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दि ग्रेट ट्रेवलर्स

दि ग्रेट ट्रेवलर्स

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जब मैं छह साल का था तब मुझे ये मालूम नहीं था कि धरती गोल होती है। मगर हमारे मकान मालिक के बेटे स्त्योपा ने, जिसके समर कॉटेज में हम रहने गए थे, मुझे समझाया कि धरती कैसी होती है। उसने कहा, “ धरती गोल होती है। और अगर हम सीधे-सीधे चलते जाएँ, तो हम पूरी धरती पार कर लेंगे, और फिर उसी जगह पर लौट आएँगे जहाँ से हम चले थे।”

और जब मैंने उसकी बात पर यकीन नहीं किया, तो स्त्योपा ने मेरे सिर पर झापड़ लगया और कहा, ““जल्दी ही मैं तेरे बदले तेरी बहन ल्योल्या के साथ दुनिया की सैर पर जाने वाला हूँ। बेवकूफ़ों के साथ सफ़र करने में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है।”

मगर मैं तो सफ़र करना चाहता था, और मैंने स्त्योपा को पेन्सिल छीलने वाला चाकू गिफ्ट में दे दिया। स्त्योप्का को मेरा चाकू पसन्द आ गया और वो मुझे दुनिया की सैर पर ले जाने के लिए तैयार हो गया।

स्त्योप्का ने अपने बाग़ में यात्रियों की मीटिंग बुलाई। और वहाँ उसने मुझसे और ल्योल्या से कहा, ““कल, जब तुम्हारे मम्मी-पापा शहर जाएँगे, और मेरी मम्मा नदी पर कपड़े धोने जाएगी, हम अपना काम करेंगे। हम बस सीधे-सीधे चलते रहेंगे, पहाड़ों और नदियों को पार करते हुए। और तब तक हम सीधे-सीधे चलते रहेंगे, जब तक यहाँ वापस नहीं लौट आते, चाहे इस काम में साल भर ही क्यों न लग जाए।”

ल्योल्या ने कहा, “और, स्त्येपोच्का, अगर हम रेड-इन्डियन्स से टकराए तो ?”

 “जहाँ तक रेड-इंडियन्स का सवाल है,” स्त्योपा ने जवाब दिया, “तो रेड-इंडियन जातियों को हम बन्दी बना लेंगे।”

 “और जो बन्दी नहीं होना चाहते ?” मैंने बड़ी झिझक से पूछा।

 “जो नहीं चाहते,” स्त्योपा ने जवाब दिया, “उन्हें हम भी बन्दी नहीं बनाएँगे।”

ल्योल्या ने कहा, “अपनी गुल्लक से मैं तीन रूबल्स ले लूँगी। मेरा ख़याल है कि इतने से हमारा काम चल जाएगा।”

स्त्योप्का ने कहा, ”तीन रूबल्स , बेशक, हमारे लिए बस होंगे, क्योंकि हमें पैसे तो सिर्फ सूरजमुखी के बीज और चॉकलेट्स खरीदने के लिए ही तो चाहिए होंगे। जहाँ तक खाने का सवाल है, तो हम रास्ते में छोटे-छोटे जानवरों की शिकार करते रहेंगे, और उनका नरम-नरम माँस हम अलाव जलाकर भून लिया करेंगे।”

स्त्योप्का गोदाम में भागा और वहाँ से आटे का एक बड़ा-सा खाली बोरा लाया। इस बोरे में हम वे चीज़ें इकट्ठा करने लगे जो लम्बी यात्रा के मुसाफ़िरों के लिए ज़रूरी होती हैं। हमने बोरे में ब्रेड और शकर और चर्बी का टुकड़ा रखा, फिर कुछ क्रॉकरी – प्लेटें, गिलास, काँटे और छुरियाँ रखे। फिर कुछ देर सोचने के बाद रंगीन पेन्सिलें, जादुई लैम्प, हाथ धोने के लिए चीनी मिट्टी का बेसिन और आग जलाने के लिए मैग्निफ़ाइंग ग्लास भी रख लिया। इसके अलावा, बोरे में दो कम्बल और एक लम्बा तकिया भी ठूँस दिए। इसके साथ ही मैंने तीन गुलेलें, बन्सी और बटरफ्लाय नेट भी बना ली उष्णकटिबन्धीय तितलियों को पकड़ने के लिए।

और दूसरे दिन जब हमारे मम्मी-पापा शहर चले गए, और स्त्योपा की मम्मा नदी पर कपड़े धोने चली गई, तो हमने अपना गाँव पेस्की छोड़ दिया। हम जंगल के रास्ते चल पड़े।

सबसे आगे भाग रहा था स्त्योपा का कुत्ता तूज़िक। उसके पीछे चल रहा था स्त्योपा सिर पर भारी-भरकम बोरा उठाए। स्त्योपा के पीछे चल रही थी ल्योल्या - अपनी कूदने की रस्सी लिए। और ल्योल्या के पीछे था मैं तीन गुलेलें, बटरफ्लाय-नेट और बन्सी लिए।

हम क़रीब एक घंटे तक चले।

आख़िर में स्त्योपा ने कहा, “बोरा तो शैतान जैसा भारी है। और मैं अकेला तो इसे नहीं उठाऊँगा। हममें से हर कोई बारी-बारी से इस बोरे को लेकर चलेगा।”

तब ल्योल्या ने बोरा लिया और कुछ दूर तक ले गई। मगर वह उसे देर तक नहीं उठा सकी, क्योंकि थक गई।

उसने बोरा ज़मीन पर फेंक दिया और बोली, “अब थोड़ी देर मीन्का उठाएगा।”

जब मुझ पर ये बोरा लाद दिया गया तो मैं अचरज से ‘आह-आह !’ करने लगा - इतने ग़ज़ब का भारी था वो बोरा।

मगर जब इस बोरे को लेकर मैं रास्ते पर चलने लगा तो मुझे और भी ज़्यादा अचरज हुआ। मैं ज़मीन पर झुका जा रहा था; और मैं, किसी पेंडुलम की तरह एक ओर से दूसरी ओर डोल रहा था, मगर मैं चलता रहा, जब तक कि क़रीब दस क़दम चलने के बाद मैं बोरे समेत एक गढ़े में न गिर पड़ा। फिर गढ़े में भी मैं बड़े अजीब तरीक़े से गिरा। पहले गढ़े में गिरा बोरा, और बोरे के पीछे-पीछे, सीधे इन चीज़ों पर, मैंने भी छलांग लगा दी। हालाँकि मैं हल्का-फुल्का था, फिर भी मैंने सारे गिलास, क़रीब-क़रीब सारी प्लेटें और चीनी मिट्टी का बेसिन फोड़ ही दिए।

ल्योल्या और स्त्योप्का मुझे इस तरह गढ़े में गिरते हुए देखकर हँसी के मारे मरे जा रहे थे। इसलिए ये जानकर भी, कि मैंने अपने गिरने से कितना नुक्सान कर दिया है, वे मुझ पर गुस्सा नहीं हुए।

स्त्योप्का ने कुत्ते की ओर देखकर सीटी बजाई और उसे इस बोझ को ले चलने के लिए तैयार करने लगा। मगर इससे कुछ भी नहीं हुआ, क्योंकि तूज़िक समझ ही नहीं पाया कि हम उससे क्या चाहते हैं। और हमें भी अच्छी तरह थोड़े ही न मालूम था कि उसे इस काम के लिए कैसे ट्रेनिंग देनी पड़ेगी।

हमें अपने ख़यालों में डूबा देखकर तूज़िक ने बोरे को कुतर दिया और एक ही पल में सारी चर्बी खा गया।                 

तब स्त्योप्का ने कहा कि हम सब मिलकर बोरे को ले चलेंगे। हमने बोरे के कोने पकड़े और उसे उठाकर चलने लगे। मगर इस तरह ले जाने में बहुत मुश्किल हो रही थी, वज़न भी ज़्यादा लग रहा था। फिर भी हम और दो घंटे चलते रहे। आख़िर में हम जंगल से निकल कर घास के मैदान में निकले। यहाँ स्त्योप्का ने हाल्ट करने की सोची। उसने कहा, “हर बार, जब हम आराम करेंगे या सोएँगे, मैं अपने पैर उस दिशा में फैलाकर सोऊँगा जिस ओर हमें जाना है। सारे महान ट्रेवलर्स ऐसा ही करते थे और इसी कारण वे अपने सीधे रास्ते से नहीं भटके।”

और स्त्योप्का अपने पैर आगे की ओर फ़ैलाकर रास्ते के पास बैठ गया।

हमने बोरा खोला और खाने लगे। हमने शकर बुरक कर ब्रेड खाई। अचानक हमारे ऊपर खूब सारी ततैया मंडराने लगीं। और उनमें से एक ने, शायद, मेरी शकर खाने के इरादे से मेरे गाल पर काट लिया। मेरा गाल फ़ौरन ऐसे फूल गया, जैसे समोसा हो। और मैं, स्त्योप्का की सलाह पर उस पर दलदल, गीली मिट्टी और पत्ते लगाने लगा।                     

आगे जाने से पहले स्त्योप्का ने बोरे में से क़रीब-क़रीब सब कुछ बाहर फेंक दिया, और अब हम काफ़ी हल्के-फ़ुल्के होकर चल रहे थे। मैं सबसे पीछे चल रहा था - कराहते हुए, कुड़बुड़ाते हुए। मेरा गाल जल रहा था और दर्द कर रहा था। ल्योल्या भी यात्रा से ख़ुश नहीं थी। वह आहें भर रही थी और यह कहते हुए कि घर पे भी अच्छा ही लगता है, घर वापस लौटने का सपना देख रही थी। मगर स्त्योप्का ने तो हमें इस बारे में सोचने से भी मना कर दिया था। उसने कहा, “अगर कोई घर वापस जाना चाहेगा, तो मैं उसे पेड़ से बांधकर चींटियों के खाने के लिए छोड़ दूँगा।”

हम बुरे मूड में ही चलते रहे। सिर्फ तूज़िक का मूड ही ठीक था। पूँछ उठाए हुए वो पंछियों के पीछे लपकता और अपने भौंकने से हमारी यात्रा में बेकार का शोर पैदा कर रहा था।

आख़िर में अंधेरा होने लगा। स्त्योप्का ने बोरा ज़मीन पर फेंका। हमने वहीं रात बिताने का फ़ैसला किया। हमने अलाव के लिए सूखी टहनियाँ इकट्ठा कीं। और स्त्योप्का ने बोरे में से मैग्निफाइंग ग्लास निकाला, जिससे अलाव जला सके। मगर आसमान में सूरज को न पाकर स्त्योप्का भी उदास हो गया। हम भी दु:खी हो गए। और, ब्रेड खाने के बाद, अंधेरे में ही लेट गए।

स्त्योप्का बड़ी शान से टाँगें सामने फ़ैलाए लेटा, ये कहते हुए कि सुबह हमें साफ़ पता चल जाएगा कि किस दिशा में जाना है।

स्त्योप्का फ़ौरन खर्राटे लेने लगा। तूज़िक की भी नाक बजने लगी। मगर मैं और ल्योल्या देर तक न सो सके। पेड़ों का शोर और काला जंगल हमें डरा रहा था। सिर के नीचे पड़ी सूखी टहनी को ल्योल्या साँप समझ बैठी और ख़ौफ़ से चीख़ी। और पेड़ से गिरे हुए फल ने मुझे इतना डरा दिया कि मैं गेंद की तरह ज़मीन से उछल पड़ा।

आख़िरकार हम ऊँघने लगे।

मेरी नींद इसलिए खुली कि ल्योल्या मेरे कंधे पकड़कर हिला रही थी। सुबह की पहली किरणें बस फूट ही रही थीं। सूरज अभी निकला नहीं था। ल्योल्या ने फुसफुसाते हुए मुझसे कहा, “मीन्का, जब तक स्त्योपा सो रहा है, चल इसकी टाँगें वापसी की दिशा में मोड़ देते हिं। वर्ना वो हमें वहाँ ले जाएगा जहाँ फ़रिश्ते भी नहीं जाते।”

हमने स्त्योपा की ओर देखा। वह चेहरे पर मीठी मुस्कान लिए सो रहा था। मैंने और ल्योल्या ने उसकी टाँगें पकड़ीं और एक ही पल में उन्हें उलटी दिशा में घुमा दिया, मतलब स्त्योपा का सिर आधा गोला बनाते हुए घूम गया। मगर इससे स्त्योपा की नींद नहीं टूटी। वह बस, नींद में कराहने लगा और हाथ चलाते हुए बड़बड़ाने लगा: “ऐ, यहाँ, मेरे पास।।।”।

 शायद उसे सपना आ रहा था कि उस पर रेड-इंडियन्स ने हमला कर दिया है और वह मदद के लिए हमें बुला रहा है।

हम इंतज़ार करने लगे कि स्त्योप्का कब उठता है।

वह उठा सूरज की पहली किरणों के साथ, और अपनी टाँगों की ओर देखकर बोला, “अगर मैं अपनी टाँगें चाहे जिधर करके सोता, तो हमें पता ही नहीं चलता कि आगे किस तरफ़ जाना है। मगर मेरी टाँगों की बदौलत हम सबको मालूम है कि उस तरफ़ जाना है।”

और स्त्योप्का ने उस रास्ते की ओर हाथ हिलाकर इशारा किया जिस पर हम कल चले थे।

हमने ब्रेड खाई और निकल पड़े। रास्ता जाना-पहचाना था। और स्त्योप्का बार-बार अचरज से मुँह खोल देता था। ऊपर से उसने कहा भी , “ ‘अराउण्ड दि वर्ल्ड’ यात्रा दूसरी यात्राओं से इस बात में अलग होती है कि हर चीज़ अपने आप को दुहराती है, क्योंकि धरती एक गोल है।”

 पीछे से पहियों की चरमराहट सुनाई दी। ये कोई चाचा था जो ख़ाली गाड़ी में जा रहा था।

स्त्योप्का ने कहा, “तेज़ी से सफ़र करने के लिए और जल्दी से धरती पार कर जाने के लिए इस गाड़ी में जाना बुरा नहीं होगा।”

हम उस चाचा को मनाने लगे कि हमें ले चले। भले चाचा ने गाड़ी रोकी और हमें उसमें बिठा लिया।


हम बड़ी तेज़ी से जा रहे थे। मुश्किल से घंटा भर गए होंगे। अचानक सामने दिखाई दिया हमारा गाँव पेस्की। स्त्योप्का ने अचरज से मुँह फाड़ा और कहने लगा, “ये देखो, ये गाँव , बिल्कुल हमारे गाँव पेस्का जैसा है। ‘अराउण्ड दि वर्ल्ड’ यात्रा करते समय ऐसा होता है।”

मगर स्त्योप्का को और भी ज़्यादा आश्चर्य हुआ, जब हम घाट की ओर आए। हम गाड़ी से बाहर निकले। कोई शक ही नहीं रहा – ये हमारा ही घाट था, और अभी अभी वहाँ स्टीमर पहुँचा था।

स्त्योप्का फुसफुसाया, “क्या हमने दुनिया का चक्कर पूरा कर लिया है ?”

ल्योल्या हँस पड़ी, और मैं भी हँसने लगा।

मगर तभी घाट पर हमने अपने मम्मी-पापा को, और हमारी नानी को देखा – वे अभी अभी स्टीमर से उतरे थे। उनकी बगल में हमने हमारी आया—माँ को भी देखा, जो रो-रोकर कुछ कह रही थी। हम मम्मी-पापा की ओर भागे। मम्मी-पापा हमें देखकर खुशी से मुस्कुराए।

आया-माँ ने कहा, “आह, बच्चों ! और मैंने सोचा कि तुम लोग कल डूब गए।”

ल्योल्या ने कहा, “अगर हम कल डूब गए होते, तो हम ‘अराउण्ड दि वर्ल्ड’ की यात्रा पर नहीं निकलते।”

मम्मा चीख़ पड़ी, “ये मैं क्या सुन रही हूँ ! इन्हें सज़ा देना चाहिए।”

पापा ने कहा, “अंत भला, तो सब भला।”

नानी ने एक टहनी तोड़ी और बोली, “ मैं कहती हूँ कि बच्चों की अच्छी पिटाई होनी चाहिए। मीन्का की पिटाई मम्मा करेगी। और ल्योल्या को मैं देख लूंगी।”

पापा ने कहा, “पिटाई तो बच्चों को सिखाने का पुराना तरीका है। और इससे कोई फ़ायदा भी नहीं होता। बच्चे, बेशक, बिना पिटाई के ही समझ गए हैं कि उन्होंने कैसी बेवकूफ़ी की है।”

मम्मा ने कहा, “मेरे बच्चे तो पागल हैं। ‘अराउण्ड दि वर्ल्ड ‘ सैर पर निकले बिना पहाड़े जाने और बगैर भूगोल जाने - ये क्या हरकत हुई !”

पापा ने कहा, “पहाड़े और भूगोल जानना तो बहुत कम है। दुनिया की सैर पर निकलने के लिए कम से कम पाँच विषयों में ऊँची शिक्षा प्राप्त करना ज़रूरी है। जो भी पढ़ाया जाता है, सब जानना चाहिए – कॉस्मोग्राफी समेत। और वे जो इस ज्ञान के बगैर ही दुनिया की यात्रा पर निकलते हैं, उनका हाल दयनीय हो जाता है।”

इन शब्दों के साथ हम घर पहुँचे। और खाना खाने बैठे। हमारे कल के कारनामों के बारे में सुनकर हमारे मम्मी-पापा हँसते रहे, ‘आह !-आह ! ’ करते रहे। जहाँ तक स्त्योप्का का सवाल है तो उसकी मम्मी ने उसे स्नानगृह में बन्द कर दिया, और वहाँ हमारा ‘ग्रेट ट्रेवलर’ पूरे दिन बैठा रहा।

दूसरे दिन मम्मी ने उसे बाहर जाने दिया। और हम उसके साथ यूँ खेलने लगे जैसे कुछ हुआ ही न हो। तूज़िक के बारे में बताना तो बाकी है। तूज़िक पूरे एक घंटे तक उस गाड़ी के पीछे-पीछे भागता रहा और बेहद थक गया। भागते हुए घर लौटने पर वह गोदाम में घुस गया और शाम तक सोता रहा। और शाम को, खाना खाने के बाद फिर सो गया, और उसने सपने में क्या देखा – ये हमारे लिए अज्ञात ही रहा।


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