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Ravikant Raut

Others Tragedy Inspirational

4.1  

Ravikant Raut

Others Tragedy Inspirational

इंफाल डायरी : बिखरे प्रारब्ध से मुलाकात

इंफाल डायरी : बिखरे प्रारब्ध से मुलाकात

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अपने परिवार के साथ इंफाल की यात्रा में संयोग से हाथ आ गये , किसी की डायरी के कुछ फटे पन्नों ने , मुझे एक रोमांचकारी साक्षात्कार दिया . मैंनें तब जाना कि प्रारब्ध भी तब तक भटकने के लिये अभिशप्त  होता है , जब तक वो अपना ठिकाना न पा ले

 

 

“पापा इस बार नार्थ-ईस्ट चलते हैं ना”- मेरी छोटी बेटी ने मेरे गले में हाथ डाल लगभग झूलते हुये कहा.।
“क्या कहा !! नार्थ-ईस्ट ?? बिल्कुल नहीं ” –मैनें संशय से उसकी ओर देखा- “ चलना ही है तो कहीं और चलो , पर नार्थ-ईस्ट तो बिल्कुल नहीं , जानती नहीं ,कितनी फ़्रेज़ाइल है सिचुएशन वहां की ”- उसके हौसले पस्त करने की ग़रज़ से मैनें कहा ।
“पर पापा , अब तो सेंटर में नयी सरक़ार आ गयी है” , बड़ी बेटी बीच में बोली – “मतलब-परस्तों के हौसले वैसे ही पस्त हो रहे हैं , अब उन्हें अपनी बचा के रख़नी है , तो सब शांत ही रहेंगे ।
“फ़िर देख़िये ना, शर्मिला इरोम की रिहायी की बातें भी हो रही है”-उसने तर्क़ देते और ऐसी ख़बर छ्पे अख़बार का पन्ना मेरी ओर बढ़ाते हुए उसने कहा –“नयी सरक़ार पर्यटन को बढ़ावा दे रही है , इसलिये हालात सुधारने के लिये अलगाव वादियों से भी बातचीत की जा रही है , वर्तमान में सरक़ार की ओर से बयान भी आया था कि पर्यटकों की सुरक्षा उनकी पहली प्राथमिकता है और उनकी सुविधाओं के लिये हरसंभव प्रयास किये जा रहे हैं” – उसने मेरा ज्ञानवर्धन करते हुये कहा ।
“और फ़िर हमें कौन सा इंटीरियर में जाना है”- उसने आगे कहा –“ स्टेट केपिटल के आसपास तो वैसे भी शासन –प्रशासन चाक़-चौबंद रहता ही है” ।
उसने मेरे बोलने के सारे रास्ते बंद कर दिये थे । बड़ी की बातों से छोटी बेटी भी जोर-ज़ोर से सिर हिला कर मुझे सहमत होने के लिये तैयार करने का प्रयास कर रही थी । मैं समझ गया था , मुझसे बात करने से पहले ही दोनों पहले से ही सब तय कर चुकीं थीं – क्या करना है और कैसे करना है , मुझे कैसे मनाना है ।

“देश के दूसरे हिस्सों में तो हम कभी भी चल सकते हैं ”, बड़ी बेटी ने कहा-“ नार्थ-ईस्ट की बात अलग हो जायेगी , फ़िर मुझे कब मौका मिलना है आप लोगों के साथ दुबारा जाने का”।
सच कह रही थी वो भी , डिग्री ख़त्म कर वो आयी ही थी, एक जानी-मानी कंपनी का नियुक्ती पत्र था उसके हाथ में ,जहां दो माह बाद जाइनिंग देनी थी उसे । बात उसकी भी सही थी , एक बार जाब में आ गयी तो फ़िर उसकी शादी की चिंता , उसकी अपनी गृहस्थी , उसे जाने कब हमारे साथ दुबारा घुमने जाने का मौका मिले ।

“ठीक है”- , मैंने हथियार डालते हुये कहा ।“पापा दार्जिलिंग में आपके वो फ़्रेंड भी तो रहते हैं ना ज़ोसफ़ रोज़ारिओ ” – मुझे सोच में पड़ा देख , छोटी बेटी मौका हाथ से ना जाने देने की जुगत भिड़ाती बोली – “ वही जो आपके साथ “मास्टर-शेफ़ इंडिया – सीज़न-2 ” में पार्टिसिपेटिंग –कुलीग थे” ।

“पिछ्ले महिने ही तो उन्होंने दार्ज़िलिंग में अपना नया रेस्टोरेंट खोला है”- , उसने मुझे याद दिलाया –“ कितनी बार बुला चुके हैं वो आप को , लौटते वक़्त उनकी मेहमान-नवाज़ी का आनंद लेते आयेंगे” ।

 “ये ऽऽऽ ए…ऽऽऽऽ , माइ पापा इज़ ग्रेट” -छोटी बेटी ने अपने पंजों पर स्प्रिंग की तरह उछलते हुए , अपने दोनों हाथ उपर आसमान की ओर फ़ेंकते और झटके से वापस कुहनियों तक दो बार समेटते हुए नारा लगाया । और फ़िर से मेरे गले में झूल गयी।

“क्यों ठीक है ना”- मैनें अपनी पत्नी की ओर देख़कर पूछा , जो अब तक़ इन सब से नि:स्पृश्य दिख़ती , सामने सोफ़े पर बैठी , एम्ब्रायडरी-रिंग में कसी नयी चादर पर सिंधी-टांकों वाली कढ़ाई कर रही थी , दांतों के कोने से धागा तोड़ती , नाक पर टिके चश्में के उपर से मेरी ओर मुख़ातिब हो तिरछी नज़र से देखती कहने लगी –“कोई और आप्शन है भी क्या आपके पास”???
“ओ के , टुअर का प्लान कैसा क्या होगा ?” बुकिंग्स … टिक़ट्स …” मेरी चिंता पर मेरी बड़ी बेटी ने मुझे आश्वस्त करते हुए कहा – “ पापा आप कोई टेंशन मत लो , मैं सब कुछ बड़ी आसानी से मेनैज़ कर लूंगी”
मैं जानता था , वो अपने कालेज़ की इवेन्ट मेनैज़मेंट सेल की लीडर रही थी , उसने अपने कालेज़ के कई इवेन्ट और इंडस्ट्रियल और कल्चरल टुअर का बड़ी सफ़लता पूर्वक आयोज़न किया था और शाबासी पायी थी। छोटी ने कहा तैयारियों में मैं मम्मी का हाथ बटा दूंगी । तैयारी में इसने क्या करना है , मैं जानता था । बात-बात में चिल्लायेगी –

“ ममा ऽआऽअऽऽआ…………मेरी ब्लू – स्कर्ट नहीं मिल रही ।”
“ अरे………यार मम्मी मेरे फोन का चार्जर दिखा क्या ???” मम्मी……मम्मी……”

ख़ैर उसे तो मेरी पत्नी ने झेलना था । मुझे तो इन सब से निश्चिंत हो अपनी छुट्टियों और पैसों की व्यवस्था में लग जाना था । तय हुआ था कि एकदम आख़री छोर पर बसे राज्य मणीपूर की राजधानी इंफ़ाल से शुरू कर मिज़ोरम , नागालैंड,आसाम होते हुए आखरी में पश्चिम बंगाल का ‘दार्ज़लिंग’ । ज़ोसफ़-रोज़ारियो को अपने टुअर की जानकारी देते वक़्त उसी ने सुझाया था कि हम लोग लौटते में दार्ज़लिंग आयें ,ताकि सफ़र की सारी थक़ान मिटाकर सुक़ून के चार दिन दोनों परिवार साथ-साथ बिता सकें।

वैसे भी मुझे जहां का ख़ाना हो वहीं जाकर ख़ाने का एक ज़ुनून सा है , इस पूरी यात्रा के दौरान मुझे मणिपूर के “सोना थोंग्बा” , त्रिपुरा के “तोखन-चिकन” , आसाम के “बम्बू-शूट-चिक़न” , नागालैंड के “नुओशी” के स्वाद के साथ सिक्किम की लोकल बीयर “छांग” के सूरूर को जानना था जो कि बांस के ही बने कप में परोसी जाती है वहां के लगभग सभी रेस्त्रां-बारों में । मैं ख़ाने के मज़े ख़्वाब में लेने लगा था ।
पहले आंध्रा-एक्सप्रेस से भोपाल से नयी-दिल्ली की यात्रा । सुबह के 9:30 बजे नई-दिल्ली के रेल्वे-स्टेशन ने हमारा स्वागत किया । यहां से हम सीधे नई दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे जहां से हमें एयर-इंडिया की फ़्लाइट संख़्या ‘ए आई – 889’ से इंफ़ाल की यात्रा करनी थी । ठीक 11:20 बजे दिल्ली से गोवाहाटी होते इंफ़ाल को उड़ चले । लगभग दोपहर सवा तीन बजे हवाई जहाज के पहियों ने “इंफ़ाल एयर-पोर्ट ” के रन-वे को चूमा । सारी औपचारिकता निपटाते हुए ,जैसे ही हम बाहर आये ,टुअर-आपरेटर की भेजी ‘कैब’ को इंतज़ार करते पाया । कुछ ही देर में उसने हमें होटल आनंद कांटीनेन्टल के पोर्टिको पर उतार दिया । होटल अच्छा था , पर आमतौर से , मुझे होटलों की कृत्रिम प्राकृतिकता, वहां के परिचारकों के होंठों पर ज़बरदस्ती चिपकायी गई मुस्कान ,उनके असहज कर देने वाले अति- शिष्टाचार और वहां के कालीन तथा रूम-फ़्रेशनर की टिपिकल गंध से जल्दी ही उब होने लगती है , पर परिवार की सुरक्षा , निज़ता और सुविधा के लिहाज़ से ऐसे ही होटलों का चुनाव जरूरी होता है ।

पेना : मणिपुरी वाद्य यंत्र

आज का दिन इंफ़ाल के बाज़ार में घूमने और स्थानीय हस्तशिल्प के सामान ख़रीदने के लिये मुक़र्रर किया हुआ था । बड़ी बेटी को प्राचीन मणीपुरी वाद्ययंत्र “पेना” की तलाश थी , बज़ाने के लिये नहीं , घर पर सज़ाने के लिये.
पेना मेइती समुदाय का प्रिय स्वदेशी संगीत यंत्र है। इसे सबसे पहले मणिपुर के राजा नोंग्दा लैरेन पखंगबा के दरबार में पेश किया गया था ।

छोटी को राष्ट्रीय राजमार्ग -39 पर स्थित इम्फ़ाल से सात किमी. दूर खोंगमपाट का ऑर्किड उद्यान देखना है, जहाँ इस पुष्प पौधे की 110 से भी अधिक क़िस्में उपलब्ध हैं । वैसे कल सुबह हमारा प्लान “लोकतक- झील” जाने का है ।
पत्नी को तलाश थी , मणिपुरी काटन-सिल्क की साड़ियों की , और मैं , एक फ़ूडी और शौकिया शेफ़ होने के नाते , एक ख़ालिस मणिपुरी ख़ाना परोसने वाले रेस्त्रां की तलाश में था । वैसे दिल्ली में तो मुझे पता था “रोसंग” और “बैंबू-शूट” रेस्त्रां का और मैं गया भी था वहां वे शानदार अथेंटिक नार्थ-इस्टर्न व्यंजन परोसते हैं , पर यहां मुझे पता लगाना था ऐसे ही किसी एक का, जहां आज का डिनर इत्मिनान से लिया जा सके । हमने अपने काम और समय का बंटवारा कर लिया । पत्नी और बच्चे , टुअर-आपरेटर के द्वारा मुहैया करायी एक हंसमुख सी महिला गाइड के साथ हो लिये, जो आज उन्हें शापिंग कराने वाली थी । याने मैं आज़ाद था आज शाम रेस्त्रां तलाशने और यहां की सड़कों पर लंबी चहलक़दमी करने के लिये ।
कुछ लंबी तफ़रीह करने के इरादे से मैनें सड़क के किनारे ख़ड़े उस मूंगफ़ल्ली वाले से कुछ ज़्यादा ही सींगदाने खरीद लिये , उसने भी कागज के दो बड़े-बड़े टुकड़ों को एक मे एक फ़ंसा कर बड़ा सा कोन बनाया और उसमें 30 रु के गर्मागर्म नमकीन सिंगदाने भर दिये । सींगदाने की मात्रा और मौसम की ख़ुशग़वारी ने मुझे लंबी सैर के लिये उकसा दिया । एक एक दाना ठूंगते हुये मैं , दुनियां को पोलो का खेल सिखाने वाले सुंदर राज्य, मणिपुर , की सड़कों पर मैं पैदल टहलने निक़ल पड़ा । मेरे फ़ूडी होने के अलावा मेरा एक और पैशन है , मुझे चांदनी रात में , जब लोड-शेडिंग के वक़्त घरों की और स्ट्रीट-लाइटें बंद हो जाती हैं , ऐसे में जब चांद अपने पूरे शबाब से फ़लक़ पर हो और विशाल हृदयी दानदाता की तरह धरा पर अपनी चांदनीं उड़ेंल रहा हो ,तब सड़कों पर बस यूं ही बेमतलब भटकने को निकल पड़ने को मन बेचैन होने लगता है , घने पेड़ों की कतारों के बीच से गुज़रती शांत सड़क के केनवास पर चांदनी के उजाले और छांव की स्याही से पल-पल बनते बिगड़ती जीवंत चित्रकारी के स्पंदन को महसूसना मेरे लिये सदा से एक ख़ुशनुमा एहसास रहता है । जब ऐसे ही किसी सफ़र पर होऊं तो वहां के मालरोडों ,पैदल रास्तों पर कागज के शंकूओं में भर कर दी गयी , नमक़ीन मुंगफ़ली के दानों को कुतरते , कभी किसी रंगीन पत्रिका के कागज़ से लिपटे नींबू-नमक लगा कर दिये गये सोंधे-सोंधे महक़ते , गर्मागर्म सिंके भुट्टे खाते , सुनसान सड़कों पर अपने आप से बातें करते टहलना मेरा प्रिय शग़ल है । पर इससे भी ज़्यादा पसंद है मुझे रद्दी कागज़ों पर लिख़ी इबारतें पढ़ना । कभी किसी के हाथ का लिखा , तो कभी छपा जो मिल जाये ,एक कीरोग्राफ़र की तरह मैं लिख़ने वाले की उम्र,हैसियत ,उसके लिंग ,उसके पेशे और लिखे जाते वक़्त की उसकी मन:स्थिति का आकलन करने में लग जाता हूं । मेरे इस व्यसन से कभी-कभी तो परिस्थितियां इतनी विचित्र हो जातीं हैं कि , महीने का किराना और दूसरी ग्रासरी ख़रीदकर लाने के बाद जब अपनी पत्नी के निर्देश पर उन्हें खोल-ख़ोल कर उनके तयशुदा डब्बों और ज़ारों में भरने के बीच ही मैं रुककर खुले कागज़ों के ख़ज़ाने में उलझ जाता हूं । अलग-अलग रंगो ,आकारों ,हस्तलिखित , प्रिंटेड ,; कभी कोई धार्मिक किताब का पन्ना तो कभी प्लेबाय और कास्मोपोलिटन के ग्लासी पुल-आउट्स तो कभी किसी फ़िल्मी पत्रिका का सेंटर पेज़ । कहीं पर्यावरण को बचाने की गुहार लगाते स्वयंसेवी संगठन की अपीलें ,तो कहीं बलत्कार , घोटाला । ये टुकड़े अच्छे ख़ासे कोलाज़ का सामान बन जाते हैं । इन टुकड़ों को रैंडम-आर्डर में जमाकर कोई मज़ेदार गल्प गढ़ना , कोई चुटकुला कोई स्ट्रैंज़-खबर बनाना , जब ऐसा कोई मज़ेदार मसाला मिल जाये तो उसे अपनी “स्क्रैप-बुक” में चिपकाना । पहले अपने इस शौक में समय बर्बाद करने के लिये मां की डांट खाता था , अब पत्नी की झिड़कियां झेलता हूं , पर इन सब के बावज़ूद , पिछले तक़रीबन पैंतीस सालों के मेरे परिश्रम का नतीज़ा है ,मेरी दर्ज़नों मोटी-मोटी स्क्रैप बुक़्स , मैं मानता हूं किसी एक क़द्रदान के एक निगाह भर की देर है कि , दुनिया के हर ज्ञान का भंडार , मेरा ये संग्रह, भारत की एक अमूल्य धरोहर बनने की , एक उल्लेख़नीय दस्तावेज़ बन जाने की सारी ख़ुबियां रख़ता है । ना ना…… टेंशन मत लिजिये ,मज़ाक़ कर रहा हूं । फ़िर भी कुछ नमूने तो देख़ ही लीज़िये ,जो अपने वक़्त के आईने हैं ।
मिसाल के लिये इन्हें देखिये , कुछेक दशक पुरानी एक स्क्रैप-बुक़ के पन्ने पर अख़बार के दो इश्तेहार चिपके हैं , एक है भारतीय ज़नता-पार्टी का और दूसरा है मर्दानगी का इलाज़ करने वाले , बड़ी-बड़ी मुंछों वाले एक इश्तेहारी डाक्टर का –

“शादी से पहले और शादी के बाद”
“…….  बिहारी –ज़िन्दाबाद”
अख़बार में छपी एक ख़बर और एक विज्ञापन इस तरह चिपका है
पोर्न-स्टार “सन्नी लियोनी” हिंदी फ़िल्मों में काम करेंगी
आज फ़िर घाघरा (नदी) ख़तरे के निशान से उपर ।
जिला प्रशासन की नींद हराम । लोगों को सुरक्षित स्थानों पर भेजा

एक पेज़ पर मैनें दो ख़बरें चिपकायी है।
“पत्नियों से परेशान पति हो रहे लापता : जबलपुर के इलाकों से 4500 पति लापता ,नर्मदा के किनारों पर संन्यासी बन जीवन गुज़ारने को मज़बूर”
तो नीचे एक साफ़्ट -ड्रिंक का विज्ञापन
“चलो आज़ कुछ तूफ़ानी करते हैं “

टहलते- टहलते मैं काफ़ी दूर निक़ल गया था , हवा में भी थोड़ी ख़ुनक़ बढ़ गयी थी , अचानक़ मैंने पाया कि मैं कुछ थक़ रहा हूं , पेपर कोन में भरे सारे सींगदाने भी ख़त्म होने को आ गये थे । मैनें इधर-उधर निगाह दौड़ायी , पुरानी डिज़ाइन के कास्ट-आयरन के एक लैंप-पोस्ट पर , जिसमें लगा आधुनिक सी एफ़ एल नीचे लगी कास्ट-आयरन की बेंच पर अपनी दुधिया रौशनी उंड़ेल रहा था , मेरी निगाह अटक़ गयी , पैदल चलने की थक़ान अचानक़ हावी हो गयी , कुछ देर को आराम करने की नियत से मैं बेंच की पुश्त से पीठ टिकाते , पैर फ़ैलाते आराम से पसर गया । हाथ में पकड़े कागज़ की पुड़िया में चंद दाने ही बचे थे , उन्हें एक ही फ़ांक़ में उदरस्थ करते मैनें , अपनी फ़ितरत के अनुरूप कागजों की तहें खोल कर उन्हे क़रीने से सीधा किया , वो किसी नोट्बुक़ या रज़िस्टर के रुल्ड पेपर पर फ़ाउंटेन पेन से लिखी इबारतें थी । पहला पन्ना जो हाथ लगा मैं उसे पढ़ने लगा –

“प्रख़र” ये छ्द्म नाम दिया था मुझे कांट्रेक्ट पर फ़ोटो-पत्रकारिता का रोज़गार देने वाली उस प्रसिध्द न्यूज़-एजेंसी ने ।
इस पत्र को लिखने वाले का असली नाम तलाशने उसकी न्यूज़ एजेन्सी का नाम जानने , और तो और लिखने की तारीख़ और जगह मालूम करने की ग़रज़ से मैनें इस पन्ने को कई-कई बार पलट कर देखा । ये पृष्ठ किसी अन्य पृष्ठ का अनुगामी पृष्ठ था । इस पन्ने को उस सिंग्दाने वाले ने पुड़िया बनाने के लिये इस बेदर्दी से फ़ाड़ा था कि मैं कुछ और खोज़ नहीं पाया लिहाज़ा आगे पढ़ने लगा-
“काम था नार्थ-ईस्ट के राज्य मणीपूर जा कर वहां की अलगाव-वादी ताकतों को नियंत्रित करने में लगे भारतीय सुरक्षा बलों को मिले “आर्म्ड-फ़ोर्सेस (स्पेशल पावर) एक्ट” AFSPA आफ़्स्पा “ के अधिकार के दुरुपयोग किये जाने और मानवाधिकारों के बार-बार उल्लंघनों के लगने वाले आरोपों की छुपकर पड़ताल करना , उसकी सनसनीख़ेज़ तस्वीरें बटोरना और उसे अपनी न्यूज़-एजेन्सी को भेजना ।“
“प्रखर” इस छ्द्म नाम के इस बंदे ने आगे लिखा था-

“मुझे इस काम के ज़ोख़िम की जानकारी तो मेरी एजेन्सी ने दी थी , पर सुरक्षा-बलों या आततायीयों द्वारा पकड़े जाने , टार्चर किये जाने या मार दिये जाने पर मेरी हिफ़ाज़त की कोई भी गारंटी नहीं मिली थी , मेरी गरज़ है तो मैं काम करूं , मर जाऊं तो कोई मेरी लाश भी क्लेम करने नहीं आयेगा । हां ,यदि रिपोर्ट अच्छी रही , फ़ोटोग्राफ़ सनसनीख़ेज़ रहे ,तो दिल्ली में बैठे और एजेंसी को अपनी बपौती समझने वाले सदा लाइम-लाइट में बने रहने वाले तथाकथित प्रतिष्ठित संवाददाता या पत्रकार उसे अपने नाम से ज़ारी कर देंगें।“ यही एग्रीमेंट था , मेरा उस एजेन्सी के साथ , वो भी सिर्फ़ ज़ुबानी ।

मुझे दो माह के लिये मणीपूर भेजे जाते वक़्त एजेन्सी ने जो काग़ज़ात मुझे मुहैया कराये थे उसमें मेरा एक पहचान-पत्र था जो मुझे “प्रखर” के नाम से परिचित कराता था , उसके अनुसार मैं एक बीमा कंपनी का फ़ील्ड-आफ़िसर था जिसे मणीपूर में रहकर बीमा-व्यवसाय की संभावनायें तलाशना था । नकली नियुक्ति-पत्र की प्रतियां , नकली पासपोर्ट , और अन्य ज़रूरी दस्तावेज़ों के साथ जाने का टिक़ट और साथ में प्रारंभिक ख़र्चों के लिये पचास हज़ार रुपये एजेन्सी ने मुझे जिस दलाल के हाथों भिजवाये थे , उसे मैं कोई चार महीनों से जानता था । मेरे हाथों में ये सामान देते हुये उसने कहा था , देख भाई , आज़ के बाद ना तो हम तुझे जानते हैं ना तू हमें ।अच्छा काम दिखा पाओ और दो महीने बाद लौट के आ पाओ तो कंपनी में किसी पर्मानेंट जाब की बात जम सकती है ।

पत्र के इस पृष्ठ को पलटने पर इस “प्रखर” ने आगे लिखा था –
“सत्य के अन्वेषण की मेरी नैसर्गिक प्रकृति ने कहें या चौबिसों घन्टे चलने वाले ख़बरिया न्यूज़-चैनलों के रिपोर्टरों और एंकरों के ग्लैमर में आकर , परिवार वालों की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ जा कर मैंनें “मास-कम्यूनिकेशन” में डिग्री ले ली थी ।सत्य तो डिग्री मिलने के बाद सामने आया कि ,सत्य तलाशती इन एजेन्सियों के पास हम जैसों के के लिये कोई रोज़गार नहीं है । अलबत्ता बार-बार इन एजेन्सीयों के दफ़्तरों के चक्कर लगाते और अपने जूते घिसते-घिसते मैं वहां मंडराते दलालों की नज़रों में ज़रूर चढ़ गया था । ये एजेंसियां अपनी तरफ़ से कोई भी ज़िम्मेदारी लिये बिना इन दलालों के माध्यम से अपने काम निकलवाने की जुगत में रहती है , जो हम जैसे निरापद बक़रों को उनके लिये खोज-खोज कर ज़िबह होने के लिये तैयार करती है ।ये वही दलाल था , जो कुछ महिनों पहले एक दिन मेरे क़रीब आकर बोला था –“देखो भईया, ये मिडिया ,ये न्यूज़-एजेंसियां हैं ना , इनका भी क़ारोबार , आज़कल बिलकुल , फ़िल्म-इंडस्ट्री जैसा चलता है , लड़का हो या लड़की ,यहां भी अपनी पहचान बनाने को ,फ़िल्मों की तरह ही सब कुछ दांव पर लगाना होता है ।इतना कर के भी तुम कुछ पा ही जाओगे इसकी उम्मीद मत करना , वहां अपना सब कुछ लुटा के असफ़ल रहने वालियां आखिर में ………………। उसने क्या कहा मैं सुनना भी नहीं चाहता था।
एक दिन वो मुझे एक न्यूज़ एजेन्सी के दफ़्तर की “काफ़ी-शापी” पर ले गया । जहां उसने मुझे मणीपूर के इस अंडर-कवर प्रोजेक्ट का आफ़र दिया ।मैं हत्प्रभ था , मैनें सोचने का वक़्त मांगा तो उसने कहा था –“ देखो भैया , तुम्हारे जैसे कई हैं लाइन में , तुम्हें कई दिनों से बेकार और परेशान देख रहा हूं इसलिये कह रहा हूं ।“
रात को सोने से पहले ही मैंने पाउलो कोहलो की “अल-केमिस्ट” पढ़ के निपटायी थी , सुबह उठने के बाद से अभी तक़ भी उसका असर मेरे दिमाग़ पर हावी था । इस दलाल के अपने आफ़र पर ज़ोर देने पर , उस किताब की कुछ पंक्तियां मेरे ज़ेहन में कौंधी – “प्रारब्ध तो तय है , प्रारब्ध ही तय करता है कि तुम कौन सा रास्ता चुनों , ताकि वो घटित हो सके , तुम वही चुनोगे जो पहले से तय है” मैनें भी सोचा , ठीक है जब सब कुछ पहले से ही तय है ,तो हो जाने दो उसे ही घटित , शायद इस प्रोजेक्ट पर मेरी हामी , मेरे प्रारब्ध की दिशा में बढ़ता एक कदम हो ।

“ठीक है”-मैने कहा । मेरी स्वीकृति पाने के बाद वो बोला – “मैं सात दिनों में पेपर तैयार करा देता हूं । कल आना तुम्हें एक डायरी पढ़ने को दी जायेगी और एक ‘पेन-ड्राइव’ भी जिसमे वो सब है जो इस टास्क को निपटाने के लिये ज़रूरी है ।इन्हें अच्छे से अपने ज़ेहन में बिठा लेना ,क्योंकि वहां की रवानगी के वक़्त ये कुछ भी तुम्हारे पास नहीं होगा ।‘’
आज मेरे हाथों से वो डायरी और पेन-ड्राइव वापस लेते हुये उसने मुझे मणीपूर का वो कस्बानुमा शहर का नाम और वहां के एक स्थानीय बाशिंदे का नाम – पता बताया , जो शायद इनका ही ज़रख़रीद ग़ुलाम था ,और वो मुझे भी झुठे स्थानीय कागजातों के आधार पर किराये का कमरा दिलवाने वाला था , एक होटल का नाम बतया जहां मुझे बिना भुगतान किये खाने पीने की व्यवस्था थी ।
यहां मणीपूर आकर बस मुझे लोगों से घुलना मिलना था और अपनी बीमा कंपनी के काम की आड़ में सुरक्षाबलों और अलगाववादियों की गतिविधियों की सूंघ लेते रहना थी ,प्रदेश की गहराईयों में रिस कर फ़ोटोग्राफ़ी करनी थी और अपने छद्म नाम के सहारे दो महीनें तक़ यहां ज़िन्दा बने रहने की कोशिश करते रहना था।
लगभग डेढ़ माह ठीक ठाक गुजर गये थे , मैं अपनी वास्त्विकता को छुपाये रखते हुये अपना काम करने में सफ़ल रहा था । मेरी रिपोर्टें और फोतोग्राफ़ एजेन्सी को पसन्द आये होंगे और इस उम्मीद से कि अपने इस काम की बदौलत मैं कोई स्थायी नौकरी की जुगत भिड़ा लुंगा , असाइन्मेंट का ये आख़री पख़वाड़ा भी सुक़ून से काटने की सोच ही रहा था कि अचानक ख़बर आयी कि युनाईटेड-लिबरेशन-फ़्रंट ,UNLF , और विशेषाधिकार पाये सुरक्षा बलों के बीच संघर्ष-विराम का उल्लंघन हुआ है ।खबर ये भी आयी कि सुरक्षा-बलों द्वारा यू एन एल एफ़ समर्थकों पर और यू एन एल एफ़ द्वारा सरकार समर्थित लोगों पर अमानवीय अत्याचार किये गये हैं ।
मेरे असाइन्मेन्ट के 15 दिन बाकी थे , मैं इस रिपोर्टिंग को अधूरा छोड़कर भाग नहीं सकता था , वरना ऐसे ही वापस लौटने पर वादे के अनुसार मिलने वाले पचास हज़ार रुपये और जाब की उम्मीद से हाथ धोना पड़ता । मैं अब न चाहते हुये भी उस मौत के तांडव की रिपोर्टिंग के लिये मज़बूर था । लिहाज़ा मैं मणीपूर के उस अंदरूनी कस्बाई बस्ती की ओर निकल पड़ा । वहां जो देखा , वो दिल दहला देने वाला था । 2008 में कभी मैने अख़बार में सुरक्षा बलों द्वारा एक 14 वर्षीय बच्चे को दी गयी अमानवीय यातना की लोमहर्षक ख़बर पढ़ी थी, पर आज़ मैं जो मंज़र यहां देख़ रहा था , उसने इंसानियत की सारी हदें तोड़ दी थी ।यू एन एल एफ़ और सुरक्षा-बलों की आपसी लड़ाई और बदले की कार्यवाही में ये कस्बा जो एक दूसरे एक पहाड़ी नदी से अलग होते दो गावों से मिलकर बना था ,की बेकसूर स्थानीय जनता बुरी तरह मसल दी गयी थी ।उन पर किसने किसके भेष में ज़्यादती की कोई नहीं जान सकता था । पर उनके भग्नावशेषित शरीर , बलात्कार कर निर्दयता से नोची गयी लड़कियां , जले घर और श्मशान सी ख़ामोशी पत्थर के ज़िगर वाले को भी हिला सकता था। ।मैं अपने छुपाये हुये कैमरे से तस्वीरें ले यहां से चुपचाप ख़िसक जाने और शाम होने से पहले ये जगह छोड़कर सुरक्षित भाग निकलने में अपनी भलाई समझी ।
प्रखर की लिखी इन लाइनों के साथ ही ये पृष्ठ भी ख़त्म हो गया , मैनें अब तक अपने हाथ में पकड़े दुसरे पृष्ठ के लिये अपनी मुठ्ठी को खोला तो उसे बुरी तरह भींचा हुआ और पसीने में तर पाया । सावधानी से उस पृष्ठ की तहों को सीधा कर मैं आगे पढ़ने लगा ।

आज़ दिनांक़ ————
(तारीख़ ठीक़ से दिख़ाई नहीं पड़ रही थी , पानी जैसा कुछ गिर जाने जैसा एक धब्बा सा था उस जगह)
मैनें हस्तलिख़ित उस इबारत को सिलसिलेवार पढ़ना शुरू किया —

केविन कार्टर

“खैर, उस कस्बे से लौटते वक़्त तक शाम होने को आ गयी थी , वैसे भी शक्ल – सूरत में उन लोगों से अलग दिखने वाला और सकल अंगवान मैं अपने आप को और खतरे में नहीं डाल सकता था । कोई बड़ी बात नहीं थी कि यू एन एल एफ़ या सुरक्षा-बल में से किसी से भी आमना सामना होने पर वो मुझे दूसरे का भेदिया समझ अमानवीय यातना दे दे कर मार सकता था ।अपने पर किसी हमले की आशंका से सिहरता मैं तेजी से अपने कदम बढ़ाता उस जगह से दूर होता जा रहा था ।लुटे-पिटे और जले कस्बे के इन दोनों गांवों को जो संकरी पहाड़ी नदी अलग करती थी वो गहरी और पथरीली थी , इसके उपर बना लकड़ी का एक पुल जो कस्बे के इन दोनों गावों को जोड़ता था , देख-रेख की आभाव में ज़र्ज़र हो रहा था । इस पुल को पार करते वक़्त मेरी निगाह जले हुये पुल पर से चल कर आ रही एक स्त्री आकृति पर पड़ी जो शायद उस पार के दुसरे उजड़े गांव की थी । एक लड़की जो ज़वान हो रही थी , चेहरे पर शून्य था उसके , लकड़ी के उस पुल पर से लगभग घिसटते हुये मेरी दिशा में बढ़ती चली आ रही थी , जिस पर से ख़ुद संभलते और अपने कैमरे को सम्हालते मैं भी गुज़र रहा था ।
किसी की चाल से ,रास्ते पर पड़ते उसके कदमोँ को देखकर कोई भी अंदाज़ा लगा लेता है कि ये राहें उसकी जानी पहचानी हैं या नहीं , क्योंकि जाने पहचाने रास्तों पर कदम कभी सोच समझ कर नहीं पड़ते बस पड़ते जाते हैं ।
ज़ाहिर था वो इसी गांव की ही बाशिंदी थी । मेरे क़रीब पहुंचते उसने अपनी एक सपाट निग़ाह मेरे चेहरे पर डाली , इसकी चाल की रिदम कुछ पल को टूटी । उसकी मेरे वज़ूद से पार जाती नज़र से नज़र मिलते ही न जाने मेरे दिल में एक धमक़ सी हुयी , जैसे किसी ने उस पर एक ज़ोरदार घूंसा चलाया हो। मैं उसे पहचानता नहीं था ,पर उसके चेहरे को देख़ते ही मेरा ज़ेहन जैसे मुझे बताने लगा , इसका सब कुछ लुट चुका है , इसका घर , इसका परिवार इसकी इज़्ज़त- आबरू सब कुछ , किसने लूटा क्यूं लूटा ये कुछ नही ज़ानती ,वो तो उनको पहचानती भी नहीं थी , कौन थे वो दहशतग़र्द या अपने ही देश के फ़ौज़ी , नहीं मालूम । उसकी नज़रों का सूनापन वो ठंडापन मेरी रीढ़ की हड्डी में कंपकंपी भर गया , दूर भीतर कहीं मेरी अंतरात्मा चित्कारी , –“राघव , बचा ले इस बेचारी को , राघव रुक जा दो घड़ी को , बात कर ले उससे , अरे इतना तो पूछ ले कौन है ये , कहां जा रही है ? हाथ बढ़ा रोक़ ले इसका रास्ता , विश्वास मान रुक जायेगी ये , एक बार कुछ बोल ही दे उसे ।
(इसे पढ़ कर मैने पहली बार जाना कि इस तहरीर को लिख़ने वाले का असली नाम राघव है ) , मैने आगे पढ़ना ज़ारी रखा । राघव उर्फ़ प्रबल ने आगे लिखा था –
“पर पता नहीं मैं कुछ कर क्यूं नहीं पाया , ना तो उसे रोकने की कोशिश की ना ही कुछ बोलने या पुछने की । ये उपर से शान्त दिखते भीतर से ख़दबदाते इस इलाके में मेरे अपने वज़ूद और मेरे काम की अनिश्चितता थी , मैं रुका नहीं , एक दूसरे को क्रास करते विपरीत दिशा की ओर बढ़ते हुये ज़ल्द ही हमारी पीठें एक दुसरे की ओर थीं । मैं पुल के दूसरे मुहाने के क़रीब पहुंचा भी नहीं था कि एक ज़ोरदार छ्पाक की आवाज़ आयी , अचानक मैनें मुड़कर पीछे देखा वो पुल पर नहीं थी , अचानक मेरी नज़र पुल के नीचे उस पहाड़ी नदी के पत्थरों से उबल-उबल कर आती रक़्त-धारा पर पड़ी । खून का वो लावा नदी की पतली धार को लाल किये दे रहा था । “ हे ईश्वर ये क्या हो गया” , मेरी दोनों टांगे बेक़ाबू हो , थरथराने लगी ।ज़िस्म का बोझ अपने क़दमों पर न संभाल पाने में मज़बूर हो मैं भरभरा कर पुल पर ही बिख़र गया था । पथरायी आंखों से आंसू की बेकाबू धार मेरी शर्ट भिगोने लगी थी , गले से ज़िबह होते ज़ानवर की तरह चित्कार निकल रही थी , मेरे पैरों की एड़ियां लकड़ी के पुल के ज़र्ज़र होते फ़ट्टों से रगड़-रगड़ कर लहूलुहान हो रही थी , मैं बुक्का फ़ाड़ के रो रहा था ,चिल्ला रहा था , मैं उसे बचा सकता था ,बस उसका रास्ता ही तो रोकना था ,दो बातें कर लेता उससे तो क्या चला जाता मेरा , वो बच जाती जरूर बच जाती । उसकी आंखे भी तो यही कह रही थी , कोई नहीं बचा मेरा , तुम ही आख़री उम्मीद हो , अरे कुछ तो बोलो मुझसे , बोल नहीं सकते तो एक चांटा मार कर रुला ही दो मुझे ।पर मैनें कुछ नहीं किया , हे ईश्वर इस पाप के बोझ को उठाये-उठाये कब तक जी पाऊंगा । मैं उसे बचा सकता था , बचा सकता था ।
मैं आज़ बिल्कुल टूट गया हूं , मैनें कल से कुछ भी खाया – पिया नहीं , मेरी आंखों से बहते आसूं गालों पर नमकीन पपड़ियों से जम कर चिकट गये हैं , दिल कचोट- कचोट कर बेदम हुआ जा रहा है , गले में कांटे चुभ रहे हैं , मेरे साथ उस मरघटी कस्बे से लौटते वक़्त जो हादसा हुआ ,हे ईश्वर मैं उस बोझ के साथ अब जीना नहीं चाहता , मेरी अंतरात्मा मुझे कभी चैन से जीने नहीं देगी ।मेरे जीवन की समाप्ति ही शायद मुझे इस बोझ से मुक्त कर सकती है शायद । मैं अपनी डायरी के इस पन्ने पर यह पत्र लिख रहा हूं , क्यों लिख रहा हूं , एक ऐसे अपराध की आत्मस्वीकृति के लिये जो अन्जाने में मुझसे हो गया , एक भार मुक्ति के लिये किया गया कंफ़ेशन या ये मेरा अंतिम पत्र साबित होगा कह नहीं सकता । जो भी होगा वो तो कल सुबह का सूरज़ ही बतायेगा । मैं यह लिख रहा हूं , बाहर अचानक तीखा सायरन बज़ा है ,ये क्या ?? शायद लाउड-स्पीकर से कोई घोषणा हो रही है “ इस इलाके में कर्फ़्यू लगा दिया गया है, आप सबसे अपील की जाती है , अपने – अपने घरों से बाहर न निकलें , हमें ख़बर मिली है कि कुछ विद्रोही और उनके बाहरी सहयोगी इसी मुहल्ले में छुपे हैं , उन्हें तलाश कर रहे सुरक्षा –बल के जवानों का सहयोग करें , अन्यथा किसी कार्यवाही के लिये आप स्वयं जिम्मेदार रहेंगे । हे ईश्वर अब क्या होगा , मैं जानता हूं , ये किसकी तलाश में आये हैं ,मेरा खून ज़म रहा है , बाहर अचानक गोलियां चलने की आवाज़ें आने लगीं , क्या आज़ मेरी भी बारी है ? क्योकि गोली चलेगी तो वो देखती नहीं कि सामने कौन है , गोलियों और फ़ौज़ी बूटों का शोर मेरी बिल्डिंग के करीब आता लग रहा है , क्या मुझे उस लड़की के मौत के प्रायश्चित का अवसर भी नहीं मिल पायेगा अपनी आत्मा के बोझ को मैने इन पन्नों पर उतार दिया है , हे ईश्वर तू इसे ही मेरा प्रायश्चित मान , मेरी आत्मा को इस बोझ से मुक्ति दे । अब आगे क्या होगा मैं नहीं जानता , मेरा यहां मरना ही शायद मेरा प्रारब्ध था , बस किस तरीके से ये होगा वो अब तक सामने नही आ पाया है आगे लिख पाना मुश्किल है ……………॥
इस पत्र के आख़िरी में कुछ लाईनें और भी लिखीं गयी थीं पर वो पढ़ी नहीं जा पा रही थीं । शायद लिखते वक़्त हर्फ़ों की उस ज़ानलेवा तपिश को शांत करने उन पर उस रिपोर्टर के आंखों से बरसती बूंदें दौड़ पड़ी थीं ।राघव के लिखे उस पत्र को बार-बार पलट-पलट कर न जाने मैं क्या ख़ोजना चाह रहा था , क्या जानना चाह रहा था , मैं खुद नहीं समझ पा रहा था ।
खत समाप्त हो गया ?? मुझे विश्वास नहीं हो रहा था , ये जानते हुये भी कि तिसरा पन्ना मेरे पास नहीं है , मैं पागलों की तरह उसे खोजने की कोशिश की , इस पत्र को मैं क्या मानूं उसका सुइसाइड-नोट , उसका कफ़ेशन या उसका महज एक आखरी ख़त । कई सवाल एक बारगी मेरे मन में कुलबुलाने लगे , क्या पश्चाताप में प्रखर छ्द्मनामी इस राघव ने आत्महत्या कर ली या सुरक्षा-बलों या यू एन एल एफ़ ने उसे दूसरे का भेदिया समझ मार गिराया । पहचान तो सच्ची थी भी नहीं सो कभी सच्चाई सामने आ भी नही सकती थी ।क्या हुआ होगा आगे ,मैं ये जानने को बेचैन भागता हुआ उस सिंगदाने वाले के खोमचे की ओर दौड़ पड़ा, शायद आगे पीछे के कुछ पन्ने मिल जायें , पर वो जगह अब सुनसान थी ।
हांफ़ता हुआ वहां पड़ी बेंच पर पसर गया ,मैने अपने मन को समझाया ये भी तो हो सकता है कि वो सकुशल लौट गया हो और यहां से जाते वक़्त वो अपने फ़ालतू समानों के साथ इस डायरी को भी रद्दी में बेच गया हो। जहां से वो कई कबाड़ी वालों के हाथों से चलती इतनी दूर इंफ़ाल में इस सिंगदाने वाले के हाथ आ गयी हो। कुछ भी हुआ हो , छ्द्म नाम “प्रखर” और उसका असली वज़ूद दोनों अपनी जिस पूर्व निर्धारित प्रारब्ध , अपनी डेस्टिनी को पा गये थे , वो शायद मैं कभी भी नहीं जान पाउंगा ।
मैं फ़िर से सोच में पड़ गया , राघव तो एक ट्रेंड प्रोफ़ेशनल था , हत्या विभिषिकाओं के दृश्य , कई निर्दोषों को लाचारी में दम तोड़ते उसने जाने कितनी बार देखा होगा , जब तब उसका दिल नहीं पसीजा , तब वो तटस्थ कैसे बना रह पाया। हो सकता है वो ऐसे मौकों पर अपने आपको या तो पोशीदा रख पाता हो या उसकी आंखे किसी दम-तोड़ती की आंखों से न मिल पातीं हों और वो उनकी अपनी जान की भीख़ मांगती याचना की मांग से अपने को नि:स्पृश्य रख पाता हो । पर यहां मामला शायद अलग था , मरने से पहले उस लड़की की याचना भरी नजरों से उसकी नजरें मिली थीं , जिसने उसके अंतर्मन पर चोट की थी , उसका आर्तनाद उसने अपने दिल में महसूस किया था , उसे हाथ बढ़ा कर बचा लेने की उसकी प्रार्थना को उसने महसूस किया था , सब समझने के बाद भी उसने उसे बचाने के लिये कुछ नही किया था , वो स्वार्थी और बेरहम हो गया था , शायद इसीलिये उस लड़की की मौत ने उसे क्यूं इतना हिला दिया कि पश्चाताप में वो अपनी जान देने को उतारू हो गया । सोचते सोचते मेरे जेहन में दुर्भिक्ष की फ़ोटोग्राफ़ी करने वाले एक विश्वप्रसिद्ध दक्षिण-अफ़्रीकी फ़ोटोग्राफ़र की जीवनी घूम गयी , उसका नाम था “केविन कार्टर” । मार्च 1994 के दरम्यान का वक़्त था , जब केविन कार्टर , सूडान की अपनी पत्रकारिता की यात्रा पर था । गृह-युद्ध और भीषण अकाल में मरते इस देश में उसने भूख से तड़पते और दम तोड़ते करीब के यू एन के राहत कैंप की ओर बढ़ने की करती एक बच्ची की फ़ोटो खींची थी , जिसके पीछे-पीछे एक गिध्द भी चला आ रहा था ,जो उस असहाय बच्चे की सांस टूटने का इंतज़ार कर रहा था ,कि वो दम तोड़े तो वो उसे अपना आहार बना ले । केविन कार्टर ने अपना कैमरा सेट किया और वो विश्वप्रसिध्द और विवादस्पद तस्वीर खींच ली । उस बच्चे को गिध्द के रहमोकरम पर वैसे ही तड़पता छोड़ वो अपना सामान समेट कर संयुक्त-राष्ट्र-संघ के उस राहत केंद्र की ओर बढ़ गया जो वहां से महज़ 30 मीटर की ही दूरी पर ही था । राहत केंद्र पर तभी एक उड़ान पहुंची थी , और वहां घोषणा की गयी थी कि केवल 30 मिनटों तक ही भोजन और पानी के पैकेट्स बटेंगे , जिसे पाने के लिये भूखे-नंगे लोग अपने बच्चों को पीछे छोड़ कर भागे आये थे ताकि खुद को और अपने बच्चों को बचाने के खातिर कुछ पा सकें ।

न्यूयार्क-टाइम्स :: “भूख़ से मरती सूडानी बच्ची”

कुछ देर बाद केविन कार्टर भी उस राहत विमान में बैठ कर उड़ गया । बाद में उस बच्चे का क्या हुआ , कोई नहीं जानता , पर केविन के उस चित्र को न्यूयार्क-टाइम्स ने “भूख़ से मरती सूडानी बच्ची” शीर्षक से छापा , जिसके लिये केविन कार्टर को 1994 का “ फ़ीचर्ड फ़ोटोग्राफ़ी का पुलित्ज़र अवार्ड” मिला । इस चित्र के छपने के साथ ही दुनिया भर में बहस छिड़ गयी ,एक ओर प्रोफ़ेशनल्स थे तो दूसरी ओर मानवतावादी । सबके अपने अपने तर्क थे । मानवतावादी मानते थे कि बच्ची का जो भी प्रारब्ध था वो था, पर केविन को उसे मरता हुआ यूं छोड़ के जाना नहीं चाहिये था , महज 30 मीटर दूर उस राहत केंद्र तक़ तो वो उसे पंहुंचा ही सकता था । एथिक्स की बात करें तो एक तरफ़ गिध्द है ,जो एक विरोध कर पाने में असमर्थ उस बच्ची को महज इसलिये चोट नहीं पहुंचा रहा था , क्यूं कि उसकी सासें चल रही थी , दूसरी ओर केविन था , एक इन्सान !!, ठीक है वो सूडान का गृह-युध्द नहीं रोक सकता था , लोगों को भुख़मरी से मरने से नहीं बचा सकता था । पर उस मासूम को राहत केंद्र तक तो पहुंचा ही सकता था , आगे उसका भाग्य था । अपनी अंतरात्मा की कचोट के चलते अवसाद में आखिरकार उसने 27 जुलाई 1994 को आत्महत्या कर ली ।
मेरी नज़र एक बार फ़िर मेरे हाथों में जकड़ कर रखे उन कागज़ के टुकड़ों पर पड़ी , कहीं “प्रखर” ने भी तो “ केविन” की तरह ?? नहीं…… ऐसा नहीं होना चाहिये ……। पर मैं भी तो बेबस था, ना तो मैं मिटे अक्षर पहचान सकता था ना ही इसके आगे का कोई पन्ना ही मेरे पास था ।
जाने कितनी देर से बैठा था यहां ,जाने कब से बिजली भी गुल थी ,मैं घुप्प अंधेरे में इतनी देर से बैठा था अचानक मेरे सिर के ऊपर लटके लैंप-पोस्ट का बल्ब रोशन हुआ , तब मैं तंद्रा से जागा । उसी समय मेरे ज़ेब में पड़ा मोबाइल बज़ा ,
“हलो” – मैने अपनी आवाज़ को यथा सम्भव सहज बनाये रखते हुये कहा ।
दूसरी ओर मेरी बड़ी बेटी थी “आद्या” , उसकी चिंताकुल आवाज़ आयी – “कहां हो पापा , होटल में अभी तक बिज़ली भी नहीं थी , फ़ोन का नेट्वर्क भी नहीं मिल रहा था”
“कहीं नहीं बेटा, बस यहीं पास ही में एम जी रोड पर टहल रहा हूं , तुम लोग डिनर के लिये तैयार हो जाओ , मैं बस दस मिनट में पहुंचता हूं” – मैने जवाब दिया और फ़ोन काट दिया ।
हाथ में पकड़े उन कागज़ों को मैने करीने से तह कर अपनी ज़ेब में रख लिया , अब ये यूं ही नहीं ख़ोयेंगे , इन्हें इनका प्रारब्ध भी आखिरकार मिल गया था , मेरे हाथों सहेजे जा कर , मेरी स्क्रैप बुक़ का हिस्सा बन कर , आज के बाद से ये मेरी स्मृति के कोलाज़ बनकर सदा के लिये मेरे वज़ूद का हिस्सा बन जायेंगे ।
 

 


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