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सूखे अंगूर

सूखे अंगूर

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'किश्मिश ले लो, ताकत से भरपूर, स्वाद में पूर, किश्मिश ले लो।', अप्रैल का महिना था, धूप बे-इन्तहा थी लेकिन फिर भी उसके गले की धार ज़रा भी कम ना हुई। पसीने से तर उसका शरीर चिलचिलाती धूप में चमक रहा था। एक पीली मैली बनियान और खाकी हाफ चड्डी पहने, हाथ में किश्मिश से भरी एक थैली लिए वह अपने आस-पास आते-जाते हर ग्राहक से किश्मिश लेने की दरख्वास्त कर रहा था।

धीरज, यह उसके नाम के साथ उसका स्वभाव भी था। कूचा चेलान की उन भीड़ भरी गलियों में कभी-कभार ऐसा भी होता कि शाम होने तक भी एक दाना भी बिकने का नाम नहीं लेता और कभी तो दिन दिहाड़ी में ही उसकी दिवाली हो जाती। पर आज उस १४ साल के धीरज का धीरज जवाब दे रहा था। उसकी माँ का ज्वर सूर्य की गर्मी के तापमान सा हो चला था। आज वक्त और नसीब दोनों ही उसका इम्तिहान ले रहे थे। यह तो रोज़ की बात थी लेकिन आज उसके चेहरे पर चिंता और उदासी की लकीरें साफ दिखाई दे रही थी।

'डाक्टर साहब, मेरी माँ ठीक तो हो जाएगी ना।', रात का पहर शुरू हो चुका था। धीरज खाली हाथ लौटा था और अपनी माँ को लेकर मोहल्ले के दवाईखाने पर गया था। 'देसी दवाओं का असर कुछ ठीक नहीं हो रहा। मैंने दवाई तो दे दी है लेकिन यह बुखार कल सुबह फिर लौट आएगा। तुम्हें अंग्रेजी दवाओं का इंतज़ाम करना होगा।', 'हाँ डाक्टर साहब, कल तक हो जाएगा, आज कौडियाँ भी हाथ नहीं आई। कल बाज़ार का दिन है ज़रुर आपके सारे पैसे चुकता कर दूँगा।', 'मैंने तुमसे पैसे नहीं माँगे लेकिन अंग्रेजी दवाओं का दस्ता मेरे हाथ नहीं, मैं मजबूर हूँ।'  इतना कहते हुए डाक्टर ने दवाई की एक पुड़िया धीरज के हाथ थमाई। सूरज ने एक हल्की सी अनचाही मुस्कान दी, हाथ जोड़कर कृतज्ञता प्रकट की और धन्यवाद कहकर अपनी बिमार माँ के साथ घर की ओर चल पड़ा।

पिता का साया तो उसके सिर से २ साल पहले ही उठ चुका था जब टी.बी की वजह और पिता की लापरवाही से काल ने स्वयं ही उन्हें निगल लिया था। लेकिन धीरज यह बिल्कुल नहीं चाहता था कि एक और बिमारी की वजह से उसकी ममता का आँचल भी छिन उससे जाए। उसकी माँ का बुखार से बुरा हाल था। उसे तो किसी बात की समझ ही नहीं पड़ रही थी कि कब दिन कब रात। पिछले दो हफ़्तों से बुखार ने अपनी जड़ उसकी माँ के शरीर में बना रखी थी। खाना उस बिमार शरीर में जा ही नहीं रहा था ऊपर से अनियमित उल्टियों की वजह से वह बिल्कुल बाँस का तना हो गई थी।

इधर घर के सारे काम, खाना-पीना, साफ़-सफ़ाई, झाडू- पोछा हर चीज़ का ज़िम्मा अब धीरज का था। वह गरीब ज़रुर था लेकिन उसकी माँ ने उसे स्वाभिमानी होकर जीना सिखाया था। पिता के देहांत के बाद किश्मिश की बोरियाँ उसे विरासत में मिली थी। वह कक्षा ८ तक ही पढ़ पाया और फिर पिता के जाते ही उसके नन्हें कंधे बोझिल हो गए। व्यापार की समझ अब भी उसमे कच्ची ही थी, अभी भी वह दिल से काम लिया करता था। लेकिन फिर भी किसी तरह वह दो वक्त की रोटी जुटाने में कामयाब हो जाता था।

आज बाज़ार का दिन था। उसे पूरी उम्मीद थी कि आज के दिन तो उसके सारे किश्मिश बिक ही जाएँगे। आज वो सारी विलायती दवाइयाँ लेकर घर जाएगा। उसे किसी के एहसान तले झुकने के ज़रूरत नहीं पड़ेगी। सुबह घर के सारे काम निपटाने के बाद भी आज उसके चेहरे पर कोई थकान और मायूसी झलक नहीं रही थी। इश्वर की दया से आज आसमान में ज़रा बादल भी उमड़ आए थे। दिल्ली की गलियों में सुबह-सवेरे इस छाँव का मिलना बड़ा ही दुर्लभ लेकिन आरामदेह था। घर से बाहर कदम निकालते ही इस धरती के सूरज(धीरज) ने उस आसमान के छुपे हुए सूरज की तरफ निहारा, मन ही मन कुछ कहा और हाथ ऊपर करके उसे एक अभिवादन किया, मानों उसका शुक्रिया अदा कर रहा हो। फिर हाथ नीचे कर थैले को उठाया और चल पड़ा कूचा चेलान की गलियों की ओर, जहाँ आज उसकी कुछ मुरादे पूरी होनी थी।

अपनी धुन में चलता हुआ वह हल्दीराम की दूकान के पास पहुँच गया, जहाँ वो अक्सर खड़े होकर किश्मिश लेने के लिए आवाज़ लगाया करता था। इस दूकान में कई चटपटे और तीखे व्यंजन मिलते थे तो अक्सर लोग वहाँ के तीखे खाने का स्वाद लेने के बाद कुछ थोड़ी सी अनोखी मिठास लेने के लिए धीरज के चलते-फिरते ठेले के पास पहुँच जाते थे। इस तरह यह गरीब का बच्चा अमीरों को और अमीर होने की दुआएँ देता।

दोपहर के ३ बज चुके थे लेकिन अब तक कुछ घूमते-फिरते शौकीनों और अनजाने पर्यटकों के आलावा कोई धीरज के किश्मिश चखने नहीं आया था। फिर भी उम्मीद अभी टूटी नहीं थी। 'यार, अभी तो माहौल गरम होगा, भला सुबह- दोपहर भी कोई खरीदारी को निकलता है?', मन ही मन धीरज ने अपना मनोबल और बड़ा किया। आकाश में तो सूरज ढल ही रहा था लेकिन फिर भी धीरज अपने सब्र का बाँध टूटने नहीं दे रहा था। ५०० रूपए का माल हाथ में था लेकिन अब तक कमाई सिर्फ ५० की ही हुई थी। लोग आते- जाते भाव-ताव करते, तैयार भी होते लेकिन फिर पता नहीं क्यूँ कुछ सोचकर लौट जाते। अब तो समय भी हद पार कर चुका था। आज तक कभी ऐसा हुआ नहीं था कि हाट के दिन भी किश्मिश की बोरी भरी मिले। ' विलायती दवाइयों की ख्वाहिश क्या आज भी अधूरी रहेगी? बाज़ार बंद होने तक क्या मैं कुछ नहीं पाऊँगा? माँ की तबीयत कब ठीक होगी?... क्या मैं पिताजी की तरह माँ को खो तो नहीं दूँगा...'

एक बड़ी सी काले रंग की मर्सडीज़ धीरज के सामने आकर रुकी। गाड़ी का हॉर्न बजने लगा और पिछली सीट पर बैठे ने आगे वाले व्यक्ति को धीरज की तरफ हाथ का इशारा करके कुछ बताया। धीरज ने भी अपने ख्यालों के बुरे सपनो से बाहर आकर उन लोगों की तरफ देखा। उसने अपने तरफ आते उन पाँच लोगों को देख चेहरे पर एक गज़ब की बनावटी मुस्कान को काबिज़ किया।

'ऐ लड़के... कैसा दिया?' बड़े ही रौबदार लहजे में उस अमीरज़ादे ने पूछा। '१०० रुपया किलो है सेठ, आपको कितना चाहिए, कुछ कम कर दूँगा', धीरज ने अपने थोड़े से तजुर्बे के बल पर नहले पे दहला मारने की कोशिश की। 'कितना माल है बोरी में?' सेठ के इस सवाल के बाद धीरज को कुछ आशाएँ बंधी कि शायद उसका ज़्यादातर माल बिक जाएगा, '१५ किलो है'। 'सही दाम लगा तो सारा का सारा ले जाऊँगा' इतना कहते ही सेठ ने अपना हक़ जमाने के इरादे से उसके बोरे से एक मुट्ठी किश्मिश उठाई और अपने चार दोस्तों को कुछ कुछ बाँट दिया। आवाज़ कुछ जानी पहचानी लग रही थी लेकिन रात के गहरे अँधेरे में चेहरा पता नहीं चल रहा था कि यह कौन है। लगभग २०- २५ ग्राम किश्मिश उस तोंदू सेठ ने उठा ही लिए थे लेकिन बड़े हाथ की उम्मीद के कारण धीरज ने उसे कुछ भी ना कहा। 'सेठ', अब थोड़ी नरमी के साथ धीरज ने कहा '१०० रुपया इस मार्केट का सबसे कम रेट है, और माल एकदम ए वन क्वालिटी का है'। इस पर सेठ ने आवाज़ बढ़ाई, 'लास्ट रेट बोल वरना मैं चला और भी दूकान है इधर'। 'सेठ, ८० का भाव लगा दो और सब ले लो, मुझे बस २० रूपए मिलेंगे किलो के पीछे, यही लास्ट भाव है', 'हम्म... वो सब तो ठीक है', एक और मुट्ठी किश्मिश उठाते हुए सेठ ने कुछ अपने मुँह में डाली और बाकी दोस्तों को दी 'कुछ स्वाद तो ले लूँ १५ किलो का मामला है, कहीं तू सस्ते में चूना तो नहीं लगा रहा है?', 'क्या सेठ, मज़ाक क्यूँ उड़ा रहे हो दिन भर से कुछ खास धंधा नहीं हुआ', 'तेरे धंधे का ठेका मैंने थोड़ी ले रखा है... बड़ा आया मज़ाक वाला, इतने सस्ते में दे रहा है, ज़रुर कुछ मिलाया होगा इसमें।', धीरज को लग रहा था कि उसके इस जवाब ने सेठ को नाराज़ कर दिया था। 'माफ़ करो साहब, ठेका तो आपने नहीं लिया है, लेकिन ये मीठे किश्मिश तो ले ही सकते हो।'

सेठ ने जोर से ठहाका मारते हुए कहा ,'अरे बाप रे... बहुत बड़ी गलती हो गई मुझसे, मुझे तो लगा कि तू अंगूर बेच रहा है', धीरज बिल्कुल सकपका गया। सेठ ने उपहास उड़ाते हुए कहा, ' माफ़ कर दे लड़के अँधेरा बहुत था ना तो गलती हो गई, क्या करूँ मैं चश्मा भी तो नहीं लाया', सेठ के इस वाक्य पर उसके सारे दोस्त हँसने लगे, धीरज का मुँह एकदम छोटा हो गया था। 'मैं यह पूरी बोरी ले लेता लेकिन, लड़के, तेरे अंगूर तो सूखे हैं....', इतना कहकर वह सेठ और उसके साथी एक दुसरे को ताली देते और हँसी में फिरते हुए वहाँ से निकल पड़े।

धीरज को कुछ दिन पहले की बात याद आई कि एक अमीर ग्राहक उससे चाँद रुपयों के लिए मोल-भाव कर रहा था। उससे छुटकारा पाने के लिए उसने कहा था कि, 'साहब, जाने दीजिए मेरे तो अंगूर ही सूखे हैं।' और उस अमीर ने धीरज को एक तेज तर्रार नज़र से देखा था।


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