शोरगुल में सन्नाटा
शोरगुल में सन्नाटा
पता है, थोड़ी देर पहले मैं क्या सोच रहा था। मैं हूँ, तुम हो, और भी कई लोग हैं। लेकिन वे हमें जानते नहीं। हम शहर के एक भीड़भाड़ वाले चौराहे पर हैं। बहुत शोरगुल है, अनेक तरह की आवाजें। किंतु तुम्हारी आवाज नहीं, मेरे निकट होने पर भी। बड़े समय के बाद, तुम बिल्कुल शान्त हो, और तुम्हें सुनने के अभिप्राय से मैं भी शान्त हूँ। हम दोनों, शहर में कई घंटे घूमे। खरीदारी की। बिल्कुल चुपचाप। एकाद बार तो मुझे बाहर का शोर भी सुनाई नहीं दिया। इतनी चहल पहल के बावजूद निर्जनता की अनुभूति। शहर से लौटने के बाद ही तुमने बोलना शुरू किया और फिर, बोलती ही गईं।
तुम सोच सकती हो, तुमने क्या क्या बातें कहीं ? पर हाँ, सभी बातोँ का केंद्रबिंदु बाजार यात्रा थी, कि तुमने क्या होते देखा, कौन कहते सुना, क्या अच्छा लगा, क्या बुरा ? तुमने उन सूक्ष्म घटनाओं का इतना बखान किया कि मुझसे सुन पाना मुश्किल होने लगा, मगर सुनता रहा। अचम्भा हो रहा था कि अनेक वस्तुओं और लोगोँ के बीच, मेरी मौजूदगी का आभास भी था तुम्हें। इस बात को लेकर बहस भी हुई हमारे बीच। गुस्से में, मैं यह तक कह गया कि तुमने मुझे नेग्लेक्ट कर दिया लोगों के सामने। देखो, मैं किसी वस्तु की भाँति व्यवहार का आदी नहीं हूँ। मेरे दिल है, जान है, आत्मा है। इंसान हूँ मैं आखिर। तुम बोली थीं, "पता है मुझे कि तुम इंसान हो। किन्तु मैं भी इंसान हूँ।" इसीलिए तो मैंने ऐसा किया, जिस कारण शहरभर, मैं तुमसे बात न कर पायी।' मैंने चोंकते हुए "क्या मतलब" कहा था। तुमने फिर सधे स्वर में बात आगे बढ़ाई। "मतलब यह कि यदि मैं बोलती तो आप या तो मेरी सुनते या साथ में खुद भी बोलते रहते। इस तरह, हम दोनों वहाँ के घटनाक्रम से बेखबर रहते।" मेरी तर्क थी कि मैं तो तुम्हारे ही बारे में सोचता रहा। तुम्हें ही निहारता रहा और तुमने कुछ इस तरह बात को पूरा किया "मैं शहर में मौजूद रही ताकि यह न हो कि हम पिछली बार की तरह भूल ही जाएं, किस लिए गए थे। हमने क्या खरीदा, क्यों लिया, क्या देखा। लौटे, जैसे बैरंग चिट्ठी।" फिर तुमने एक फैसले की तर्ज से कहा "अगली बार जब हम कहीं घूमने या खरीदारी को निकलें तो आप मेरा काम करना और मैं आपका।" तुम हर बार की तरह जीत चुकी थीं और मैं, मेरा मन तुम्हारे जीतवाले हार के पुष्पों की सुगंध से संतुष्ट लग रहाा था।