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द्वंद्व युद्ध - 16 .1

द्वंद्व युद्ध - 16 .1

13 mins
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शहर को सिर्फ एक ही रास्ता जाता था – रेल-पथ से होकर, जो इस स्थान पर अचानक एक गहरे गढ़े से होकर गुज़रता था। रमाशोव संकरी, बढ़िया समतल, लगभग खड़ी पगडंडी से फुर्ती से नीचे दौड़ा और कठिनाई से दूसरी ओर की चढ़ाई चढ़ने लगा। चढ़ाव के बीच से ही उसने ग़ौर किया कोई बंद गले का कोट पहने और कंधे पर ओवरकोट डाले खड़ा है। कुछ सेकंड ठहर कर आँखें सिकोड़ कर देखने के बाद उसने निकोलाएव को पहचाना अब सबसे अप्रिय बात होने वाली है, रमाशोव ने सोचा। ख़तरे की आशंका से उसके दिल में पीड़ा होने लगी। मगर फिर भी वह नम्रतापूर्वक ऊपर चढ़ा।  दोनों अफ़सरों ने पाँच दिनों से एक दूसरे को देखा नहीं था, मगर न जाने क्यों इस समय मिलने पर उन्होंने एक दूसरे का अभिवादन नहीं किया, और न जाने क्यों रमाशोव को इसमें कोई असाधारण बात नज़र नहीं आई, जैसे कि इस बदनसीब, भारी दिन कोई और बात हो ही नहीं सकती थी। उनमें से किसी ने भी अपनी कैप तक हाथ भी नहीं उठाया।

 “मैं जानबूझकर यहाँ आपका इंतज़ार कर रहा था, यूरी अलेक्सेयेविच,” निकोलाएव ने रमाशोव के कंधे से परे दूर कहीं छावनी की ओर देखते हुए कहा।

 “आपकी ख़िदमत में हाज़िर हूँ, व्लादीमिर एफ़िमीच,” रमाशोव ने झूठी बेतकल्लुफ़ी से, मगर कंपकंपाती आवाज़ में कहा। वह झुका, पिछले साल की सूखी हुई भूरी घास का डंठल तोड़ा और उसे यूँ ही चबाने लगा। साथ ही वह ध्यानपूर्वक देख रहा था कि निकोलाएव के कोट की बटनों में कैसे उसकी आकृति परावर्तित हो रही है: छोटा सा संकरा सिर और पतली पतली टाँगें, मगर किनारों पर बड़े भौंडेपन से फूली हुई।

 “मैं आपको रोकूँगा नहीं, मुझे सिर्फ दो लब्ज़ कहना है,” निकोलाएव ने कहा।

वह बड़ी नर्मी से, स्वयँ पर सँयम रखने का निर्णय कर चुके, मगर तैश में भड़के और ग़ुस्साए हुए आदमी की प्रयत्नपूर्वक ओढ़ी गई सौजन्यता से शब्दों का उच्चारण कर रहा था। मगर चूँकि एक दूसरे की आँखों को टालते हुए बात करना क्रमशः अधिकाधिक अटपटा होता जा रहा था, अतः रमाशोव ने प्रश्नार्थक सुझाव रखा, “तो चलें?”

आने जाने वालों के पैरों द्वारा कुचली गई लहरिया पगडंडी एक बड़े गन्ने के खेत से होकर गुज़रती थी। दूर शहर के छोटे छोटे सफ़ेद घर और लाल लाल कबेलुओं की छतें दिखाई दे रही थीं। दोनों अफसर साथ साथ चल रहे थे, एक दूसरे से दूर हटते हुए और अपने पैरों के नीचे घनी, भरपूर, करकराती हरियाली के बीच से होते हुए। कुछ देर दोनों ख़ामोश रहे। आख़िरकार पहले निकोलाएव ने ज़ोर से, और बड़ी मुश्किल से देर तक गहरी साँस लेते हुए कहा, “सबसे पहले मुझे सवाल पूछना होगा: आप क्या मेरी बीबी, अलेक्सान्द्रा पेत्रोव्ना के प्रति यथोचित सम्मान प्रदर्शित करते हैं?”

 “मैं समझ नहीं पा रहा हूँ, व्लादीमिर एफ़िमोविच... ” रमाशोव ने प्रतिवाद किया।  “मुझे भी, अपनी ओर से, आपसे पूछना पड़ेगा.. ”

 “माफ़ कीजिए!” निकोलाएव अचानक गरम हो गया। “एक के बाद एक पूछेंगे, पहले मैं, और बाद में आप। वर्ना हम कुछ भी न कह पाएँगे। साफ़ साफ और सीधी सीधी बात करेंगे। पहले आप मुझे जवाब दीजिए: क्या आपको ज़रा भी इस बात में दिलचस्पी है कि उसके बारे क्या क्या कहते हैं, कैसी कैसी अफ़वाहें फैलाई जा रही हैं? तो, एक लब्ज़ में... शैतान! उसकी इज़्ज़्त? नहीं, नहीं, रुकिए, मेरी बात मत काटिए... क्योंकि, मैं उम्मीद करता हूँ कि आप इस बात से इनकार नहीं करेंगे कि आपने उसकी ओर से और मेरी ओर से सिवाय अच्छाई के कुछ नहीं पाया है, और यह कि आपका हमारे घर में एक नज़दीकी, अपने, इन्सान के रूप में स्वागत होता था। ”

रमाशोव ने भुरभुरी ज़मीन पर पैर रख दिया, बड़े भद्दे ढँग से लड़खड़ा गया और शर्म से बड़बड़ाया, “यक़ीन कीजिए, मैं हमेशा आपका और अलेक्सान्द्रा पेत्रोव्ना का आभारी रहूँगा। ”

 “आह, नहीं, ये बात बिल्कुल भी नहीं है। मुझे आपकी कृतज्ञता नहीं चाहिए,” निकोलाएव गुस्से में आ गया, “मैं सिर्फ़ इतना कहना चाहता हूँ कि मेरी बीबी के बारे में गंदी, झूठी अफ़वाहें फैल रही हैं...और, मतलब, जिसका...” निकोलाएव तेज़ तेज़ साँसें लेने लगा और उसने रूमाल से अपना चेहरा पोंछा।  “मतलब, एक लब्ज़ में, यहाँ आप भी उलझे हुए हैं। हम दोनों को – मुझे और उसे – हमें क़रीब क़रीब रोज़ अजीब अजीब से ओछे, बदमाशीभरे गुमनाम ख़त मिलते हैं। मैं उन्हें आपको दिखाऊँगा नहीं...मुझे ये घृणास्पद लगता है। और इन ख़तों में ये लिखा होता है,” निकोलाएव एक पल के लिए लड़खड़ाया, “ओह, शैतानियत! ये लिखा होता है कि आप - अलेक्सान्द्रा पेत्रोव्ना के प्रेमी हैं और ये... ऊ s s s ,  कैसी नीचता!...और, वगैरह, वगैरह। । । कि आप दोनों हर रोज़ छुप छुप के मिलते हैं और जैसे कि सारी बटालियन को इस बारे में मालूम है। घृणित!”

उसने गुस्से से दाँत किटकिटाए और थूका।

 “मुझे मालूम है, किसने लिखा है,” धीमे से रमाशोव ने एक ओर को मुड़ते हुए कहा।

 “मालूम है?” निकोलाएव रुक गया और उसने बड़ी बेदर्दी से रमाशोव को आस्तीन से पकड़ लिया। ज़ाहिर था कि क्रोध की इस लहर ने अचानक उसके कृत्रिम सब्र का बाँध तोड़ दिया। उसकी भैंसे जैसी आँखें चौड़ी हो गईं, चेहरे पर खून उतर आया, थरथराते होठों के कोनों पर गाढ़ा थूक निकल आया। पूरी तरह आगे झुकते हुए और भर्त्सनापूर्वक अपना चेहरा रमाशोव के चेहरे के निकट लाते हुए वह तैश में चीखा: “तो आप चुप कैसे रह सकते हैं, अगर आपको मालूम है तो! आपकी परिस्थिति में हर छोटे से छोटे सज्जन व्यक्ति का ये कर्तव्य है कि हर तरह के सूअरपन का मुँह बन्द कर दिया जाए। सुन रहे हैं आप। । । आर्मी के डॉन जुआन! अगर आप ईमानदार आदमी हैं, न कि कोई...”

रमाशोव ने फक् चेहरे से नफ़रत से निकोलाएव की आँखों में देखा। अचानक उसके हाथ और पैर बहुत भारी हो गए, सिर हल्का हो गया, जैसे एकदम ख़ाली हो, और दिल कहीं नीचे, गहराई में गिर गया और वहाँ पूरे शरीर को झकझोरते हुए बीमार धड़कन से शोर मचाने लगा।

"मैं आपसे विनती करता हूँ कि कृपया मुझ पर चिल्लाईये नहीं। ” खोखलेपन से शब्दों को खींचते हुए रमाशोव ने कहा।  “शराफत से बात कीजिए, चिल्लाने की इजाज़त मैं आपको नहीं दूँगा। ”

 “मैं आप पर बिल्कुल चिल्ला नहीं रहा हूँ,” अभी भी बदतमीज़ी से मगर आवाज़ नीची करते हुए निकोलाएव ने प्रतिवाद किया।  “मैं आपसे सिर्फ प्रार्थना कर रहा हूँ, हाँलाकि मुझे माँग करने का हक़ है। हमारे पुराने संबंध मुझे इस बात का अधिकार देते हैं। यदि आप अलेक्सान्द्रा पेत्रोव्ना के साफ़, निष्कलंक नाम की ज़रा भी इज़्ज़त करते हैं तो आप को इस ज़ुल्म को रोकना होगा। ”

 “ठीक है, मैं हर मुमकिन कोशिश करूँगा,” रुखाई से रमाशोव ने जवाब दिया।

वह मुड़ा और आगे की ओर चल पड़ा, पगडंडी के बीचोंबीच। निकोलाएव ने फ़ौरन उसे पकड़ लिया।

 “और फिर... बस आप, कृपया, ग़ुस्सा न होईए... ” निकोलाएव ने नर्मी से, परेशानी के भाव से कहा। “जब हमने बात शुरू कर ही दी है, तो उसे पूरा करना ही बेहतर है – ठीक है ना?”

 “अच्छा?” रमाशोव ने अर्धप्रश्नात्मक भाव से कहा।

 “आपने ख़ुद ही देखा है कि हम किस सहानुभूति के भाव से आपके साथ पेश आते थे, मतलब, मैं और अलेक्सान्द्रा पेत्रोव्ना, और अब अगर मैं मजबूर हूँ आह, हाँ, आप ख़ुद ही समझते हैं कि इस सड़ियल कस्बे में अफ़वाहों से भयानक और कोई चीज़ नहीं!”

 “ ठीक है,” दुख से रमाशोव ने जवाब दिया। “अब मैं आपके घर नहीं आया करूँगा। आप यही बात मुझसे कहना चाहते थे ना? अच्छा, ठीक है। मगर, मैंने भी आपके यहाँ न आने का फ़ैसला कर लिया था। कुछ दिन पहले मैं सिर्फ़ पाँच मिनट के लिए आया था, अलेक्सान्द्रा पेत्रोव्ना को उसकी किताब लौटाने, और, मैं आपको यक़ीन दिलाता हूँ कि वह आख़िरी बार था। ”

 “हाँ तो, ये... ” निकोलाएव ने कुछ अस्पष्ट सा कहा और सकुचाहट से ख़ामोश हो गया।

इसी पल अफसर पगडंडी से राजमार्ग पर मुड़ गए। शहर तक लगभग तीन सौ क़दम की दूरी थी, और चूँकि अब किसी और बात के बारे में कुछ कहना नहीं था, तो वे एक दूसरे के साथ साथ चलते रहे, चुपचाप, बिना एक दूसरे की ओर देखे। एक ने भी यह नहीं सोचा कि – या तो ठहर जाए या वापस मुड़ जाए। हर पल परिस्थिति बड़ी कृत्रिम और तनाव भरी होती जा रही थी।

आख़िरकार शहर के पहले घरों के निकट उन्हें सामने से आता हुआ कोचवान दिखाई दिया। निकोलाएव ने उसे आवाज़ दी।

 “हाँ, तो, ये... ” फिर से रमाशोव से मुख़ातिब होते हुए उसने अटपटेपन से मिन्न्नत सी की, “तो, फिर मिलेंगे, यूरी अलेक्सेयेविच। ”

उन्होंने एक दूसरे की ओर हाथ नहीं बढ़ाया, बल्कि सिर्फ अपनी अपनी कैप को हाथ लगाया। मगर जब रमाशोव ने धूल में दूर जाते हुए निकोलाएव के सफ़ेद मज़बूत सिर की ओर देखा, तो उसे अचानक ऐसा महसूस हुआ जैसे पूरी दुनिया ने उसे छोड़ दिया हो और वह नितांत अकेला रह गया हो, जैसे उसके जीवन से अभी अभी कुछ ऐसा काट कर अलग फेंक दिया गया हो, जो सबसे बड़ा, सबसे महत्वपूर्ण था।

वह धीरे धीरे घर की ओर चल पड़ा। आँगन में उसे गैनान मिला जो दूर से ही प्रसन्नता से और दोस्ताना अंदाज़ में अपने दाँत दिखा रहा था। सेकंड लेफ्टिनेंट का कोट उतारते हुए, वह पूरे समय प्रसन्नता से मुस्कुराता रहा और अपनी आदत के मुताबिक़ अपनी जगह पर नाचते रहा।

 “तूने खाना नहीं खाई?” उसने चिंतायुक्त अपनेपन से पूछा।  “भूखा तो नहीं है? अभी भागकर मेस से तेरे लिए खाना लाता हूँ। ”

 “दोज़ख़ में दफ़ा हो जा!” रमाशोव उस पर कर्कशता से चिल्लाया। “दफ़ा हो जा, दफ़ा हो जा, और मेरे कमरे में आने की हिम्मत न कर। और मेरे बारे में कोई भी पूछे – मैं घर पर नहीं हूँ। चाहे सम्राट महाशय ही क्यों न आ जाएँ। ”

वह बिस्तर पर लेट गया और दाँत गड़ाते हुए अपना मुँह तकिए में छिपा लिया, उसकी आँखें जल रही थीं, कुछ चुभती हुई चीज़, जो अपनी नहीं थी, फैलती जा रही थी और उसका गला दबा रही थी, और रोने का मन कर रहा था। वह बड़े लालच से इन गर्म-गर्म, मीठे आँसुओं की, इन लंबी, कड़वाहट भरी, मन को हल्का करने वाली सिसकियों की तलाश कर रहा था। और बार बार जानबूझकर बीते हुए दिन को अपनी कल्पना में साकार कर रहा था, आज की सारी अपमानजनक और लज्जाजनक घटनाओं को इकट्ठा करते हुए, स्वयँ को मानो जैसे दूर से, एक ओर से देखते हुए, अपमानित, अभागा, कमज़ोर और परित्यक्त महसूस करते हुए और बड़ी दयनीयता से स्वयँ पर रहम दिखाते हुए। मगर आँसू नहीं आए।

फिर कुछ अजीब सी बात हुई। रमाशोव को ऐसा लगा कि वह ज़रा भी सोया नहीं था, एक भी सेकंड के लिए ऊँघा तक नहीं था, बल्कि सिर्फ एक पल के लिए बिना कुछ सोचे लेटा था, आँखें बन्द किए। और अचानक उसने स्वयँ को ताज़ातरीन महसूस किया, आत्मा में पुरानी पीड़ा सहित। मगर कमरे में अंधेरा था। ऐसा लगता था कि दिमाग़ी कशमकश की इस समझ में न आने वाली स्थिति में पाँच घंटे से कुछ ज़्यादा समय बीत गया था।

उसे भूख लगी थी। वह उठा, तलवार लटकाई, कंधों पर ओवरकोट डाला और मेस की ओर चल पड़ा। मेस निकट ही थी, क़रीब दो सौ क़दम की दूरी पर, और रमाशोव वहाँ हमेशा सड़क की ओर से नहीं बल्कि पिछले रास्ते से जाया करता था, किन्हीं ख़ाली मैदानों से, किन्हीं बगीचों से और कुछ बागड़ों को फाँदते हुए।

डाईनिंग हॉल में, बिलियार्ड रूम में और किचन में तेज़ रोशनी वाले लैम्प जल रहे थे और इस कारण अफ़सरों की मेस का गंदा, बेतरतीब चीज़ों से भरा आँगन काला नज़र आ रहा था, जैसे उस पर स्याही उंडेल दी गई हो। चारों ओर खिड़कियाँ पूरी खुली थीं। बातचीत की, हँसने की आवाज़ें, गाने, बिलियार्ड की गेंदों की ज़ोर ज़ोर से हो रही खट् खट् सुनाई दे रही थी।

रमाशोव पिछली ड्योढ़ी में पहुँच गया था मगर डाईनिंग हॉल में कैप्टेन स्लीवा की गुस्से से थरथराती और व्यंग्यात्मक आवाज़ सुनकर वह अचानक रुक गया। खिड़की दो ही क़दम दूर थी, और, सावधानीपूर्वक उसमें झाँकने पर रमाशोव को अपने कम्पनी कमांडर की झुकी हुई पीठ नज़र आई। वो एक, मानो सबका मख़ौल उड़ाते हुए – ओ! ओ! – याक्, वो बकरा। ” उसने परेशानी और बेतरतीबी से कई बार अपनी उँगली ऊपर की ओर उठाई। मैंने उसे सी-सीधे कह दिया, बि-बिना किसी प्रस्तावना के: जाईये-गा प-परम आ-आदरणीय महोदय, किसी औ-और रेजिमेंट में। बेहतर तो यही होगा कि आप बिल्कुल ही चले जाएँ क-कम्पनी से। कैसा अफ़सर बनेगा आपसे? बस, को-कोई विस्मयबोधक चिह्न... ”

रमाशोव ने अपनी आँखें सिकोड़ीं और ख़ुद भी सिकुड़ गया। उसे ऐसा लगा कि यदि इस समय वह अपनी जगह से ज़रा भी हिला तो डाईनिंग हॉल में बैठे हुए सारे लोग उसे देख लेंगे और खिड़कियों से अपने अपने सिर बाहर निकालेंगे। इसी हालत में वह क़रीब दो मिनट खड़ा रहा। फिर, जितना संभव था, उतने हौले से साँस लेते हुए, झुक कर और अपने सिर को कंधों में छिपा कर वह पंजों के बल दीवार से लगे लगे सरक गया, उसे पार करके, अपनी चाल तेज़ करते हुए, फाटक तक पहुँचा और चाँद की रोशनी से आलोकित सड़क को दौड़ कर पार करके जल्दी से सामने वाली बागड़ की घनी परछाई में छिप गया।

इस शाम को रमाशोव काफ़ी देर तक शहर में भटकता रहा, पूरे समय छायादार किनारों से होते हुए, मगर लगभग ये महसूस न करते हुए कि वह किन रास्तों से जा रहा है। एक बार वह निकोलाएवों के घर के सामने रुका, जो चाँद की रोशनी में सफ़ेद झक् नज़र आ रहा था, अपनी हरी टीन की छत समेत ठंडेपन से, चमकीलेपन से और अजीब तरह से प्रकाशित होते हुए। सड़क, बिना एक भी आदमी के, मुर्दों जैसी ख़ामोश थी और अपरिचित प्रतीत हो रही थी। घरों की और बागडों की सीधी, स्पष्ट परछाईयाँ पुल वाली सड़क को स्पष्टत: दो हिस्सों में बाँट रही थीं – आधा हिस्सा बिल्कुल काला था, और दूसरा ऑईल पेंट की तरह चमक रहा था – चिकने, पत्थर जड़े फर्श जैसा।

गहरे लाल, मोटे परदों के पीछे एक बड़े गर्माहट भरे धब्बे की तरह, लैम्प की रोशनी नज़र आ रही थी।  “प्यारी, क्या तुम ज़रा भी महसूस नहीं कर रही हो कि मुझे कितना दुख है, कितनी पीड़ा झेल रहा हूँ मैं, कितना प्यार करता हूँ मैं तुमसे!” रोनी सूरत बनाते हुए और अपने दोनों हाथों को सीने पर कस कर दबाते हुए रमाशोव फुसफुसाया।   

अचानक उसके दिमाग में शूरच्का को मजबूर करने का ख़याल आया ताकि वह उसे दूर से, कमरे की दीवारों से होते हुए सुने और समझे। तब, अपनी मुठ्ठियाँ इतनी ज़ोर से भींचकर कि नाख़ूनों के नीचे दर्द होने लगा, अपने जबड़े थरथराहट से भींचकर और पूरे शरीर में ठंडी चींटियाँ महसूस करते हुए उसने अपनी पूरी इच्छा शक्ति को इसी बात पर केन्द्रित कर दिया:

 “खिड़की में देखो – परदे के पास आओ। दीवान से उठो और परदे की ओर आओ। बाहर देखो। सुन रही हो, मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ, फ़ौरन खिड़की के पास आओ। ”

परदे निश्चल ही रहे।  “तुम मेरी बात सुन नहीं रही हो!” कड़वाहट भरी भर्त्सना से रमाशोव फुसफुसाया।  “तुम इस समय उसकी बगल में बैठी हो, लैम्प के पास, शांत, उदासीन, ख़ूबसूरत। आह, मेरे ख़ुदा, ख़ुदा, कितना बदनसीब हूँ मैं!”

उसने गहरी साँस ली और थके हुए क़दमों से, सिर काफ़ी नीचे झुकाए आगे बढ़ चला।

वह नज़ान्स्की के क्वार्टर के सामने से भी गुज़रा, मगर वहाँ अंधेरा था। रमाशोव को, वाक़ई में, ऐसा महसूस हुआ कि किसी सफ़ेद आकृति की अंधेरे कमरे में खिड़कियों के सामने झलक दिखाई दे रही है, मगर न जाने क्यों उसे डर लगा, और वह नज़ान्स्की को आवाज़ देने का निर्णय न कर पाया।

कुछ दिनों बाद रमाशोव ने, मानो विगत में देखे हुए अविस्मरणीय सपने के समान, इस चमत्कारिक, लगभग उन्मादयुक्त भ्रमण को याद किया।

वह स्वयँ भी बता नहीं सकता कि कैसे वह यहूदियों की कब्रगाह के निकट पहुँचा। वो शहर की सीमा से बाहर स्थित थी और ऊपर पहाड़ी की ओर फैली थी, चारों ओर नीची सफ़ेद दीवार से घिरी हुई, ख़ामोश और रहस्यमय। नंगे, एक जैसे, ठंडे पत्थर, जो अपनी एक जैसी पतली पतली परछाईयाँ डाल रहे थे, चमकदार, सोती हुई घास से दयनीयता से ऊपर की ओर उठ रहे थे। और कब्रगाह पर तन्हाई की भव्य सादगी का ख़ामोश और कठोर साम्राज्य था।

फिर उसने स्वयँ को दूसरे छोर पर देखा। हो सकता है, यह वाक़ई में सपने में ही हुआ हो? वह लंबे, फैले हुए, चमक रहे चौड़े बांध के मध्य में खड़ा था, जो बूग पर बना था। उनींदा जल अलसाते और भरभराते हुए उसके पैरों के नीचे बह रहा था, गुनगुनाते हुए ज़मीन से टकरा रहा था, और चाँद, उसकी चंचल सतह में एक थरथराते स्तंभ की भांति परावर्तित हो रहा था, और ऐसा लग रहा था कि एक संकरे रास्ते से अंधेरे, ख़ामोश और निर्जन, दूर वाले किनारे की ओर जाते हुए। ये करोड़ों चाँदी जैसी मछलियाँ पानी में छप छप कर रही हैं। रमाशोव को यह भी याद रहा कि चारों ओर – रास्तों पर और शहर से बाहर – उसके पीछे पीछे चल रही थी प्रस्फुटित होती हुई सफ़ेद अकासिया की नाज़ुक, छिपी छिपी ख़ुशबू।

इस रात उसके दिमाग़ में अजीब अजीब से विचार आए – अकेले विचार, कभी दयनीय, कभी डरावने, कभी ओछे, बच्चों जैसे, हास्यास्पद। सबसे अधिक तो उसे, जैसे एक अनुभवहीन खिलाड़ी के साथ होता है, जो एक ही शाम को अपनी पूरी जायदाद हार चुका हो, अचानक एक सम्मोहक स्पष्टता से महसूस हो रहा था कि कुछ भी अप्रिय हुआ ही नहीं था, कि ख़ूबसूरत सेकंड लेफ्टिनेंट रमाशोव सेरेमोनियल परेड़ में बड़े शानदार ढंग से जनरल के सामने से गुज़रा, सबकी तारीफ़ें उसने सुनीं और अब वह स्वयँ अपने साथियों के साथ बिजली की रोशनी से आलोकित ऑफ़िसर्स मेस के डाईनिंग हॉल में बैठा है और ठहाके लगा रहा है और रेड वाईन पी रहा है। मगर हर बार फ़्योदरोव्स्की की गालियों की, रेजिमेंट कमांडर के ज़हरीले शब्दों की, निकोलाएव के साथ हुई बातचीत की यादों से ये सपने टूट जाते और रमाशोव फिर से स्वयँ को लांछित, जिसे सुधारा नहीं जा सकता, और दुर्भाग्यशाली महसूस करता रहा।



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