वो
वो
लेटी हुई कानों पर हेडफ़ोन चढ़ा हुआ !
निगाहें एकटक छत पर, लेकिन वहाँ हो के भी नहीं, कानों में कौन सा गाना चल रहा कुछ सुनाई नहीं दे रहा !
गर्मी की दोपहर पंखे की आवाज़, ए सी नहीं चलाया बंद कमरे से घुटन होती है, देख रही लगातार छत पर बनती बिगड़ती आकृतियों को, स्पस्ट नहीं हैं कुछ आवाज़ें वो भी एक दूसरे में उलझी हुई समझ नहीं आती और वो भावशून्य सी देखे जा रही !
"ऑन्टी ! दूध दे दूँ ?" अचानक तन्द्रा टूटती है, मना करती है फिर उसे पैरों में दर्द महसूस होता है याद आता है दवा लेना है बोल उठती है, "अच्छा ला दो लेकर दवा खा लुंगी सो जाऊँगी !"
सोने की कोशिश परन्तु असफल,सोचती है कुछ लिखूँ परंतु क्या ?
राजनीति पर ----?
नहीं, रोज़ टी वी न्यूज़ पेपर फेसबुक और हर माध्यम इसी से तो भरा रहता है इसका वर्तमान स्वरुप इतना विकृत हो गया है की पढ़ने में वितृष्णा होती है लिखूँ क्या ? कौन सी तीसमार खाँ हूँ की लोग पढ़ेंगे और सोचेंगे भी !
मौसम और प्रकृति पर ---?
नहीं, इसे भी तो हमारे स्वार्थ ने बर्बाद कर डाला बड़ी किस्मत से कहीं कहीं इसके सच्चे स्वरुप के दर्शन होते हैं !
फिर ---?
रिश्ते नाते, एक छलावा, कुछ तो जन्म से हम लेकर पैदा होते हैं, कुछ हम बनाते हैं, कुछ अनचाहे ही बन जाते हैं !
हम पूरी शिद्दत से चाहते हैं निभाते हैं उन रिश्तों को !
कुछ को नियति छीन लेती है, कुछ जानबूझकर मुँह मोड़ लेते हैं, कुछ साथ रहते हैं पर पास नहीं होते अपने होके परायों सा एहसास देते हैं !
वो (चलिए इस वो को एक नाम देते हैं "वशिता" )सोचती है क्या लिखना ऐसे रिश्तों के बारे में जिसमें कुछ भी निश्चित नहीं !
और हद तो तब है जब मीडिया और लोगों द्वारा पता चलता है अपने इसी समाज मे अपने ही सगे रिश्तों को शर्मसार और कलंकित करने वाले लोग भी पाए जाते हैं !
आगे क्या लिखूँ गीत, ग़ज़ल, कविता ----?
प्यार मोहब्बत के झूठे अफ़साने, झूठे ख्वाबों की दुनिया !
होते हैं कुछ सच्चे प्यार उन्हें उनका प्यार भी मिलता है परन्तु ये प्रतिशत बहुत कम है वरना आजकल तो प्यार भी सौदे बाज़ी ही है वरना ब्रेक अप, तेजाब फेंक देना जान ले लेना यही सब है त्याग और समझौते जैसी तो कोई बात ही नहीं !
ये सोचते-सोचते अचानक वशिता को अपना ख्याल आया मुझे तो हर रिश्ते से भरपूर प्यार और इज़्ज़त मिली, परन्तु एक रिश्ता जिसे जन्मों का रिश्ता कहते हैं उसकी आँखों में, बातों में या चेहरे पर मुझे प्यार जैसी चीज़ क्यों नहीं दिखी सारी जिंदगी मैं यही देखती रही जबकि पूरा जीवन उनकी इच्छा और आज्ञा से गुज़ारा हर ससुराल वालों का दिल जीता सब मुझे उनसे ज्यादा चाहते है मुझे, मैं बदशकल नहीं बदमिजाज़ नही बद्तमीज़ नहीं फिर क्यूँ ?
शायद ये सोचते हुए ही जीवन समाप्त हो जायेगा की मुझे प्यार नहीं मिला (सच्चा ) !
"हर किसी को नहीं मिलता यहाँ प्यार जिंदगी में,
खुश नसीब है वो जिसे मिली ये बहार जिंदगी में !"