॉप्स कुछ देर तक खुले थे, मगर घण्टे भर बाद वे भी बंद हो गए। शहर में कारख़ाने और दुकानें पूरी तरह बंद हैं और सभी कामकाज ठप हो गया है। यातायात कम हो गया है और लोग रास्तों पर इकट्ठा हो रहे हैं।”

यह रिपोर्ट लॉकहर्ट तक पहुँची और उसने गश्ती वाहनों की संख्या बढ़ा दी।मुम्बई के लोग सुबह-सुबह ही सड़कों पर आ गए थे।नौसैनिकों की मदद करने के लिए और अपना समर्थन दर्शाने के लिए वे ‘फ़ोर्ट’ परिसर में बड़ी संख्या में जमा हो गए थे। आज किनारे की परिस्थिति पूरी तरह बदल गई थी। किनारे पर आज हिंदुस्तानी सैनिक और पुलिस दिखाई नहीं दे रहे थे, उनका स्थान ब्रिटिश सैनिकों ने ले लिया था और इन सैनिकों ने संगीनों के ज़ोर पर नागरिकों को दूर रखा था।

‘फोर्ट’ परिसर में ब्रिटिश सैनिकों ने बेलगाम गोलियाँ बरसाना आरम्भ किया और प्रदर्शन करने वाली भीड़ बेकाबू होकर जो भी हाथ में पड़ता उस ब्रिटिश सैनिक को मारने लगती, जो सामने पड़े उसी वाहन को आग लगा देती। बेकाबू भीड़ ने ग्यारह छोटी–बड़ी गाड़ियाँ जला दीं। उस परिसर में घने काले धुएँ का एक परदा ही बन गया।

जहाज़ों के सैनिक आँखों पर दूरबीनें लगाकर किनारे पर क्या हो रहा है यह देख रहे थे। उन्होंने हज़ारों नागरिकों की भीड़ देखी, उन पर हो रही गोलियों की बौछार देखी और वे बेचैन हो गए।

‘‘ये नि:शस्त्र नागरिक हमारी ख़ातिर गोलियाँ झेल रहे हैं और हम यहाँ बैठे सिर्फ तमाशा देख रहे हैं। चलो, गन्स लोड करें।’’ सुजान ने सुझाव दिया ।

‘‘कुछ भी बकवास करके सैनिकों को मत भड़का। सेन्ट्रल कमेटी का आदेश याद है ना? अगर तुम पर हमला हो तभी शस्त्र उठाना !’’ सलीम ने उसे समझाने की कोशिश की।

‘‘अरे, वे हमारी खातिर खून की होली खेल रहे हैं और हम चुप बैठे रहें? मेरा दिल इस बात को नहीं मानता।’’ सुजान ने जवाब दिया।

‘‘हम किनारे पर चलते हैं, ’’ दयाल ने सुझाव दिया, ‘‘और गोरे सैनिकों के हाथों से बन्दूकें छीनकर नागरिकों की मदद करेंगे।’’

दयाल का सुझाव सुजान सहित दस–बारह लोगों ने मान लिया । किसी ने आगे जाकर मोटर बोट गैंगवे से लगा दी और सब बोट में बैठ गए। जहाज़ों पर नज़र रखने वाले ब्रिटिश सैनिकों की नज़र में यह बात आ गई और मोटर बोट उनकी परिधि में पहुँचते ही उन्होंने उस पर गोलियाँ बरसाना शुरू कर दिया।

बन्दूकों की गोलियों की उस दीवार को पार करके किनारे पर पहुँचना असम्भव था। अत: वे वापस लौट गए।

फ़िरोज़शाह रोड से गोरे सैनिकों से भरा हुआ एक ट्रक आ रहा था। गोरा ड्राइवर बेकाबू होकर ट्रक चला रहा था। रास्ते पर चल रहे लोगों की उसे परवाह ही नहीं थी। सामने से हाथों में तिरंगा लिये आ रहे तीस–चालीस लोगों का एक झुण्ड उसने देखा तो तैश में आ गया। झुण्ड के एक–दो लोगों से घिसटते हुए वह ट्रक निकल गया। ‘‘ऐ गोरे बन्दर, रास्ता क्या तेरे बाप का है?’’ झुण्ड में से कोई चिल्लाया। ड्राइवर ने खिड़की से मुँह बाहर निकालकर दो–चार गन्दी–गन्दी गालियाँ दीं ।

ड्राइवर की ट्रक से पकड़ छूट गई, फुटपाथ से गुज़रने वाले तीन लोगों को घायल करते हुए वह एक घर के कम्पाउंड से जा भिड़ा।

‘‘पकड़ो ! मारो साले को !’’ झुण्ड में से कोई चिल्लाया और वे सभी दौड़कर ट्रक के पास गए और उन्होंने ड्राइवर को नीचे खींचा। ट्रक में खड़े सैनिक सतर्क होकर बाहर कूदें इससे पहले ही उन पर लातों–मुक्कों की बौछार होने लगी।   लोगों ने उनकी बन्दूकें छीन लीं। कुछ साहसी नौजवानों ने तो उस ट्रक को आग ही लगा दी।

‘‘भगवन्त, देख भाई बाहर की चल रहा है, और हम यहाँ चुपचाप बैठे हैं,’’ प्यारेलाल बाहर हो रही गोलीबारी की आवाज़ सुनकर भगवन्त से बोला।

‘‘चलो जी, चलो, बाहर चलेंगे।’’ भगवन्त ने कहा।

‘‘बाहर कैसे जाएँगे जी?’’ प्यारेलाल ने पूछा।

‘‘दीवार लाँघ के।’’ भगवन्त ने जवाब दिया। और फिर सात–आठ सैनिकों का एक झुण्ड सिविल ड्रेस में दीवार फाँदकर नागरिकों से मिल गया और उनके मोर्चे का नेतृत्व करने लगा।

दोपहर के दो बजे तक ‘तलवार’ और ‘कैसेल बैरेक्स’ से चालीस सैनिक बाहर निकल गए।

‘‘कांग्रेस और लीग के नेता यह सोचते हैं कि चर्चाओं और परिषदों से आज़ादी मिल जाएगी, इसीलिए वे नौसैनिकों का साथ देने के लिए तैयार नहीं हैं।’’ पच्चीस वर्ष का एक युवक गिरगाँव की एक चाल के आँगन में एकत्रित हुए जनसमुदाय से कह रहा था।

‘‘स्वतन्त्रता के प्रश्न पर एक राय कायम न करते हुए, एक–दूसरे का गला दबाने के लिए तैयार नेताओं ने, आज़ादी की ख़ातिर अंग्रेज़ों का गिरेबान पकड़ने निकले जवान नौसैनिकों को ‘बेवकूफ, जवान, बचकानी क्रान्ति करने वाले, अकल से ज़ीरो’  कहा है। क्या हम इन सैनिकों का साथ नहीं देंगे? क्या आज़ादी के लिए लड़ने वाले इन सैनिकों को अकेला छोड़ दें? उसने एकत्रित समुदाय से पूछा और एक मुख से जवाब आया, ‘‘नहीं, वे अकेले नहीं हैं। हम उनके साथ हैं।’’ 

 ‘‘इन सैनिकों द्वारा पढ़ाया पाठ हम दोहराएँ और एक दिल से हिन्दुस्तान की आज़ादी के लिए लड़ें।’’ उसी नौजवान ने अपील की और नारे लगाए,  ‘‘भारत माता की जय ! वन्दे मातरम् !’’

रास्ते से जा रहे ब्रिटिश सैनिकों ने नारे सुने और भागते हुए मैदान में आकर फ़ायरिंग शुरू कर दी। जो भाग सकते थे वे आड़ में छिप गए, बाकी लोगों ने सीने पर गोलियाँ झेलीं। चिढ़े हुए सैनिकों ने छुपे हुए लोगों को खींच–खींचकर बाहर निकाला और गोलियाँ दागीं। इनमें छह–सात साल के बच्चे भी थे।

परेल की मजदूर चालों में कम्युनिस्ट कार्यकर्ता सभाएँ कर रहे थे, मजदूरों से अपील कर रहे थे, ‘‘नौसैनिक आज़ादी के लिए लड़ रहे हैं, अपना खून बहा रहे हैं। नौसैनिकों से हाथ मिलाकर हम इस विदेशी सरकार को ऐसा धक्का दें कि वह टूटकर गिर जाए। अंग्रेज़ों को हिन्दुस्तान छोड़कर भागना पड़ेगा। याद रखो, आज़ादी की कीमत है – आत्मबलिदान। हम यह कीमत चुकाएँगे और आज़ादी हासिल करेंगे।’’

सभाओं में आई हुई महिलाओं से वे कह रहे थे, ‘‘तुम बहादुर औरतें हों। इतिहास को याद करो: महारानी लक्ष्मीबाई तुममें से ही एक थीं। रशिया की औरतों ने हिटलर के टैंक्स का सामना किया था । इण्डोचाइना की महिलाओं ने गोरे सिपाहियों को भगा–भगाकर पस्त कर दिया था। चलो, हम भी इन अंग्रेज़ों को सबक सिखाएँ।’’

मजदूरों का ज़बर्दस्त समर्थन मिल रहा था। मज़दूर जुलूस लेकर रास्ते पर आ रहे थे। जोश से दीवाने हो रहे मज़दूर नारे लगा रहे थे, ‘नाविकों का विद्रोह जिन्दाबाद ! साम्राज्यवाद–मुर्दाबाद !’  ‘क्रान्ति - ज़िन्दाबाद !’ जैसे ही गोरे सैनिक आते रास्ता सुनसान हो जाता। सैनिक यदि किसी का पीछा करने लगते तो पड़ोस के घर से उन पर पत्थरों की बौछार होती।

फौज का प्रतिकार करने के लिए रास्तों पर रुकावटें डाली गई थीं। अफ़वाहों का बाज़ार गर्म था। कोई कह रहा था कि गोदी में भयानक विस्फोट होने वाला है, ‘फोर्ट’ परिसर में दो सौ लोग मर गए, एक हज़ार ज़ख्मी हो गए हैं...सभी सिर्फ ख़बरें ही थीं।

मज़दूर महिलाओं का एक मोर्चा तूफ़ान की तरह आगे बढ़ने लगा। नारे आकाश को छू रहे थे। तभी तेज़ी से आई फ़ौजी गाड़ी से गोरे सैनिकों ने गोलियाँ बरसाना आरम्भ कर दिया। औरतों में भगदड़ मच गई। एक डरावनी चीख सुनाई दी, पाँच–दस खिड़कियों के काँच फूट गए। कुछ औरतें झुण्ड बनाकर खड़ी हो गईं। कमल दोदे के सीने में और कुसुम रणदिवे की जंघा में गोली घुस गई थी। वहाँ खून का सैलाब देखकर कुछ औरतें खूब डर गईं। एक महिला ने कमल दोदे का सिर अपनी गोद में लिया, वे अन्तिम हिचकियाँ लेने लगीं और के.ई. एम. ले जाने से पहले ही उनकी जीवन ज्योति बुझ गई।


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