नई जिम्मेदारी
नई जिम्मेदारी
“आन्या बेटा नाश्ते में क्या खाओगी आज?” अरुणा ने किचन से आवाज लगाई तो आन्या ने आकर बड़े लाड से उसके गले में बांहे डालकर कहा-
“कुछ भी बना लो माँ तुम्हारे हाथ का बना तो सब अच्छा लगता है।”
“चल तुझे गोभी के पकौड़े पसंद हैं न तो आज वही बना लेती हूँ, और पकौड़ों के साथ सूजी का हलवा तो है ही तेरा फेवरेट।” कहते हुए अरुणा ने एक कडाही में सूजी भूनने रख दी। आन्या गोभी काटने लगी। माँ बेटी साथ में काम करते हुए बातें करती जा रही थी।
आन्या पूना में हॉस्टल में रहकर इन्जिनीरिंग कर रही थी। हर चार-छह महीनों में दस –पन्द्रह दिनों के लिए घर आ जाती थी। लेकिन इस बार पूरे एक साल बाद वह घर आ पाई थी। साल भर तक मेस का खाना खा-खाकर वह बुरी तरह उकता चुकी थी। इसलिए इस बार जब से वह घर आई थी तब से अरुणा उसे रोज़ उसकी पसंदे की नई-नई चीजें बनाकर खिला रही है।
“ क्या बात है आज तो किचन से बड़ी अछि खुशबु आ रही है” आन्या के पिता अरविन्द किचन में आते हुए बोले। “ भई आन्या के आने से हमें भी अच्छी चीजें खाने को मिल जाती हैं। वरना साल भर से खाने में मजा ही नहीं आ रहा था। तुम्हारी माँ बस सब्जी रोटी दाल बनाकर सामने रख देती थी कि खा लो।”
“अच्छा और आपकी फरमाइश पर मलाई कोफ्ते और मालपुए बना-बनाकर नहीं खिलाये?” अरुणा ने झूठ मुठ आँखे तरेरी।
“ अरे वो तो छठे चौमासे कभी बन जाते थे। पर अब तो नित-नये पकवान मिल रहे हैं न।” अरविन्द ने हँसते हुए कहा।
हलवा और पकौड़े बन गये थे। आन्या ने चार प्लेटें लगा ली।
“पिताजी को तो उनके कमरे में ही दे आओ।” अरुणा ने अरविन्द के हाथ में प्लेटे देते हुए कहा।
“ चलो न माँ, दादाजी डायनिंग रूम में बैठकर खाना नहीं खाते तो हम सब ही उनके कमरे में चलकर बैठते हैं।” आन्या ने दो प्लेटें हाथ में उठाते हुए कहा।
सब लोग दादाजी के कमरे में बैठकर नाश्ता करने लगे। कमरे में टीवी चल रहा था। आन्या ने कोशिश की दादाजी को बातचीत में शामिल करने की लेकिन दादाजी अनमने से ही रहे ‘हाँ’-हूँ’ करके फिर टीवी में ही मग्न हो जाते।
आन्या जबसे आई है तब से ही देख रही है कि दादाजी पूरे समय अपने कमरे में ही बैठे-बैठे टीवी देखते रहते हैं। कहीं बाहर आते-जाते नहीं, यहाँ तक कि खाना भी अपने कमरे में बैठकर ही खाते हैं। जबकि पहले दादाजी कितने एक्टिव थे। हमेशा हँसना, बातें करते रहना, किसी न किसी काम में लगे रहना।
दोपहर को काम से फुर्सत पाते ही जब अरुणा और आन्या बातें करने बैठीं तो आन्या दादाजी के बारे में बात करने लगी।
“कितने जिंदादिल थे दादाजी। अब क्या हो गया उन्हें। साल भर में तो एकदम ही बदल गये हैं। पहले तो सारा दिन कुछ न कुछ करते रहते थे। एक जगह पर बैठे रहना तो उन्हें बिलकुल पसंद नहीं था। और अब तो कमरे से ही बाहर नहीं निकलते।”
“ हाँ बेटा हम भी तो उन्हें कितना कहते हैं कि मन्दिर तक हो आओ, वहां शाम को उनकी उम्र के सारे बुजुर्ग इकठ्ठा होते हैं लेकिन वो घर से बाहर निकलकर किसी से मिलना-जुलना ही पसंद नहीं करते। उन्होंने तो अपने आपको एक कमरे में ही बंद कर लिया है।” अरुणा ने बताया।
अगले दिन बगीचे में माली को काम करते देख कर आन्या ने अरुणा से पूछा-“ माँ ये माली तुमने कबसे रखा है? पहले तो बगीचे का सारा काम दादाजी ही करते थे न?”
“हाँ आन्या पर अब उनकी उम्र को देखते हुए उन्हें मेहनत वाले सारे काम नही करने चाहिए। अब उनके आराम करने के दिन हैं। साड़ी उम्र तो बेचारे भागदौड ही करते रहे हैं। अब तो उन्हें आराम मिलना ही चाहिए।”
अरुणा ने जवाब दिया और हरी को पैसे और लिस्ट देकर सामान लाने बाज़ार भेजा। फिर अरुणा कुछ काम से अंदर चली गयी।
आन्या झूले पर बैठकर माली को काम करते देखती रही। वह पिछले चार दिनों से लगातार दादाजी के बारे में सोच रही थी। पहले बगीचे में पानी देना, क्यारियां बनाना, नए पौधे, खाद, गमले लाना, गुड़ाई करने का काम दादाजी खुद ही करते थे। बाज़ार से सामान-सब्जियां भी दादाजी ही लाते थे। चुन-चुन कर, देख परख कर सामान-सब्जियां लाना, किराना लाना। अब माँ ने उपर के छोटे-मोटे कामों के लिए हरी को रख लिया है। आन्या को दादाजी की उदासी और स्वाभाव में आये बदलाव की वजह समझ में आ गयी।
दरअसल दादाजी शुरू से ही बहुत एक्टिव रहे हैं। उन्हें हमेशा काम में मसरूफ रहना ही अच्छा लगता है। रिटायर होने के बाद भी उन्होंने अपने आपको पूरे समय अलग-अलग कामों में बिजी रखा। वे हमेशा से कहते हैं
“ जिन्दगी में हर एक दिन का कोई न कोई उद्देश्य होना चाहिए। बिना उद्देश्य के जिन्दगी तो मौत के समान है"
। उन्हें जिम्मेदारियां निभाना भी बहुत अच्छा लगता है। अपने घर की ही नहीं वे तो दौड़-दौड़ कर दूसरों की भी जिम्मेदारियां अपने सर ले लेते थे। फुर्सत में बैठकर यहाँ-वहां गप्पे हांकना तो उन्हें बिलकुल पसंद नहीं था।
“ये तो बड़े-बूढों का ,जिंदगी काटने का साधन है। जिनके पास कोई काम नहीं होता वो लोग ही चौपालों पर बैठकर गप्पे मारते हैं। मैं तो अभी एकदम फिट हूँ। मेरे पास इतने सारे काम हैं हर दिन।”
इतने एक्टिव, हर काम में आगे रहने वाले दादाजी अब अपने कमरे में अकेले चुपचाप टीवी के सामने बैठे रहते हैं। आन्या समझ गयी कि माली के आने से और बगीचा संभाल लेने से दादाजी को अपनी जरूरत वहां खत्म होती नजर आई और उन्होंने खुद को पेड़- पौधों की देखरेख से अलग कर लिया। यही हाल हरी के आ जाने से सामान- सब्जी लाने के मामले में हुआ। आन्या के हॉस्टल चले जाने से उसको पढाने की जरूरत भी खत्म हो गयी।
“तुमने दादाजी को सारे कामों से छुट्टी देकर उनकी नजरों में उनकी जिन्दगी की जरूरत को ही एक तरह से खत्म कर दिया माँ। अब वो खुद को घर में गैरजरूरी मानकर टूट गये, उदास हो गये हैं। उन्हें लगता है कि अब उनके जीने की कोई जरूरत ही नहीं रह गयी। मैं जानती हूँ कि तुमने जो सोचा उनके आराम के लिए ही सोचा। पर माँ सबकी जरूरतें अलग होती हैं। इच्छाएं अलग होती हैं। कोई रिटायर होने के बाद आराम करना चाहता है तो कोई आखरी दम तक काम करते रहना चाहता है। अब तुम दादाजी पर फिर से थोड़े बहुत काम की जिम्मेदारी डालना शुरू करो ताकि उन्हें लगे कि इस घर को, हमें अब भी उनकी जरूरत है। हमे उनके साथ की जरूरत है।” आन्या ने अरुणा को समझाया।
“तू जैसा कहेगी मैं वैसा ही करुँगी। क्योकि मैं किसी भी तरह से पिताजी को फिर से पहले जैसा ही हँसते-मुस्कुराते देखना चाहती हूँ।” अरुणा ने कहा।
आन्या ने भी सोच लिया कि उसके छुट्टी के अभी बीस दिन बाकि हैं उसके पहले जैसे भी होगा वह दादाजी को पहले वाले दादाजी बनाकर ही वापस जाएगी।
आन्या ने दुसरे दिन सुबह से ही अपने प्लान पर काम करना शुरू कर दिया। दादाजी को रोज सुबह पांच बजे उठने की आदत थी। आन्या भी सुबह पञ्च बजे ही उठ गयी। उनके पास जाकर बोली-
“ दादाजी बैठे-बैठे पढ़ते रहने से मेरे पैर स्टिफ हो गये हैं। घुटने में दर्द होने लगा है। डॉक्टर ने मुझे पैदल घुमने को कहा है। खास तौर पर सुबह के समय। वहां पूना में तो मैं अपनी फ्रेंड के साथ मोर्निंग वाक पर जाती हूँ लेकिन यहाँ आप मेरे साथ चलिए न, इतने अँधेरे में मुझे अकेले जाने में डर लग रहा है। मम्मी –पापा सो रहे है। और अकेले जाने में बोरियत भी होती हैं न।”
दादाजी पलभर को आन्या को देखते रहे फिर तुरंत खुश होकर बोले-
“हाँ क्यों नहीं! जब हमारी बिटिया को जरूरत है तो हम जरुर उसके साथ जायेंगे। चलो सेहत तो सबसे पहले है। सेहत के साथ कोई समझौता नहीं।” दादाजी ने कहा और तुरंत ही पैरों में चप्पल पहनकर वे आन्या के साथ बाहर निकल आये।
आधा घंटे तक दादा-पोती मोर्निंग वाक करते रहे। आन्या ने दादाजी से ढेर सी बातें की। फिर दोनों पास के एक पार्क में जाकर बेंच पर बैठ गये। बहुत दिनों बाद दादाजी ठंडी हवा में घुमने निकले थे। वो बहुत खुश नज़र आ रहे थे।
आन्या दादाजी के साथ अपने बचपन की बाते करने लगी। दादाजी भी उसके बचपन की खट्टी-मीठी यादों में खो गये। वो भी ढूढ कर पुरानी बातें याद करके उसे सुनाने लगे। फिर उसके पिताजी के बचपन की बातें निकल आयीं। दादाजी ने ऐसी-ऐसी मजेदार बातें बताई कि हँसते-हँसते आन्या का पेट दुखने लगा। आन्या ने पिछले पांच दिनों में पहली बार दादाजी को हँसते हुए देखा था। कुछ ही देर में सूरज की लालिमा आसमान में पूरब तरफ दिखाई देने लगी। बैंच के पीछे लगी बोगनवेलिया की झाड़ीयों में चिड़ियाएँ और दूसरे पंछी उठकर चहचहाने लगे और फुदक-फुदक कर दाना-पानी ढूंढने लगे।
“कल से हम इन नन्हे पंछियों के लिए दाने लाया करेंगे दादाजी। कितना अच्छा लग रहा हैं न यहाँ।” उन पंछियों को देखकर आन्या भी ख़ुशी से चहकने लगी।
थोड़ी देर और चिड़ियों और परिंदों का चहकना और सुबह का उनका फुदकना देखकर दोनों खुश होते रहे फिर घर आ गये।
आज दादाजी ने सबके साथ डायनिंग टेबल पर बैठकर ब्रेकफास्ट किया। अरविन्द बहुत खुश थे अपने पिता को हँसते और सबसे बाते करते देखकर।
ब्रेकफास्ट के बाद अरुणा ने आकर कहा-
“ पिताजी आप हरी के साथ जरा बाज़ार तक जाकर फल-सब्जियां ले आयेंगे क्या? हरी को तो अभी ताज़ी-बसी सब्जियों की परख ही नहीं है। अच्छा-बुरा कुछ भी उठा लाता है।”
“हाँ-हाँ क्यों नहीं बहु अभी ले आता हूँ। ये तो मेरा पसंदीदा काम है ताज़े फल-सब्जियां चुनकर लाना।” कहकर दादाजी हरी के साथ बाज़ार चले गये।
अरुणा देखकर हैरान भी थी और खुश भी थी कि कमरे में पीठ झुकाकर चलने वाले पिताजी कितने उत्साह और जोश के साथ सीधे तनकर बाज़ार जा रहे हैं।
आन्या सच ही कहती है आदमी उम्र और शरीर से बूढा नहीं होता, मन से होता है। जब तक मन में काम करने की हिम्मत और इच्छा है आदमी को तब तक बिजी ही रहना चाहिए। अरुणा ने बेकार ही उन्हें आराम करने को बोलकर उलटे बीमार और उदास कर दिया था।
आन्या ने तय कर लिया था, वह हॉस्टल वापस जाने से पहले दादाजी को कुछ ऐसी जिम्मेदारियां दे कर जाएगी कि उनका मन लगा रहे और वो दुबारा खुद को गैरजरूरी न समझने लगे फिर से वैसे ही।
“इस माली की देखभाल में तो कुछ मजा ही नहीं आ रहा दादाजी। देखिये न बगीचा कैसा खाली-खाली सा लग रहा है। पेड़ भी मुरझाये से हो रहे हैं। जब आप बगीचा संभालते थे तब पौधे कितने हेल्दी और सुंदर थे। याद है न पिछले साल कितने बड़े-बड़े गुलाब खिले थे, और कितने सारे भी। पेड़ लद गये थे फूलों से। चलिए आज हम नर्सरी से कुछ पौधे लें आते हैं और हम दोनों मिलकर ही उन्हें क्यारियों में लगायेंगे भी। बाउंड्री वाल के बाहर भी खाली जगह है वहां भी छायादार पौधे लगा देते हैं।” आन्या ने दादाजी पर एक और जिम्मेदारी डाल दी।
अरुणा तो सुखद आश्चर्य से भर गयी। जो पिताजी पिछले छः महीनों से ‘घुटने में दर्द है कभी कमर में दर्द है कह कर मन्दिर तक भी नहीं जाते थे वह आज उकडू बैठकर मिट्टी खोदकर क्यारियां तैयार कर रहे थे और पौधे लगा रहे हैं।
“जब तक इन्सान खुद को थका हुआ महसूस न करे तब तक उसे जबरदस्ती इस बात का अहसास करवाकर बेकार ही पलंग पर नहीं बिठा देना चाहिए। काम करने से रोकना नहीं चाहिए। अच्छा तो यही है कि इन्सान आखरी पल तक अपनी पसंद का काम करके खुद को फिट और हेल्दी रखे और जिन्दगी के आखरी पल तक जोश से जिए।”
आन्या ने कितना सही कहा है।
अगले दस दिनों में आन्या के साथ दादाजी फिर पहले वाले दादाजी बन गये। पार्क में दोनों नियम से दाना-पानी ले जाते। अब तो पंछी उनके जाते ही चरों और जमा हो जाते और ची-ची, चूं-चूं का शोर मचाने लगते। और दानों के लिए उनके आसपास फुदकने लगते।
जाने के दो दिन पहले आन्या ने दादाजी से कहा- “ इन पंछियों को दाना-पानी देने की जिम्मेदारी अब आपकी दादाजी। वादा करिये अप रोज़ यहाँ आकर इन्हें खाना देंगे। देखिये ये रोज़ कैसे हमारी राह देखते हुए दाने की आस लगाये बैठते हैं। और मेरे पौधों को पानी देने की जिम्मेदारी भी आपकी।”
“हाँ बिटिया जरुर। मैं दोनों ही काम नियम से करूँगा।” दादाजी ने लाड से कहा।
“ थैंक यू दादाजी।” आन्या ने कहा तो दादाजी उसके सर पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोले –
“थैंक यू तो मुझे तेरा कहना चाहिए। तुमने तो मेरी जिन्दगी को इतना प्यारा सा साथ और जिम्मेदारी दे दी है। मैं जानता हूँ कि तुमने ये सब जानबुझकर सिर्फ मेरे लिए ही किया है। लेकिन सच तुमने तो मुझे एक बार फिर से उसी पुराने जोश से भर दिया है। मेरे पुराने दिन लौटा दिए। थैंक यू आन्या बिटिया, थैंक यू वैरी मच।”
आन्या ने लाड से दादाजी के कंधे पर सर रख दिया। आसपास पंछी चहचहा रहे थे।