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खाना-पूर्ति

खाना-पूर्ति

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बस में छूट जाने के कारण, पुलिस ने उसका सामान, अपने कब्ज़े में ले लिया था। अब, किसी परिचित आदमी की ज़मानत के बाद ही, वह सामान उसे मिल सकता था। “मेरी पत्नी सख़्त बीमार है, मेरा जल्दी घर पहुँचना बहुत ज़रूरी है हवलदार सा’ब !” उसने विनती की।

“भई, कह तो दिया, किसी जानकार आदमी को ढूंढ कर ले आओ और ले जाओ अपना सामान।”

“मैं तो परदेसी आदमी हूँ । सा’ब, दो सौ मील दूर के शहर में कौन मिलेगा मुझे जानने वाला !”

“यह हम नहीं जानते। देखो, यह तो कानूनी खाना-पूर्ति है। बिना खाना-पूर्ति किये हम सामान तुम्हें कैसे दे सकते हैं ?”

वह समझ नहीं पा रहा था कि ख़ाना-पूर्ति कैसे हो ।

कुछ सोचकर, उसने दस रुपये का नोट निकाला और चुपके-से, कॉन्स्टेबल की ओर बढ़ा दिया। नोट को जेब में खिसकाकर, उसे हल्की-सी डांट पिलाते हुए, कॉन्स्टेबल ने कहा- “तुम शरीफ़ आदमी दिखते हो, इसलिए सामान ले जाने देता हूँ। पर फिर ऐसी ग़लती मत करना, समझे !”


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