तू क्यों रोई ?
तू क्यों रोई ?
कच्चे कोयले के राख की ढेरी लग गई थी भूरे रंग की, दिन में तीन वक्त सिगड़ी जलती है, बाबू जी की रोटी बनाने के लिए सुबह चार बजे ही सुलग जाती है। कई घरों से कोयले के डल्ले फोड़ने की, दरवाजा खोलने की चर्र चूँ, बर्तनों की हल्की आवाजें, बाल्टी- लोटा लेकर बाबू जी के नहाने जाने की आहट सुन कर भी जब मेरी नींद खुलती तब वह काँखते -कराहते बर्तन भाँड़ें माँजती घर आंगन बुहारती, नहा-धोकर सिंदूर टीका लगाती, बाबू जी जोर-जोर से दुर्गा सप्तसती का पाठ करते हनुमान चालीसे का गायन करके आरती के बाद जब शंख बजाने लगते तब मैं कसमसाते हुए बड़ी मुश्किल से उठती।
उसके चेहरे पर कुढ़न के भाव नजर आते, मेरी नाभी के नीचले हिस्से में मीठा-मीठा दर्द होने लगता। ऐसा लगता जैसे देह मिट्टी हो गई हो। मैं कहीं इस कोने कभी उस कोने खड़ी होकर उसके कुछ कहने का इंतजार करती।
बाबू जी जैसे ही रोटियाँ खाकर उठते मैं उनकी थाली में बैठ जाती, वह चुपचाप थाली में रोटी सब्जी डाल कर छोटी बहनों को उठाने लगती। मैं जैसे-तैसे तैयार होकर स्कूल के लिए निकल पड़ती। सुबह की निकली, शाम को ही घर लौटती। मेरी रुचि देखकर या न जाने किस कारण से मेरे कई शिक्षक जल्दी आकर मुझे अलग से पढ़ाया करते, प्रत्येक विषय में विशेष योग्यता के प्रति वे आश्वस्त और मैं निर्लिप्त रहती।
खेल-कूद में चम्पा, जुलूस में आगे-आगे चम्पा, नाटक में चम्पा, भाषण में चम्पा, शिक्षकों के दाना-पानी का इंतजाम, कहाँ गई चम्पा ?
’’फलां क्लास खाली है जरा संभालना चंपा।’’ मुझे अच्छा लगता है सब के लिए दौड़ना।
माँ आजकल हमेशा नाराज ही रहती है न जाने क्यों ? शायद मैं घर का काम नहीं कर पाती इसलिए। आज से स्कूल की छुट्टी लग गई, कहीं जाना नहीं हैं, मुझे, एक शून्य ने घेर लिया। रोजमर्रा के काम तो वह निबटा चुकी थी। मैंने अलसाये मन से अपने चारों ओर निगाहें फेरी, आंगन की मिट्टी उखड़ गई थी। गोबर से लीपने लायक हो गया था, सबसे पहले तो यह राख उठानी होगी, मैंने बाल्टी में भर-भर कर राख उठाई और सड़क के उस पार फेंक आई। आखिरी बार एक बाल्टी गोबर लेती आई। माँ की तबियत तो लगभग रोज ही खराब रहती थी, उसने आंगन के पूर्वी कोने में खाट डाल ली थी। मिनट भर आराम करने के लिए बैठी थी। उसने अपने लिए बीड़ी सुलगा ली थी और उसके हल्के-हल्के कस लेती चुपचाप उसे देख रही थी। जब वह गाँव में रहती थी, उसी समय उसकी एक मौसेरी बहन ने जो उसके पड़ोस में ही ब्याही थी अचूक दवा बता कर उसे बीड़ी की लत लगा दी थी। छोटी वाली बहन के समय लगातार दो तीन महिने उसे रक्तस्राव होता रह गया था। जी मिचलाना, भूख न लगना, दुर्बलता, आदि की परेशानियों से वह अकेली जूझ रही थी। बाबू जी तो साल में एकाध बार ही कुछ दिनों के लिए आते थे। हम चारों भाई बहन ऐसे ही आकस्मिक वरदान की तरह दुनिया में आये। जब माँ मुझ पर प्रसन्न रहती थी एक सखी की तरह अपनी आप बीती सुनाती थी।
माँ लंबी छरहरी, गेहुँएं रंग की तीखे नाक नक्श वाली महिला थी। लंबे बालों की चोटी में रिबन लगाने की उसकी आदत नहीं थी। घने लंबे बालों की ढीली सी चोटी कभी पीठ कभी उसके अगल-बगल लेटी रहती थी। दोनों भौहों से जरा सा ऊपर वह सिंदूर का गोल सा टीका लगाती थी। माँग में छोटी अंगुली जितना मोटा सिंदूर भरती थी। उसका चेहरा बादाम के आकार का था जिस पर मुहाँसे के दो-तीन हल्के से दाग थे, वे मुझे बहुत सुन्दर दिखते थे। मैं उससे कभी-कभी पूछा करती थी-
’’माँ मेरे चेहरे पर ऐसा कब बनेगा ?’’
’’ तेरे चेहरे पर क्यों बनेगा ? तू तो हमेशा ऐसी ही रहेगी।’’
पता नहीं वह चिढ़कर कहती अथवा मेरे लिए उसकी शुभेच्छा बोलती होती। वह मुश्किल से पैंतीस की थी और मैंने सोलहवें में कदम रखा था। मैं उसे बूढ़ी और स्वयं को युवती समझती थी। सोलहवाँ क्या लगा, मेरा तो घर में रहना मुहाल हो गया। बाबू जी का चैन से दो रोटी खाना हराम हो गया- ’’जैसा भी घर-वर मिले हटाइये इसे, नहीं तो नाक कटा देगी, दिन भर लड़कों के साथ ही-ही बक-बक करती रहती हैं, घर का एक काम नहीं करती, मरूँ चाहे जिऊँ, कर’ धर के दूँ सास रानी को।’’ बाबू जी के सामने मैं उससे जबान लड़ाने की हिम्मत कभी नहीं कर पाई, दिन भर खदान में खटने के बाद दो कौर खाकर आराम करना मेरे विचार से बेहद आवश्यक था।
वैसे उसकी बात में सच्चाई थी। स्कूल या पड़ोस में मेरी सहेली एक भी नहीं थी, मैं देखा करती थी कि लड़कियाँ पढ़ाई में ध्यान न देकर सिनेमा की बातें करतीं, कभी चित्र बनातीं या एक दूसरे की चुगली करतीं। परीक्षा के समय मेरा ही सहारा लेतीं किंतु वर्ष भर मेरी चुगली करके समय काट देतीं। मैं जानती थी कि लड़कियाँ मुझसे ईर्ष्या करती हैं इसलिए मैं उनसे अधिक मतलब नहीं रखती थी। उनके मुकाबले लड़के हर क्षेत्र में आगे, क्लास में प्रश्नों के उत्तर देने वाला मुझे अपना मित्र प्रतीत होता। प्रतियोगिताओं में पारितोषिक पाने वाले सभी लड़के मेरे मित्र होते, पड़ोस में रहने वाले पढ़े-लिखे लोग मुझे अपने से लगते, मैं उन्हें हाथों हाथ लेती। जब तक उनके अनुभव का एक-एक मोती अपने कब्जे में न कर लेती उनका पीछा नहीं छोड़ती। मैं कई लड़को से प्रभावित हुई किंतु बात पढ़ाई से आगे नहीं बढ़ी।
माँ को लगता लड़की मर्द बदलने वाले स्वभाव की तो नहीं होती जा रही है ? अपने घर से दो घर छोड़ कर प्रवीण रहता था। मैंने पहली बार मैट्रिक पास आदमी देखा था। उसका सारा पढ़ा-लिखा सोख लेना चाहती थी एकबारगी। उसकी नई-नई नौकरी लगी थी खदान में, ड्यूटी से आने के बाद वह ज्यादातर समय मेरे आसपास गुजारने लगा था। मेरा मन भी अनजाने से मीठे-मीठे दर्द से भरा रहता था। न किसी काम में मन लगता न कोई बात अच्छी लगती। मैं उसके आने का इंतजार करती गणित के अनेक प्रश्नो के साथ। मैंने उसकी सारी पुस्तके पढ़ डाली, झोंके-झोंके में उन्हें भी जो मेरे लिए ज्ञान के नये द्वार खोलने वाली थीं, जिन्हें पढ़ कर मैं रोमांचित हो उठी थी शर्म से, नजरें झुकाये मैंने बिना किसी टीका-टिप्पणी के उन्हें वापस कर दिया। मुझे इस बात से कोई फर्क न पड़ा कि प्रवीण विवाहित है उसके एक बच्चा भी है। किसी को चाहने के लिए उसका कुंआरा होना आवश्यक है ये तो पता ही न था मुझे।
मैंने सारी राख फेंकने के बाद बुहार कर आंगन गोबर से लीप दिया। मेरे कपड़ों में गोबर लग गया था बालों की लटें चेहरे पर झूल रही थीं।
’’अब जल्दी से नहा कर कुछ खा ले, बड़ी देर हुई खराई हो जायेगी।’ ’माँ ने अपनी झपकती पलकें उठाकर कहा था, मुझे इस बात की जरा भी उम्मीद नहीं थी। कल रात ही तो उसने मुझे ऐसी भद्दी-भद्दी गालियाँ दी थीं जिनका अर्थ भी मैं नहीं जानती थी। गलती तो कुछ भी नहीं थी बस मैंने घर के काम में कोई हाथ नहीं लगाया था, दरवाजे पर खड़ी-खड़ी पूरी शाम मंगली बाई से बातें करती रही थी। वह अस्पताल में सफाई कर्मी थी, उसका पति खूनसनी पट्टियाँ बटोरा करता था। छुट्टी के दिन दोनों दारू पीकर हमारे घर के सामने से निकला करते थे। मंगली बाई नाटे कद की साफ रंग वाली छोटी-छोटी चिपचिपी आँखों वाली महिला थी, अस्पताल जाते समय उसकेे कपड़ें साफ-सुथरे रहते थे। वह निःसंतान थी। हफ्ते में जब पैसे कम पड़ जाते तब माँ के पास कभी कड़े कभी हंड़े रखकर कुछ रूपये ले जाती, दो-चार पैसे ब्याज के जुगाड़ में माँ जरूरत मंदों को बेवहर दिया करती थी। एक दिन बातों-बातों में माँ ने कह दिया था मंगली से कि इस लड़की को तू ले जा ! बच्चे के लिए क्या रो रही है ?’’ तब से मैं इसी जुगत में थी कि मंगली मुझे अपनी बेटी बना ले, वह कहा करती महराजिन नहीं देंगी अपनी बेटी, कहाँ तुम पंडित की बेटी और कहाँ मैं हरिजन, तुम अपने ही घर में रहो अगले जन्म में मेरी कोख से जन्म लेना !’’ वह भावुक होकर रो पड़ी थीं मुझे नहीं लगता था कि मेरी माँ मुझे मंगली को नहीं देगी। वह तो हलाकान-परेशान है तीन-तीन बेटियों से ’तीनों देवियों से छुटकारा पाते-पाते तो मिट्टी लग जायेगी।’ वह अक्सर कहती रहती है।
मैं जैसे ही अन्दर आई यह बम की तरह फट पड़ी- ’’मेरे जैसे फूटे करम और किसके जो तुझे ले जायेगी ? ये रांड़ ! मेरी तो कोख जल गई जो तूने उसमें वास किया। इससे अच्छा तो मैं बाँझ ही रह गई होती। देख ली न मेरे सिवा तुझे कोई नहीं पूछेगा। मंगली की शामत आई हे जो तुझ जैसी आफत को अपनायेगी।’’ दिन भर की थकी-मांदी कमजोर काया वाली माँ की सांसें सीने में समा नहीं रही थीं। वह बुरी तरह हाँफ रही थी।
मैं अपने आप को नगण्य समझ कर बहुत दुःखी थी। माँ के ऊपर बड़ी दया आ रही थी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या गलती हुई, उसी ने तो कहा था कि मंगली इसे गोद ले ले।’’ मैं तो माँ के सिर से अपना भार हल्का करना चाहती थी। सोने से पहले जब मैं माँ के सिर में तेल लगाने गई तो उसने मना कर दिया। मैं लेटे-लेटे माँ-बाबू जी की बातें सुनती रही- ’’सुना आपने अपनी लाड़ली का नया कारनामा ? मंगली की बेटी बनने जा रही है, यह लड़की मुझे जीने नहीं देगी। कल प्रवीण की माँ कह रही थी कि ’’बहिनी, बेटी का लगन कर दो। मेरी बहू छुप-छुप कर रोया करती है। चंपा की कौन सी पढ़ाई चल रही है तुम नहीं देख रही हो ? फिर पढ़ना ही है तो मास्टर लगाओ। मेरा बेटा सीधा-सादा है, कहीं कुछ गड़बड़ हो गई तो सारा दोष उसी का हो जायेगा।’’
’’ बच्ची है ! अभी कुछ समझती नहीं है, समय आने दो देखना कैसी समझदार हो जायेगी अपनी चंपा।’’ बाबू जी ने भी तो गलत ही समझा है न मैं बच्ची कहाँ हूँ ? सोलहवें में लगी हूँ, कपड़ा लेते दो साल हो गये। कर दो ! मेरी शादी, चाहे जिससे कर सको। मेरे लिए भी अब पराये घर में और रहना मुश्किल हो गया है। मुझे बड़ी देर तक नींद नहीं आई थी।
नहा धोकर आते-आते शरद् की गुनगुनी धूप में माँ एक झपकी लेकर उठ गई थी। छोटी बहने खेल कर आ गईं थीं वे दुबारा खाना मांग रही थीं।
’’तुम लोगो के पेट में महामाई समाई हैं क्या ? एक के मुँह में सुबह से पानी भी नहीं पड़ा और तुम लोग दुबारा के लिए आ गईं ? जाओ थोड़ी देर और खेल आओ।’’ माँ भी अजीब है कभी लगता है इस जैसा चंडाल कोई होगा ही नहीं, कभी मक्खन की डली सी नरम बन जाती है। अपने ही कहेगी और फिर नाराज भी हो जायेगी। जब -तब कहती है कि जहाँ भी कुछ सीखने को मिले सीख लो। आगे घर का काम तो सब दिन करना है, गुन रहेगा तो जीवन में सहारा बनेगा। मेरी बातों की ओर ध्यान मत दिया करो, थकी रहती हूँ तो बड़बडा लेती हूँ।’’ मैंने उसकी बात मान कर ही तो सिलाई -बुनाई, कशीदाकारी, पाक कला, गृहसज्जा आदि सीखा, तब भी नाराज रहती है। यह मुझे चाहती ही नहीं, भैया को चाहती है बस्स ! ठीक है एक बार अपना घर मिल जाये फिर लौटूंगी नहीं।’’ सोचते-सोचते मेरा गला भर आया। रात की बातें भी बार-बार दिमाग पर हथौड़े की चोट कर रही थीं। मुझे याद आया माँ ने भी अभी तक नाश्ता नहीं किया है, मैंने जल्दी से थाली लगाई और उसके आगे पानी के गिलास के साथ रख दिया।
’’ अपने लिए भी निकाल ला !’’ उसने थाली की ओर देखते हुए कहा।
मैंने अपनी थाली भी निकाल ली और चुपचाप हम दोनों खाते रहे। मेरा मन उस दिन बाहर निकलने के लिए तैयार नहीं हुआ। शाम का सारा काम भी मैंने ही संभाला था, माँ ने एक ब्लाउज काट लिया था उसे बखियाने लगी थी। उसकी आदत मैं जानती हूँ जरा सी फुरसत हुई नहीं कि कुछ नया बनाने में जुट जाती है। वही आदत तो मुझे भी मिल गई है नऽ अब नये-नये काम बिना किसी से मिले -जुले कैसे सीखे जा सकते हैं ?मैं हैेरान रहती हूँ।
प्रवीण किसी की परवाह किये बिना रोज आ जाता है, भले ही अब मेरे पास कम और माँ के पास ज्यादा बैठता है, चाची-चाची करके बार-बार गले लगता रहता है। उस दिन बाबू जी ड्यूटी से आये तो बड़े प्रसन्न थे। उन्होंने माँ को एक पत्र पढ़कर सुनाया किन्हीं दीनानाथ पांडे जी का था, उन्होंने आनंद मेले में मेरे स्टाॅल से कुछ सामान खरीदा था, बातचीत भी की थी। वे अपने फौजी बेटे आनंद कुमार के लिए मेरा हाथ मांग रहे थे सिर्फ तीन कपड़ों में। मैंने सुना, न जाने क्यों मन गहरी उदासी में डूब गया। मुझे लगा कोई है जो मेरे बिना निहायत अकेला रह जायेगा। दिल में जैसे आग का गोला उठा और गले तक चला आया। मौं चुपचाप वहाँ से हट गई। मैंने सुना माँ कह रही थी- ’’इसी इतवार को मुलायम सिंह के साथ जाकर घर-घराना देख आइये ! बड़ी तकदीर वाली है चंपिया हमारी, बिना खोजे रिश्ता आ रहा है। सब कुछ ठीक रहा तो इसी साल एक पाप काट देंगे।’’
’’देखना क्या है ? फोर्स में तो वैसे ही बहुत छांट कर भरती होती है, भगवान् ने चाहा तो जाति बिरादरी भी सही ही होगी। बाबू जी नहाने चले गये। बाल्टी डोर लेकर।
दुर्गा पूजा की घूम मची थी लेकिन मैं उदास थी, बाबू जी चले गये थे दीनानाथ पांडे जी के यहाँ। पूजा पर आनंद भी आया हुआ था छुट्टी पर। बात बहुत कुछ निर्णय की स्थिति तक पहुँचने की संभावना थी।
माँ चली गई दुर्गा पांडाल की ओर, मैं एक पुस्तक लेकर लेटे- लेटे पढ़ रही थी कि प्रवीण आ पहुँचा। उसके चेहरे पर उदासी के बादल छाये हुए थे। वह बिना कुछ कहे ही कुर्सी खिसका कर बैठ गया। मैं हड़बड़ा कर उठ बैठी अपनी चुन्नी ठीक की और पुस्तक एक ओर रख कर उसके लिए पानी ले आई।
’’क्या पढ़ रही है चंपा ?’ ’उसने पूछा था।
’’ एक उपन्यास है गुलशन नंदा का ’साँवली रात’ अभी शुरू ही कर रही थी। ’’
’’ चंपा मैं तुमसे एक बात कहने आया हूँ’’ वह बेहद गंभीर था।
मेरे दिल की धड़कने बढ़ गईं। मैं घर में अकेली थी, न जाने क्या कह दे प्रवीण ! मैं उससे सदा सतर्क रहती आई थी। आज तक मैंने उससे एक पैसे का भी कोई गिफ्ट नहीं लिया था। कभी कोई वादा नहीं किया था। हाँ मैं उसे अपना अवश्य समझती हूँ। उसके बच्चे को घंटों अपने सीने से चिपकाये रहती हूँ, उसकी पत्नी को भाभी -भाभी करके सजाती संवारती रहती हूँ, उसके माँ बाप को आपने माँ- बाप से ज्यादा आदर देती हूँ। प्रवीण के राग की अनुभूति मुझे नहीं है ऐसा झूठ तो मैं नहीं बोल सकती। उसने एक बार कहा भी था कि कोई किसी को चाहता है लेकिन अगला ध्यान ही नहीं देता, क्या करना चाहिए ऐसी स्थिति में ?’’
’’यदि प्रेम सच्चा हुआ तो उसकी चाहत उसे अवश्य मिलेगी।’’
उपन्यासों में पढ़ा वाक्य दोहरा दिया था मैंने। बाद में मुझे समझ में आया कि मैंने उसे एक उम्मीद से बांध दिया है अनजाने में। उसने मेरे लिए कुछ गाने भी तैयार किये थे। ’’तुम अगर साथ देने का वादा करो, मैं यूं ही मस्त नग़में लुटाता रहूँ, तुम अगर मुझको अपना समझने लगो, मैं बहारों की महफिल सजाता रहूँ...।’
’.हाँ कहिए ’’ मैंने कांपते स्वर में कहा था।
’’ सुना है तुम्हारी शादी होने जा रही है ?’’ वह कहने से अधिक रो रहा था मुझे ऐसा लगा था।
’’सुन तो मैं भी रही हूँ।’’
’’ फिर तुम्हारी पढ़ाई का क्या होगा ?’’
’’ अब मैं क्या कह सकती हूँ अभी।’’
’’ यदि तुम तैयार हो तो मैं तुमसे शादी कर सकता हूँ। उसके बाद कोई माई का लाल तुम्हारी पढ़ाई नहीं छुड़ा सकता।’’ उसके स्वर का कंपन मैं महसूस कर रही थी।
’’ आप मुझे बताइये कि एक लड़की का धर्म क्या होता है ? अपने बाप की बदनामी करना या उसकी इज्जत बढ़ाना ? मैं एक अच्छी लड़की कही जाती हूँ अपने बाबू जी का सिर नीचा होने नहीं दूंगी। आज के बाद हम आज वाले रिश्ते से कभी नहीं मिलेंगे, मैं आप को भैया पुकारती हूँ इसके अन्दर और किसी भावना के लिए स्थान होना किसी तरह उचित नहीं है।’’ मैंने दृढ़ता पूर्वक सारे कोमल तन्तु तोड़ दिये। वह बुरी तरह छटपटाया और बिना कुछ कहे ही घर से चला गया। मुझे लगा उसकी पीड़ा मेरे दिल में चुपचाप उतर आई है।
दशहरे के बाद स्कूल खुल गये थे, अब उतना मन नही लगता था मेरा कहीं भी। हर समय लगता जैसे दिल मुठ्ठी में लेकर कोई सारा रक्त निचोड़ रहा है। शनिवार होने के कारण ग्यारह बजे मैं घर आ गई थी। बाबू जी ने आज छुट्टी ले ली थी, वे अपने कुछ साथियों के साथ पांडे जी के यहाँ जा रहे थे वरक्षा के लिए। माँ ने सारा सामान पैक कर दिया था। प्रवीण की माँ उनके साथ थी। मैं आकर अपनी पलंग पर लेट गई। बाबू जी के जाने के बाद चाची भी अपने घर चली गई थी। उसने सुनी थी दोनों की बातें।
’’बहिनी लड़का अपनी चंपा से दून है यही बात कलेजा काट रही है, बाकी तो सब भगवान का दिया बहुत अच्छा।’’ माँ रो रही है मुझे ऐसा लगा था। ’’दून हो चाहेे तीन हो, माँ बाबू जी का पाप तो कट जायेगा। मैं सोच रही थी, कहीं प्रवीण ने कुछ गड़बड़ की तब क्या होगा ? यह भी मेरी चिंता का विषय था। जैसा उपन्यासों में मैंने पढ़ा था, लड़की की शादी के समय उसका प्रेमी या तो उसे ब्लेकमेल करता है या राज खोल कर शादी रोक देता है, वैसे मेरे मन में उसके लिए कुछ भी है इसका इकरार मैंने कभी नहीं किया, कभी उसका स्पर्श भी नहीं किया। फिर विचार आये कहीं वह इस सदमें से दुःखी होकर अपनी जान के लिए कुछ कर न ले, तब तो घनघोर पाप हो जायेगा।
हे भगवान् मेरी किसी भी बेवकुफी की सजा मेरे बाबू जी को मत देना।’’ मैं प्रार्थना कर रही थी मन ही मन। चाची के जाने के बाद माँ मिठाई की प्लेट लिए मेरे पास आ गई थी।
ले बच्ची तनी खा ले !’’ उन्होंने मुझे बाँह से पकड़ कर उठाया और सीने से चिपका कर भोंकार फोड़कर रो पड़ीं।’’ अरे हमार बछिया अब चलि जइहें।’’ मेरी आँसू भरी आँखों मे एक प्रश्न था ’क्यों रो रही है ?’