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Jiya Prasad

Drama Romance

3.2  

Jiya Prasad

Drama Romance

द मर्चेन्ट ऑफ वेनिस - प्रेमकथा

द मर्चेन्ट ऑफ वेनिस - प्रेमकथा

8 mins
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वह फिर से टेबल पर औंधें मुंह गिरकर मछली के शीशे वाली पिटारी को घूर रही थी। एक संतरी और दूसरी भूरी रंग की मछली थी। कभी कभी वह मछलियों की चाल को इतने देर तक निहारती थी कि अपना होश तक उसे नहीं रहता था। माँ ने अपनी चिंता और गुस्सा उसे कई बार दिखा दिया था। पर उस पर कुछ अधिक असर नहीं था। माँ ने कहा भी कि यह सब तुम्हारा खुद का फैसला था। इसलिए अब इसे स्वीकार करो। हम तुम्हारी मदद नहीं कर सकते। उसने मछलियों को घूरना बंद नहीं किया और फिर अतीत की सिलाई खोलने बैठ गई। उसे लगा कल की ही तो बात है।

आकर्षण एक तरह का टॉनिक होता है। एक बार लग जाये तो चिपक ही जाता है और चले जाने के बाद भी मन में उसकी बस्ती बस जाती है। सबेश्चियन को गए पूरे दो साल हो रहे हैं पर अपर्णा अभी भी उसी की याद में बहती है। जब वह पुरानी दिल्ली से घर आते हुए एक बस में अपर्णा से मिला था तब समय रात के नौ बजा था। बस काफी खाली थी। सबेश्चियन को दक्षिणी दिल्ली के एक होटल की तरफ आना था। संयोग से अपर्णा का भी वही रास्ता था। बातचीत से मालूम चला कि अपर्णा के घर से थोड़ी ही दूर पर एम पॉकेट में सबेश्चियन किराए पर रह रहा था और भारत में वह कुछ महीनों के लिए घूमने आया था। अपर्णा का घर एल पॉकेट में था।

सबेश्चियन से अपर्णा ने बस में इस रात को सफर करने का सबब पूछा तो उसने वजह को दिलचस्प तरीके से और हिन्दी के कुछ शब्दों को मिलाकर बताया। अपर्णा को जो समझ आया वह यह था कि वह पहाड़गंज की तरफ अपने एक स्वदेशी दोस्त से मिलने आया था और बातचीत के चलते उसे देर हो गई। इसलिए वह पूछते-पूछते बस से जा रहा है। एक वजह यह भी है कि इस रात में उससे से ऑटो वाले तय रुपये से अधिक मांग रहे थे। उसकी बातों से यह भी लगा कि वह दिल्ली की जगहों को अच्छी तरह से जानता था।

एक घंटे के सफर में अपर्णा को सबेश्चियन गंभीर इंसान लगा। उसकी उम्र लगभग सत्ताईस से अट्ठाईस के बीच मालूम पड़ रही थी। वह एक परिपक्व आदमी दिख रहा था। उसका चेहरा ऐसा नहीं था कि किसी को मदहोश कर दे। पर इतना भी खराब नहीं था कि दुबारा न देखा जा सके। चेहरे पर नाक एक सीध के साथ लंबाई में अपनी जगह घेरे हुए थी। आँखें छोटी पर नीले रंग की थी। ध्यान से देखने पर उनमें एक ही वक़्त पर कई भाव पता चल जाते थे। कभी ताजगी तो कभी दुनिया के आश्चर्यों को जानने की उसकी ललक आँखों में तैरती हुई पता चल रही थी। उसके गाल फुले नहीं थे इसी के कारण वह अपनी उम्र से कम ही दिख रहा था। बाल अंग्रेज़ियत लिए हुए थे, भूरे और घुँघराले। उनके चलते उसका छोटा सा चेहरा बड़ा दिखता था। ऐसा लगता था कि किसी चिड़िया के घौंसले में चिकना सफ़ेद अंडा रखा हुआ है।

अपर्णा के साथ बातचीत में उसे भी काफी बेहतर लगा। बस के अंतिम स्टॉप पर उतर कर दोनों घर तक पैदल ही गए। दोनों ने एक बिन्दु पर आकर एक दूसरे को औपचारिक पंक्ति पकड़ाई - “बातचीत कर के अच्छा लगा।”

इसके बाद कम से कम अपर्णा का यही खयाल था कि यह उसकी पहली और आखिरी मुलाकात है। वह सबेश्चियन के साथ हुई बातचीत से बहुत संतुष्ट दिख रही थी और उसे वास्तव में बात कर के अच्छा लगा था। उसे लगा आज बहुत दिनों बाद उसने कुछ अच्छी बात सुनी और की है।

अगली सुबह जब अपर्णा फिर से तैयार होकर घर से निकली तब सबेश्चियन टकरा गया और हँसते हुए बोला -

“क्या संयोग है ! आप से फिर मुलाकात हो गई !”

अपर्णा ने इस संयोग को मीठा पाया और मुस्कुराते हुए हामी में सिर हिलाया। कुछ दिनों बाद फिर उसी समय पर जब सबेश्चियन बस में उसकी सीट के बगल में आकर बैठा तब तक उसने ध्यान नहीं दिया। लेकिन जैसे ही उसने ‘हाय’ कहा वह हैरान हो गई। उसने हैरानी से ही पूछा -

“आज कैसे ?”

वह कुछ पल सोचकर बोला -

"ऐसे ही। करीम में खाना खाने आया था। कुछ और दोस्त आए थे तो उनके साथ ही आ गया। मैं इस शहर के सारे मज़े लेना चाहता हूँ।"

दोनों की यह मुलाक़ात अहम थी। इस मुलाकात में एक दूसरे के नंबर बदले गए और बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया।

एक दिन छोटी - सी मुलाकात में सबेश्चियन ने अपने काम के सिलसिले में कुछ इशारा किया। इसके साथ ही उसने हिन्दी भाषा सीखने की भी इच्छा जताई। पर अपर्णा ने अधिक ध्यान नहीं दिया। वह ऐसी लड़की थी जो अपने अंदर ही घुली रहती थी। बाहर के लोगों से मिलने पर उसे हमेशा एक घबराहट हुआ करती थी। काम न होने पर वह घर से बाहर भी नहीं निकला करती थी। फिर से उसका काम छूट गया था और शायद आगे मुलाकातें न हो इसलिए सबेश्चियन ने हिन्दी सीखने की उसके आगे इच्छा जताई थी। एक दूसरे को पसंद करने वालों में हर पल कुछ मीठा सा घटता है। बहुत जीवंत। समय भी उन लोगों के मुताबिक ढल जाता है। अपर्णा ने हाँ कर दी थी। हालांकि उसकी खुद की हिन्दी में मलयाली जब - तब घुस जाती थी।

जब अपर्णा ने सबेश्चियन की बात घर पर बताई तब उसका छोटा भाई और माँ बिना जतलाये खुश हुए कि शुक्र है उसकी ज़िंदगी में कुछ अच्छा होने की शुरुआत हो रही थी। पिता के जाने के बाद अपर्णा ने अपना बहुत कुछ खोया था और सबेश्चियन के आने के बाद उसकी जीवन शैली में अच्छे बदलाव दिखने लगे थे। यह अच्छी बात थी।

सबेश्चियन के साथ चलने पर शुरू शुरू में अपर्णा को झिझक हुआ करती थी। उसे लगता कि आने जाने वाले लोग अपनी आँखें उन दोनों पर ही चिपका कर छोड़े जा रहे हैं। वह अपना पूरा ध्यान सबेश्चियन की बातों पर नहीं टिका पाती थी। उसे कभी कभी सांस लेने में भी दिक्कत होती थी। ऐसे लगता जैसे उसके अंदर एक लड़ाई छिड़ी हुई है। ज़माने से, खुद से, आसपास से। लेकिन धीरे - धीरे सबेश्चियन ने अपर्णा को खुद को समझने और पाने में बहुत मदद की। अगर वह दस बातें करता तो वह सिर्फ सिर ऊपर - नीचे हिलाकर अपना जवाब दे देती। लेकिन इन सब हालात के बावजूद कुछ था दोनों के बीच जो अच्छा था। बहुत अच्छा।

कुछ रोज़ ऐसे ही बीते तब सबेश्चियन ने म्यूज़ियम देखने की इच्छा जताई और अपर्णा को साथ चलने के लिए कहा। उसने कहा कि तुम साथ रहोगी तो मुझे बेहतर समझा पाओगी। पहले उसने कहा कि उसे इतिहास की कोई अच्छी जानकारी नहीं हैं। लेकिन सबेश्चियन के बार बार कहने पर वह मान गई। म्यूज़ियम में दोनों के चरित्रों में अजब का बदलाव दिखा। जितना सबेश्चियन को वहाँ रखी मूर्तियों और चित्रों की जानकारी थी उतनी ही अपर्णा को भी। कुछ मूर्तियों पर दोनों की बहस हो गई कि वे किस सदी की हैं। खैर, इस तरह से उनके दिन इस शहर में बीत रहे थे।

अहसासों के धरातल पर दोनों एक तरह से खड़े थे। दोनों में एक भीनी - भीनी खुशबू घूमती थी। दोनों में कुछ था जो उनमें परिवर्तन ला रहा था। सुबह उठने पर ही उन दोनों में अपने दिन को कैसे बिताया जाये पर लंबी बात होती थी। लेकिन दिन ऐसे कब तक बीतेंगे, इस बात पर अपर्णा को दहशत होने लगी थी। उसे सबेश्चियन के अपने वतन वापस लौट जाने की बात पर ही आँसू आ जाते थे। सबेश्चियन का कहना था कि उसे इटली में बसने की इच्छा है और वहाँ एक छोटा सा रेस्तरां खोलकर जीवन बिताएगा। शाम को प्यारा संगीत और एक मीठी नींद, जिंदगी की यही कल्पना थी उसकी।

अपर्णा के लिए अभी तक ज़िंदगी एक खिंचाव युक्त रबड़ थी। जब जो उसे समझ आता वह उस ओर खिंच जाती थी। उसे नहीं मालूम था कि उसे करना क्या है ? अपने बारे में उसका कोई खयाल नहीं था। वह कुछ न सोचती थी न ही उसने कभी कोशिश की थी। लेकिन जब उस रोज़ सबेश्चियन के खयाल सुने तब वह देर रात तक अपने को लेकर सोचती रही थी। उसने खुद से ढेरों सवाल किए। आखिर उसे क्या करना है अपनी ज़िंदगी के साथ ? ऐसे नहीं जी जा सकती ज़िंदगी ! उस दिन सबेश्चियन जब अचानक ही उसे ‘प्यार करता हूँ तुमसे’ अल्फ़ाज़ कहे तब वह न खुश हुई और न दुखी। हालांकि उसे इस बात का कब से इंतज़ार था। सबेश्चियन उसके लिए बहुत कुछ बन चुका था। पर आज जब वह अपने मन की बात उसे कह रहा था तब वह खुश क्यों नहीं हुई ? वह खुशी से पागल क्यों नहीं हुई ? घर आकर वह देर तक अपनी इस दशा पर रोती रही।

सबेश्चियन को अपर्णा का ये व्यवहार समझ नहीं आ रहा था। उस दिन उसने कॉफी हाउस में बुलाकर उससे काफी बातें कीं और अपने साथ ही चलने को भी कहा। उसने कहा -

"इटली में हमारी ज़िंदगी लाजवाब होगी। हमारे पास सब कुछ होगा। काम और चैन भी। हम दोनों एक दूसरे के साथ होंगे। जीवन जीने के लिए और चाहिए ही क्या ? हम शादी करके बेहद खुश रहेंगे। बेहद !"

लेकिन अपर्णा ने कुछ न कहा और वहाँ से उठकर भाग आने की बात सोचती रही। कुछ दिन बाद उसने अपने को संभाला और एक मैसेज कर सबेश्चियन को मिलने के लिए पुरानी दिल्ली के ही किसी रेस्तरा में बुलाया। उसने सबेश्चियन का हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा -

“मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ। इतना कि तुम सोच भी नहीं सकते। तुमने हर वो चीज दी जिसके बारे में मुझे पता नहीं था। तुमने बताया कि हंसने के क्या मायने होते हैं! तुमने समझाया कि लोगों के जाने के बाद भी आपको जीना होता है और यह चुनौती है। ज़िंदगी आपको हमेशा उठने के मौके देती है। ज़िंदगी अपने साथ कुछ बेहतर सोचने और करने के अवसर के साथ होती है। इसलिए मैंने भी अपने को इस जीवन में एक मुकाम देने का सोचा है। मैं तुमसे शादी कर इटली नहीं जा सकती। मुझे यहीं रहना है और अपने लिए बेहतर सोचना है। तुम्हें प्यार करते हुए मैं ये काम कर लूँगी।"

ये सब बातें सुनकर वह हल्का - सा दर्द के साथ मुस्कुराया। थोड़ा उठाते हुए अपर्णा के माथे को चूमा और बोला -

“मुझे यकीन है, तुम कर लोगी !"

कुछ अरसा हुआ सबेश्चियन से कोई संपर्क नहीं है। लेकिन रात में हिचकी आती है तो अपर्णा कोे अजीब - सा संतोष होता है। वह आज भी उस मर्चेन्ट ऑफ वेनिस के बारे में बार - बार सोचती है। जब शीशे वाली बड़ी पिटारी में मछली के मुंह से निकले बुलबुले फूटे तो वह यकायक जागी। घड़ी पर नज़र दौड़ाई। उसे काम पर जाने की देरी हो रही थी।


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