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ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है

ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है

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इस शहर में होटलों और बियर बारों में इत्मीनान से बैठकर पीना पसंद करने वालों में शायद ही कोई ऐसा होगा जो बख्शी को न जानता हो। नशे में डूबी हुई-सी आँखें, दुबला-पतला घुलता हुआ-सा शरीर, लंबे काले बाल, अक्सर ही गहरे रंग की टी-शर्ट और नीली जीन्स पहने हुए जब वह माइक हाथ में थामता, तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठती। कुछ अपने मन की और कुछ लोगों के मन की गाते हुए वह जैसे कोई दूसरा बख्शी ही हो जाता। वह गाना चाहे जहाँ से शुरू करे, अंत किशोर कुमार के गाए गीत ‘घुंघरू की तरह बजता ही रहा हूँ मैं’ से करता। धीरे- धीरे यह गीत ऑर्केस्ट्रा के उठने का गीत हो गया, चाहे वह जिस भी ऑर्केस्ट्रा में गा रहा हो।

      बख्शी की एक खासियत थी, जो उसे होटल के दूसरे गाने वालों से अलग करती थी। वह फरमाइश न कर पाने वालों के मन की बात को समझ लेता था। कभी-कभी तो ब्रेक के दौरान वह सबसे उदास और अकेले ग्राहक के साथ बैठकर उसका साथ भी देता और उठते-उठते कई बार उसके कंधे पर दोस्ताना हाथ रखते हुए कहता भी – “उदासी से बचने के रास्ते शराबखानों से होकर नहीं गुजरते दोस्त!” इस शहर में कई ऐसे लोग हैं जो अपने शराब छोड़ने का सबब बख्शी के उस दोस्ताना वाक्य को मानते हैं। इसलिए जब वह मरा तो अखबार और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में बगैर किसी खबर के उसे अंतिम विदाई देने के लिए सैकड़ों की संख्या में लोग जमा हो गए थे।

      दाह संस्कार के बाद तो कई लोगों ने अंतिम बार अपने प्याले टकराए। जैसे उनके पीने का संबंध केवल बख्शी की आवाज से ही था। उसकी मौत के बाद होटलों में वैसे ही ऑर्केस्ट्रा चलते रहें। उसकी पत्नी पहले की तरह संगीत से जुड़ी रही। थोड़ी बेचैनी के बाद शराबखोरी के प्रति समर्पित लोगों ने किसी दूसरे गायक की आवाज का सिरा पकड़कर अपने प्यालों में शराब ढालनी शुरू कर दी। चाँद हमेशा की तरह ही घटता बढ़ता रहा। फिर भी कई लोग कहते हैं कि बख्शी उन्हें अब भी याद आता है और कई बार उसकी याद सताती है।

      बेशक वह कलाकार था। बेहतरीन कलाकार। संगीत उसने भी कायदे से सीखा था। किशोर वय में उसने भी सपना देखा था कि फिल्मों में गाएगा। इस दिशा में छोटी मोटी कोशिशों के बाद वह ऐसी सफलता के दुरूह रास्तों की कभी न सुलझने वाली सच्चाइयों को समझ गया। उस दिन उसने अपने सपने जलाकर खाक तो नहीं कर डाले लेकिन उन्हें फूलों की तरह ज़िन्दगी की डायरी में दबाकर ताक पर रख दिया और ऑर्केस्ट्रा के माइक को हाथों में थाम लिया।

      मैंने एक दिन उससे पूछा भी था – ‘जब तुम्हें पता चल चुका था कि गायकी में सफलता की राह तुम कभी नहीं ढूँढ़ पाओगे तो वापस क्यों नहीं लौट गए?’

      कुछ दार्शनिक अन्दाज में मुस्कुराते हुए उसने कहा – ‘सफलता का मतलब कहीं पहुँचकर वहीं बने रहना नहीं होता दोस्त! कई बार किसी पसंदीदा रास्ते पर जीवन भर चलना भी सफलता ही होती है।’

      ‘मान लिया, लेकिन तुमने भी तो कभी सोचा होगा कि तुम्हारे अपने गाए हुए गीत होंगे, दुनिया तुम्हें तुम्हारी आवाज से पहचानेगी। तुम्हारे भी एलबम निकलेंगे। संगीत के समारोहों में तुम भी बुलाए जाओगे और तुम्हें भी गुलदस्ते भेंट किए जाएंगे!’

      बख्शी कुछ नहीं बोला। बस अपने गिलास को देखता रहा। उसके सपनों के सूखे फूल जिन पन्नों के बीच दबे थे, वो पन्ना मैंने अचानक खोल दिया था। जवाब देना उसके लिए मुश्किल था। जवाब दरअसल कोई था भी नहीं। जवाब के नाम पर कुछ समझौते थे, जिस पर उदासी और अवसाद की किसी रात में उसने विवश होकर हस्ताक्षर किए थे और कलम की नोंक तोड़ दी थी। फिर भी उसने कहा– ‘किसी और की धुन में अपनी आवाज को ढालकर इस दुनिया में ज़िन्दा रहना कोई छोटा काम नहीं है। इसके लिए कलेजा चाहिए। हम ताउम्र किसी और की इबारत पढ़ते हैं, किसी और की बनाई हुई गाड़ी पर चढ़ते हैं, किसी और के द्वारा लाया हुआ पानी पीते हैं। यह शराब भी, जिसे हम अभी पी रहे हैं, किसी और के द्वारा बनाई गई है। लेकिन जहाँ तक कला की मौलिकता का सवाल है, दुनिया में हर चीज एक साथ नकल भी है और मौलिक भी। मामला आपके जुड़ाव का है, इन्वोल्व्मेंट का है।’

      उसका जवाब खुद उसकी तसल्ली थी या ज़िन्दा रहने की ज़रूरत, यह कहना तो कठिन है। लेकिन उस दिन के बाद मैंने उसके गाने में अजीब तरह की तब्दीलियाँ देखी। मसलन अब वह सस्ते चलताऊ गानों की बजाय अक्सर शास्त्रीय पुट लिए हुए गीत गाता, और किसी-किसी अंतरा को अपनी ओर से कोई नया मोड़ भी दे देता। ऐसे प्रयोग मेरी उपस्थिति में वह ज़रूर करता और उसके बाद कुछ अजीब नज़रों से मेरी ओर देखता। मैं भी मुस्कुराकर उसे दाद देता। यह सिलसिला बिना किसी घोषणा के कुछ महीनों तक चलता रहा।

 

      उन दिनों मैं इस शहर में बिल्कुल नया था और अकेला भी। मेरी शामें और रातें अक्सर उदास और खाली हुआ करती थीं। किसी शहर से हारकर जब आप उसे छोड़ देते हैं तो वहाँ की यादें और निर्वासित हो जाने का बोध बहुत दिनों तक पीछा करता है। वह आपको नए शहर में जल्द घुलने मिलने नहीं देता। मेरी स्थिति भी इससे अलग नहीं थी। काम का समय चूँकि नियत और बँधा हुआ था इसलिए दिन तो किसी तरह कट ही जाता था लेकिन शामें नहीं। बस इन शामों को काटने के लिए ही मैं कभी कभी बार या सिनेमा हॉल जाने लगा। मजे से तो नहीं कहूँगा, लेकिन ज़िन्दगी किसी तरह पटरी पर लौट रही थी। बख्शी से मेरी मुलाकत तभी हुई। और समय के साथ वह आत्मीयता में बदलती चली गई।

 

‘बख्शी, तुम इस शहर के तो नहीं लगते? एक शाम मैंने उससे पूछा था।

‘क्यों, क्या तुम्हारी तरह मेरे सिर पर भी सींग उगे हैं? बेहद मजाकिया अंदाज़ में उसने जवाब दिया। न मालूम उसे देखकर मुझे हमेशा लगता कि उसका अतीत सीधा और आसान नहीं रहा होगा। बल्कि पेंचदार, ऊबड़-खाबड़ और तकलीफों से भरा हुआ होगा। उन तकलीफों के कुछ जिद्दी निशान मुझे हमेशा उसके चेहरे पर दिखाई पड़ते। लेकिन आज वह आज अलग ही मूड में था। मैंने जब इसका कारण पूछा तो बड़े रहस्यपूर्ण अंदाज़ में उसने कहा – ‘आज मैं आज़ाद हो गया हूँ। पूरी तरह आज़ाद।’

मैं चुप रहा। चाहता था कि वह अपनी ओर से जितना बताना चाहे, बताए। कुछ भी पूछकर मैं उसकी तन्मयता को तोड़ना नहीं चाहता था। लेकिन कुछ बताने की बजाय उसने एक चिट्ठी पकड़ा दी। चिट्ठी किसी सुरिन्दर ने लिखी थी। बहुत छोटी, चार लाइन की। लिखा था-

दारजी नहीं रहे। कल ही उनकी मिट्टी हुई। तुमको मरते हुए भी उन्होंने याद नहीं किया। वैसे भी तुम्हें यहाँ कोई याद नहीं करता इसलिए आगे भी यहाँ आने की कोशिश मत करना। उस कुतिया की वजह से तुम हमें पहले ही काफी तकलीफ दे चुके हो। दारजी हमारे बीच की आखिरी कड़ी थे। खेत खलिहान और दुकानें उन्होंने हमको बाँट दी है। उम्मीद करते हैं कि अब तुम्हारी शकल हमें कभी देखने को नहीं मिलेगी।

तारीख दस दिन पहले की डली थी। दारजी ज़रूर इसके पिता होंगे। लेकिन बाकी चीजों पर रहस्य का परदा पड़ा रहा।

      बख्शी ने अपना गिलास खाली किया और स्टेज पर पहुँच गया। उसकी पत्नी दो-तीन गाने गा चुकी थी। लेकिन बात कुछ जम नहीं पाई थी।

‘दोस्तो, उसने कहा, ‘पंद्रह अगस्त को देश आज़ाद हुआ था और आज चौबीस सितंबर मेरी रिहाई का दिन है। लीजिए पेश है अपनी ही रिहाई को समर्पित यह तोहफा। गिटार हाथ में लेकर उसके तारों को हल्के से छेड़ता हुआ वह मानो किसी गीत में डूब रहा था। गायक चाहे जिस दर्जे का हो, जब अपनी आवाज के साथ गीत के बोलों और संगीत की लहरियों में डूबने लगे तो समझ लो कि उसने अपना समूचा वजूद उस क्षण के लिए संगीत को दे दिया है। बख्शी ने गाना शुरू किया : ‘कोई हमदम न रहा, कोई सहारा न रहा, हम किसी के न रहे, कोई हमारा न रहा। कोई हमदम न रहा।’, मजरूह सुलतानपुरी के लिखे और किशोर कुमार के गाए इस गीत ने मुझे कभी इतना उदास नहीं किया था जितना कि आज कर रहा था। गीत भीतर की उन छिपी हुई दरारों से रिस रहा था, जिसे बख्शी अक्सर संदूक में ताला लगाकर रखता था।

उस दिन देर रात तक बख्शी इसी तरह के दुख और उदासी में डूबे हुए गीत गाता रहा। मुसाफिर हूँ यारों।, कहीं दूर जब दिन ढल जाए।, नदियाँ से दरिया।, जाने वो कैसे लोग थे जिनके।, अकेला हूँ मैं इस दुनिया में। जैसे गीतों की धारा लगातार बहती रही। कुछ गानों में उसने वायलीन भी बजाया। पत्नी के एक गाने पर ड्रम भी। मुझे उस दिन एहसास हुआ कि हिंदी सिनेमा के गीतों ने लोगों के मनोभावों के विरेचन के लिए कितनी सारी जगहें रख छोड़ी हैं!

      गानों में दुख की बाढ़ इतनी आ चुकी थी कि मैनेजर ने टोका- ‘ओए बख्शी, अब बंद भी कर यार। साला आज न पानी की बिक्री हो रही है न चखने की। सारे दुखी बंदे अपने आँसुओं के साथ ही पैग-शैग पी रहे हैं। फ्रीजिंग का खर्चा भी नहीं निकल पाया आज। बंद कर यार ये मुकेश टाइप गाना!’

      बख्शी ने अचानक गाना बंद कर दिया। जैसे बरसता हुआ पानी अचानक रुक गया हो। यहाँ तक कि उसने अपना अंतिम गाना ‘घुँघरू की तरह’ भी नहीं गाया। शायद उसे सबसे अंत में गाने के लिए रख छोड़ा था। सारे वाद्य यंत्र पैक किए जाने लगे। लेकिन हॉल में पूरी तरह सन्नाटा था। सितंबर की आखिरी बारिश बरस कर शाम से ही चुप थी। बादलों से लुका-छिपी करता हुआ भीगा चाँद भी निकल आया था। और अपने किरणों के रेशमी कपड़े सुखा रहा था। लेकिन हॉल में बैठे लोग तो किसी और ही बारिश में भीग कर चुप थे।

      उसकी पत्नी ने भी अपना गिलास खाली किया और पूछा –‘घर कब तक आओगे?’

      ‘तुम चलो, मैं थोड़ी देर से आता हूँ।

वह उठी और चुपचाप बाहर खड़ी उस नीली कार में बैठ गई।

बख्शी आज अकेला नहीं था। ऑर्केस्ट्रा बंद होने के बाद वह वैसे भी कभी अकेला नहीं होता। गाने का दौर खत्म होने के बाद भी बार एक-डेढ़ घंटे तक खुला रहता था इसलिए उसे कोई न कोई कद्रदान मिल ही जाता था। फिर आज जिस तरह के गीत उसने गाए थे, उससे उसके अकेले रहने का सवाल ही नहीं था। सारे दुखी बंदों के दुख के तार जैसे उसने छेड़ दिए थे। कोई प्यार का मारा था, कोई परिवार का। कोई संबंधों का मारा था, कोई व्यवसाय का। किसी को अपना बचपन बुलाता था तो किसी को अपना बुढ़ापा सालता था। एक तो सट्टे में पिछले पच्चीस दिनों से डबल चौआ न आने के कारण परेशान था! ऐसे लोगों ने उसे अब घेर लिया था और अपने अपने गिलास से पीने का आग्रह कर रहे थे।

      बेचारे वेटरों की हालत खराब थी। छः-सात लोग पहले अलग-अलग टेबिल पर बैठे थे और उनका बिल भी बकाया था। लेकिन वे सब अब बख्शी की टेबिल पर बैठे थे और अपन अपना ऑर्डर दे रहे थे। वेटरों को उनके ऑर्डर ठीक ठीक काउंटर पर लिखाना था। अन्यथा देर रात झक-झक होती और उनका टिप भी मारा जाता। बख्शी की हालत तो और भी खराब थी। वह कभी इसके आग्रह पर रम पीता तो उसके आग्रह पर व्हिस्की। कभी बीयर का घूँट भरता तो कभी वोद्का का गिलास खाली करना पड़ता। वह अपनी टेबिल पर ही नहीं घूम-घूम कर पी रहा था। वैसे दो तीन तरह के कॉकटेल का तो वह आदि था ही, लेकिन आज कुछ ज्यादा ही हो गया था।

      मैं भी बार में बैठा रहा। मेरी दिलचस्पी उस सजा को जानने की थी, जिसकी रिहाई का वह जश्न मना रहा था। आखिरकार सबको निपटाने के बाद वह मेरे पास आया। बारह बजने में कुछ ही मिनट शेष थे। बार की लगभग सभी बत्तियाँ बंद की जा चुकी थी। यह इस बात का संकेत था कि अब आप उठ जाइए।

‘कैसा रहा मेरी रिहाई का जश्न? उसने पूछा।

‘यदि जश्न से मन भर गया हो तो चलें? मैंने कहा।

‘बस एक मिनट, उसने कहा और मैनेजर के पास जाकर एक बोतल और उठा लाया। मैनेजर भी उसके पीछे-पीछे टेबिल तक चला आया- ‘अबे और कितनी पियेगा। समझा इसे, मुझसे मुखातिब होकर उसने कहा, ‘साला खामखा अपने लीवर में डायनामायट फिट करने में लगा है। ये जो डेढ़ पसली का शरीर है न, देखना किसी दिन उड़ जाएगा।’

‘अभी तक तो दूसरों की शराब पी रहा था काका। यदि अपनी न पियूँ तो पाप लगेगा। इसका बिल आप मेरे हिसाब से काट लेना।’

‘हिसाब। कौन सा हिसाब? यदि हिसाब करूं तो लेना ही लेना बनता है। देना कुछ नहीं। समझे। जा अब। कल शाम ठीक समय पर आ जाना। कल क्यों, आज ही। बारह से ऊपर हो गया है। आज संडे है। भूलना मत। और आज ये मजनू टाइप गान मत गाना। रात के दुखियों को सँभालते-सँभालते साला दिमाग का दही बन जाता है। चल अब निकल। और मुझे भी जाने दे।’

वह उठा और उसके साथ मैं भी उठ गया। हम बाहर आ गए। आपनी बाइक के पास आकर मैंने सिगरेट जलाई।

‘ये सिगरेट मत पिया कर। फेफड़े का छाजन हो जाता है।’

मैंने एक लंबा कश खींचते हुए कहा – छलनी सुई से कहती है कि तेरी तुझे क्या दिक्कत है बे।’

उसने जोरदार ठहाका लगाया, ‘मस्त है बॉस, मस्त है। तो सूजे भाई, अब चलें?’

‘पहले अपनी गाड़ी तो निकाल।’

‘गाड़ी रहने दे। आज गाड़ी चलाने का मूड नहीं है।’ उसने अपनी बाइक बार की पार्किंग में खड़ी कर चाबी वहाँ के गार्ड को थमा दी। फिर मेरी डिक्की में शराब और पानी की बोतल और दो डिस्पोज़ल गिलास रखे।

‘चलें अब।’

‘तूझे घर ड्रॉप कर दूँ?’

‘घर। तुझे ये घर जाने की तैयारी लग रही है! रात उफान पर है। झिंगुरों का संगीत चारों ओर लहरा रहा है। पूनम के चाँद ने राग भैरवी छेड़ दी है। भीमसेन जोशी भी इसके सामने फीके हैं। और तुझे घर की पड़ी है? आज इस अनोखी महफिल का मज़ा हम दोनों लेते हैं। क्या खयाल है? वैसे भी आज संडे है। तेरी छुट्टी बल्कि बोरियत का दिन। ऐसे दिन को सो कर काटना चाहिए। और इसके लिए रात भर जागना ज़रूरी है।’

‘लेकिन इस वक़्त जाएँगे कहाँ?’

‘इस शहर की सड़कों में रात को पीने का अपना ही मज़ा है। बस पुलिस वगैरह से थोड़ा बच के रहना पड़ता है। लेकिन डोंट फिकर। इतने दिन का अनुभव आखिर किस काम आएगा? पहले ज़रा घर चलते हैं। बेटे को देख लूँ।’

हम दोनों उसके घर की ओर चल पड़े। पीछे बैठकर वह मुझे रास्ता बताता रहा। कॉलोनी की एक गली में घुसते ही उसने मुझे रोक दिया। नीली गाड़ी अब भी वहीं खड़ी थी- ‘चल, कहीं और चलते हैं, उसने कहा, ‘ऑरेंज सिटी हॉस्पीटल चल। वहाँ चाय टपरी के थोड़ा आगे पीने की बढ़िया व्यवस्था है।’

उसकी आवाज में खनक की जगह थोड़ी देर के लिए खिन्नता ज़रूर आई, लेकिन उसने तुरंत उस पर काबू पा लिया और मेहदी हसन को गुनगुनाने लगा – तुझे प्यार करते करते, मेरी उम्र बीत जाए।। थोड़ी देर बाद वह भीमसेन जोशी को गुनगुनाने लगा–ये तनु मुंडना बे मुंडना। आखिर मिट्टी में मिल जाना।

चाय की टपरी से कोई बीस कदम दूर बाँस की एक छप्पर छायी हुई थी। हम वहीं बैठ गए। एहतियात के तौर पर हमने अपने गिलास छुपा दिए थे। लेकिन इस तरह से पीना मुझे बेवजह खतरा मोल लेना लग रहा था। मैं फिर भी ले रहा था क्योंकि मुझे बख्शी की रिहाई के पन्नों को पढ़ना था।

एक दो पैग वहाँ पीने के बाद मैंने कहा- ‘यार बख्शी, इस तरह पीना मुझे अजीब लग रहा है। हर तेज लाइट पर नशा कुछ नीचे चला जाता है। चढ़ना तो बहुत दूर की बात है, पहले का भी उतर गया है। यदि तूने रात का तमाम संगीत सुन लिया हो तो मेरे घर चलें। वहाँ इत्मीनान से बैठते हैं।’

उस वक़्त इससे बेहतर प्रस्ताव कुछ हो ही नहीं सकता था। उसने दोनों डिस्पोज़ल गिलास हवा में उछाले। पानी की बोतल, जिसमें थोड़ा पानी बचा था, पास की झाड़ियों में जोर से फेंका। झाड़ी से कुछ परिन्दे फड़फड़ाते हुए शोर मचाकर भागे।

‘सॉरी।, उसने परिन्दों से कहा, ‘तुम्हारे सुकून में खलल डालने के लिए सॉरी।’ और वह मेरी बाइक पर आकर बैठ गया।

जब हम दोनों फ्लैट में घुसे, रात का एक बज रहा था। आज मैंने कितनी शराब पी थी यह तो याद न था। लेकिन नशा छूमंतर था। घर पहुँचकर मैंने दो गिलास निकाले। फ्रीज से पानी की बोतल और नमकीन निकालकर टेबिल पर रखते हुए पूछा – ‘अब कुछ विस्तार से बताएगा?’

‘क्या, उसने पूछा, जैसे सचमुच ही न जानता हो।

‘तो तू सचमुच नहीं जानता कि मैं क्या पूछ रहा हूँ?’

      यार, तू मेरी पर्सनल लाइफ में इतना इंटरेस्ट मत दिखा। लगने लगता है कि मैं भी कुछ हूँ। अपने आपको  कुछ होना महसूस करना और फिर उसे दूसरों की नज़र में ना पाना बहुत तकलीफ देता है। तू तो केवल मेरा गाना सुन और मेरी आवाज़ से अपने सूनेपन को भरता जा।’

      मैंने सिगरेट जलाई और पूछा – ‘ये सुरिन्दर कौन है, और दारजी।?’

      कुछ देर वह खामोश रहा। फिर अपना गिलास एक ही साँस में खाली करने के बाद बोला – ‘सुरिन्दर मेरा छोटा भाई है और दारजी मेरे पिता, जिनके बारे में तो तुम जान ही चुके हो कि वे अब इस दुनिया में नहीं हैं।’

‘और कुतिया।?’  

‘कुतिया। वे लोग रेहाना को आज भी प्यार से कुतिया ही कहते हैं। छोड़ यार, ज्यादा लंबी या महान स्टोरी नहीं है। तू जबरन खींच रहा है। मैं बख्शी हूँ, राजिन्दर बख्शी, और इस खुशनुमा रात की नाव में बैठकर तेरे साथ जाम टकरा रहा हूँ। क्या इसका कोई मोल नहीं है, जो तू मेरा अतीत कुरेद रहा है?’

‘तूने ही मुझे कुरेदने का अवसर दिया है, चिट्ठी पढ़वाकर।’  फिर खामोशी। इस दौरान मेरा चेहरा वैसे ही सख्त बना रहा। आँखों में प्रश्नवाचक चिह्न वैसे ही जमे रहे। जब उसने जान लिया कि मैं बहलने, बहकने या पिघलने वाला नहीं हूँ तो बोला –‘बहुत छोटी सी स्टोरी है अपनी। मैं सिक्ख परिवार से हूँ। बचपन में जूड़ा भी रखता था। लेकिन ’84 के दंगों के बाद दारजी ने कटवा दिया। तब मैं चार साल का था। हम लोग मूलतः पाकिस्तान के रहने वाले हैं। विभाजन के थोड़ा पहले दारजी अपने पिता के साथ बैतूल आकर बस गए थे। अपनी मेहनत से उन्होंने खेती-बाड़ी, दुकान, मकान सबकुछ बनाया। हम छः भाई-बहन हैं। चार भाई, दो बहन। मैं तीसरे नंबर का लड़का हूँ। सुरिन्दर मुझसे छोटा है और सबसे छोटी कुल्लो।

‘मुझे रेहाना से प्यार हो गया था। गुजरात दंगों के बाद की बात है यह। घर वालों के विरोध के बावजूद हम सुधरे नहीं। गरम खून जो था! फिर हम बनारस भाग गए। वहीं तीन महिने छुप-छुपाकर रहे। एक दिन रेहाना अचानक गायब हो गई। दो दिन बाद गंगा पार उसकी लाश मिली। फिर कुछ हफ्ते बाद कुल्लो पागल हो गई। बाद में पता चला कि सुरिन्दर और उसके साथियों ने रेहाना को मारकर फेंक दिया था। बदले में उनके लोगों ने कुल्लो का रेप किया। उसी सदमे में वो पागल हो गई। हमारे मुहल्ले में इसी को लेकर दंगा भी हो गया था। बस तभी तय हो गया कि अब घर नहीं लौटना है। तीन-चार साल भटकता रहा। कानपुर, लखनऊ, कोलकाता, मुंबई, दिल्ली, इलाहाबाद। एक बेचैनी भरी तलाश। जैसे चील किसी चीज़ की तलाश में आसमान में उड़ती है, मैं भी उड़ा-उड़ा फिरता था! संगीत उसी समय मुझ पर फिर से हावी हुआ था। इसी में मैंने पैर जमाने की कोशिश की। उम्मीद के हर कतरे को खँगाला। अपना छोटा-मोटा ऑर्केस्ट्रा भी खड़ा किया। स्कूल-कॉलेज में प्रोग्राम किए। लेकिन बात कुछ बनी नहीं।

‘और यह शादी?’

‘कामना मुझे लखनऊ में मिली थी, एक प्रोग्राम के दौरान। माँ-बाप नहीं थे। बुआ के घर पली-बढ़ी थी। मुलाकातें हुई। प्यार बढ़ा। और हमने शादी कर ली। फिर हम यहाँ नागपुर आ गए।

‘उसके घर वालों ने कोई खोज-खबर नहीं ली?’

‘नहीं, उनके लिहाज से तो ये ठीक ही हुआ था। बस इतनी-सी बात है।’

कुछ लोग ज़िन्दगी की छोटी छोटी बातों को भी कोस भर खींच कर बताते हैं। शायद ये उनका शगल होता है। लेकिन कुछ दूसरी तरह के लोग भी होते हैं जो कोस भर की बात को सेंटीमीटर में नाप देते हैं। हो सकता है कि ऐसे लोग अकेले में अपनी परछाई से बातें करते होंगे। लेकिन आप उनकी निजी ज़िन्दगी के बारे में ज्यादा नहीं बात कर सकते। बख्शी दूसरी तरह का आदमी था। वन वे ट्राफ़िक के नियमों का पूरी ईमानदारी और कड़ाई से पालन करने वाला। वह केवल घटना बता सकता था, वह भी टुकड़ों में। उसके पीछे छुपी बेचैनी को चुपचाप जी लेता या गीतों के रास्ते बहा देता।

फिर भी मैंने पूछा- ‘और यह गीत संगीत?’

‘भला हो तेरा, कम से कम तू इसे संगीत तो कहता है। नहीं तो मेरी हैसियत बार और होटलों में गाने वाले एक दो टके के गायक के अलावा और क्या है! ये रात में मेरे गीतों पर झूमने वाले और मुझे पीने का आग्रह करने वालों को तुम देखते हो न, ये सब अपने गम के मारे लोग हैं। मेरी आवाज़ की चादर में छुपकर कुछ पल के लिए झपकी ले लेते हैं। कभी इनसे दिन में मिलूँ तो शायद पहचानेंगे भी नहीं।’

‘मैं तेरी फिलॉसोफी नहीं पूछ रहा हूँ। ये पूछ रहा हूँ कि गीत संगीत की शुरुआत कबसे हुई।?’

 

      ‘बैतुल में ही एक उस्ताद थे, करीमुद्दीन खाँ साहेब। बेहद जानकार, लेकिन बहुत ही लो प्रोफाइल के आदमी। संगीत को दुनिया में जीने का सलीका कहते थे। रेहाना उन्हीं की बेटी थी। अब यह उनकी आवाज़ का असर था या रेहाना की शोख हरकतों का असर, कि मैं दस-बारह साल की उम्र से ही उस ओर खिंचता चला गया। घर वालों को पता चला। पहले रोक-टोक हुई। फिर पिटाई हुई। उसके बाद चोरी-छिपे तालीम चली। अंतिम एक दो सालों में तालीम और प्यार दोनों साथ-साथ चले। और उसके बाद हमने भागने का फैसला किया। आगे की कहानी तो तुम जान ही गए हो।’

 

‘तुम्हारे उस्ताद। उनका क्या हुआ?’

‘पक्का तो पता नहीं। दंगे में वे भी मारे गए थे। उन पर मुहल्ले वालों ने जासूसी का आरोप लगाया था। कहते हैं कि प्रशासन की देख-रेख में जब एक उग्र भीड़ ने उन पर हमला किया, तब वे मीरा का कोई भजन गा रहे थे।

कमरे में कुछ देर तक खामोशी छाई रही। फिर मैंने पूछा- ‘तो शुरुआत तुम्हारी क्लासिकल म्यूज़िक से हुई थी? फिर ये फिल्मी गाने, गिटार, ड्रम वगैरह?’

‘जुनून और जिद ने क्लासिकल सिखाया, ज़रूरत और थपेड़ों ने बाकी सबकुछ।’

वह फिर चुप हो गया। मैं जान रहा था कि इससे ज्यादा उससे अपने बारे में बुलवाना संभव नहीं है।

‘खैर, छोड़ यार, अब अपने बारे में कुछ बता।’

‘मेरे पास बताने के लिए कुछ खास नहीं है।’ उसके सवाल पर एक मजबूत बैरियर लगाते हुए मैंने कहा।

‘जो कहता हैं ना कि मेरे पास बताने को कुछ नहीं है, दरअसल उसी के पास बताने को बहुत कुछ होता है। जमाने की नब्ज़ को ऐसे लोग अपनी चुप्पियों से थामे हुए रहते हैं।’

‘अच्छा। उसकी आँखों में झाँकते हुए मैंने कहा तो वह ठठाकर हँस पड़ा।

‘आज बात कुछ ज्यादा ही हो गई। देखो शराब भी हमारे इंतज़ार में कैसे बेचैन हुई जा रही है?’ बातों के सिरे को शराब की ओर मोड़ते हुए मैंने कहा। 

‘जे बात। उसने अपनी हथेलियों को जाँघों पर जोर से मारते हुए कहा और गिलास में शराब ढाली।

हमने उस रात को सुबह तक पहुँचाई और पस्त होकर फर्श पर बिखर गए। बीच में मेरी नींद खुली। वह फर्श पर ऐसे पड़ा था जैसे कोई कटा हुआ पेड़। मैं फिर सो गया। और दोपहर के बाद जब मेरी नींद और खुमारी दोनों टूटी, वह जा चुका था।

 

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दो सप्ताह उससे मिले बगैर गुजर गए। कुछ ऑफिस की परेशानियाँ, कुछ उस रात का असर कि मैं खुद टालता रहा। चाहता था कि अपनी ज़िन्दगी के खड्डों से जितने परदे उसने उठाए हैं उन्हें फिर ठीक तरह से ढँक ले, उसके बाद ही मिलूँगा। ठीक दो हफ्ते बाद शनिवार की शाम मैं बार पहुँच गया। लेकिन बख्शी के गीतों की जगह वहाँ म्यूज़िक सिस्टम पर गाने बज रहे थे। बार शनिवार के बावजूद खाली खाली सा ही था। जब नौ बज गए और उसके आने की कोई आशा नहीं बची तो मैं सीधे बार मैनेजर के पास पहुँचा और बख्शी के बारे में पूछा।

‘नाम मत ले उसका।। का, उसने गाली दी, ‘यदि पीना है तो यहाँ बैठो। वही सर्विस मिलेगी। बार दारु से चलता है किसी दो टके के गवैये के रेंकने से नहीं।’

मैं उसकी झल्लाहट को समझ रहा था इसलिए अपना सा मुँह लेकर चला आया। एक और पैग का ऑर्डर देते हुए बख्शी के बारे में सोचता रहा। कहाँ होगा इस वक़्त? वेटर से भी पूछा। लेकिन उसने मैनेजर की ओर इशारा करते हुए जीभ दाँतों से काट ली। बिल चुकाकर बाहर गार्ड से भी पूछा – नहीँ मालूम साब, उसने टका सा जवाब दिया। इस वक़्त घर जाना तो बेकार ही होगा। लेकिन आखिर गया कहाँ होगा?

उस रात मैं घर तो चला आया लेकिन बख्शी की याद मथती रही। हर बार एक से ही सवाल- गया कहाँ होगा? कुछ हो-हवा तो नहीं गया? कहीं शहर छोड़कर ही तो नहीं चला गया? मैं जितने सवाल सोचता और ज्यादा उलझता जाता। बबूल की डालियों में पतंग की तरह। फोन तो कभी वह उठाता ही नहीं, सो करने का भी कोई मतलब नहीं था। एक दो बार लगाया भी, लेकिन हमेशा की तरह स्विच ऑफ था।

अगले दिन लगभग दस बजे के आसपास मैं उसके घर पहुँचा। घर ढूँढ़ने में काफी मशक्कत करनी पड़ी। एक ही बार तो आया था। वह भी रात में और नशे की खुमारी में। तब घर भी कहाँ आया था। गली से ही लौट गया था। वह तो नीली गाड़ी के खड़े होने की जगह से अन्दाज़ा लगाया था कि यही घर होगा। घर के सामने एक पाँच-छः साल का बच्चा खेल रहा था।

‘बख्शी का घर यही है?’ मैंने पूछा।

‘पापा घर में नहीं हैं।’

‘मम्मी हैं।’

‘जी। मम्मी देखो कोई आया है’, वह अंदर की ओर भागा।

थोड़ी देर बाद कामना निकली।

‘बख्शी घर में नहीं है?’

‘नहीं रात से लौटे नहीं हैं।’

‘क्या आप लोगों ने ब्लू डायमंड छोड़ दिया है?’

‘हाँ, वो आजकल होटल प्राइड में हैं।’

‘और आप।?’

‘मैं तलाश में हूँ। मेरा मतलब काम की तलाश में हूँ।’ सूनी मुस्कुराहट के साथ उसने जवाब दिया।

‘प्राइड का टाइम भी शाम का ही रहता है न?’

‘जी।’

‘ठीक है। मैं उससे शाम को वहीं मिल लूँगा। अच्छा नमस्ते।’ 

      मैं चला आया। यह तो पता चल चुका था कि बख्शी इसी शहर में है। लेकिन क्यों, यह बात समझ में नहीं आ रही थी। और वह भी अकेले। जबकि वह और कामना, दोनों साथ गाते थे। सारी बातें उससे मिलकर ही जानी जा सकती थी। लेकिन होटल प्राइड। थ्री स्टार होटल। महीने के अंतिम दिन थे। जेब वहाँ जाने की गवाही नहीं दे रहे थे। वहाँ हर चीज की कीमत तिगुनी-चौगनी होती है। लेकिन उससे मिलने का इसके अलावा कोई रास्ता भी तो नहीं था!

      मैं जान-बूझकर वहाँ देर से पहुँचा ताकि कम से कम ऑर्डर करना पड़े। बख्शी स्टेज पर था। मुझे देखकर वह मुस्कुराया। गाना खत्म करने के बाद उसने जल्दी से एक चिट लिखी और वेटर को थमा दी।

      ‘साढ़े दस के बाद मधुशाला बार में मिलो, यहाँ नहीं।’ मैंने अभी ऑर्डर दिया नहीं था, इसलिए तुरंत उठ गया। साढ़े दस बजने में एक घंटे की देरी थी इसलिए थोड़ा इधर उधर घूमकर मधुशाला पहुँचा और कोने की टेबिल पर जम गया। वह लगभग पौने ग्यारह बजे आया। और आते ही हाय-हैलो के बाद अपना पैग बनाया। बिल्कुल पटियाला और एक ही साँस में खाली कर गया। जैसे जनम-जनम का प्यासा हो।

      पहला पैग पीने के बाद के बाद जब मैंने उसे कुर्सी की पीठ से टिकते देखा तो पूछा – ‘होटल प्राइड कब से ज्वाइन कर लिया। कम से कम बता तो सकता था। नंबर तेरे पास है ना?’

      ‘बस यार।।ज्वाइन कर लिया। तीन हजार ज्यादा का ऑफर मिला तो कर लिया।’

      अचानक बगल वाली टेबिल में बैठे किसी पुराने कद्रदान ने बख्शी को पहचान लिया और लपक कर उससे मिला – ‘क्यों बख्शी भाई, कहाँ हो आजकल ? दस दिन हो गए तुम्हारी आवाज़ के बगैर पीते हुए। साली चढ़ती ही नहीं। इतने दिन हो गए दारु से अपना कलेजा जलाते हुए। लेकिन ये साली अब भी तुम्हारी ही वफादार है।’

      ‘आजकल प्राइड में हूँ कपूर साब।।,’ उसने संक्षिप्त सा जवाब दिया। जैसे पूरे मुद्दे को टालना चाहता हो।

      ‘प्राइड। अपना वहाँ जाना तो नहीं हो पाएगा। लेकिन किसी दिन ज़रूर आऊँगा। खैर अभी मिले हो तो ज़रा एक गाना गुनगुना दो। आज का पीना तो सफल हो जाए!’

 

बख्शी ने उसकी इस आत्मीय माँग पर ‘नाम गुम जाएगा’ की कुछ पंक्तियाँ गुनगुना दी। कद्रदान दाद और धन्यवाद देता हुआ अपनी टेबिल पर लौट गाया।

‘तो कैसा चल रहा है प्राइड में, मैंने पूछा।

‘बस ठीक ही है’, उसके जवाब में थ्री स्टार में गाने या तीन हजार की बढ़ोतरी का कोई उत्साहजनक चिह्न नहीं था। साफ लग रहा था कि वह अपने इस निर्णय से खुश नहीं है।

‘क्यों, यहाँ खुश नहीं है?

      ‘खुशी।, वह मुस्कुराया, ‘खुशी यहाँ होती है यहाँ’ उसने अपने सीने की बाँयी ओर इशारा किया, ‘यदि यहाँ खुशी नहीं है तो दुनिया अपनी पूरी भव्यता के बावजूद कब्रिस्तान है।’

‘जब तूने खुद एक नई जगह, एक नया रास्ता, एक नया अंदाज़ चुना है तो तुझे खुश होना चाहिए। यदि आदमी अपने निर्णय को लेकर खुश नहीं है, संतुष्ट नहीं है तो वह कभी हो भी नहीं सकता।’

नहीं मालूम मेरे इस वाक्य के कारण या अपनी इच्छा के कारण वह फिर टुकड़ों में बताने लगा – ‘ब्लू डायमंड का गिटारिस्ट ऑर्केस्ट्रा छोड़कर चला गया था। मुझे भी ऑफर मिला। अब बार में गाना कोई स्थायी तो होता नहीं। बार मालिक को मेरे जैसा या मुझसे सस्ता कोई दूसरा मिलता तो वह भी मुझे निकाल देता। तो बस मैं प्राइड चला गया। असल में थ्री स्टार में गाने का मेरा यह पहला अनुभव है। इसको लेकर थोड़ा आकर्षण भी था। लेकिन यहाँ का महौल बिल्कुल अलग है। यहाँ न तो वे निस्छल कद्रदान हैं और न ही हमप्याले श्रोता। पीने पिलाने की भी कोई रियायत नहीं। शाम को अपने गानों की लिस्ट मैनेजर को दिखाकर सहमति लेनी पड़ती है। दस बजे ऑर्केस्ट्रा खत्म। पर कतरे तोते की तरह मुझे यहाँ रटी-रटाई चीजें पेश करनी पड़ती है।’

‘तो छोड़ दे। जब मन नहीं लग रहा है तो क्यों कर रहा है?’

‘लेकिन जाऊँगा कहाँ? मैंने अब तक किसी के सामने काम के लिए हाथ नहीं फैलाया है। हर बार मुझे सामने से ही ऑफर ही मिला है।’

‘और भाभी जी।?’

‘हाँ यार मेरी करनी बेचारी वो झेल रही है। मेरे काम छोड़ने के बाद वहाँ का ऑर्केस्ट्रा भी बंद हो गया। प्राइड होटल उसे लेने को तैयार नहीं है।’

‘मुझे लगता है कि तुझे ये बार और होटल का चक्कर छोड़कर अपना ग्रुप बनाना चाहिए। कम से कम संतुष्टि तो रहेगी,’ मैंने सुझाया।

वह हँसा, ‘संतुष्टि। संतुष्टि से पेट नहीं भरता। ग्रुप बनाऊँ भी तो पेश कहाँ करूँगा? गणेश पूजा और दुर्गा पूजा में भी पहले जैसा ऑर्केस्ट्रा नहीं होता। मंत्रियों-नेताओं और नाच-गानों ने वो मंच हथिया लिए हैं। शादी-ब्याह से काम चल जाता था। वहाँ भी अब डीजे। बजता है।’

‘फिर।।, मैंने प्रश्न किया।

‘देखते हैं। आशा और निराशा से भरा हुआ एक संक्षिप्त सा वाक्य। साफ था कि इस मुद्दे को अब वह खींचना नहीं चाहता था। मैंने भी जोर नहीं दिया। लेकिन उसके चेहरे पर अपने मन का कुछ ना कर पाने की तड़प साफ दिखाई पड़ रही थी।

‘कल रात कहाँ रह गए थे?’

      ‘ये सड़कें भी तो रहने की जगह है। दिन में तो सब इस पर केवल चलते हैं। लेकिन रात को इसे तन्हा छोड़ जाते हैं। मैं कभी कभी रातों को इनसे मिलने चला आता हूँ। रात के सन्नाटे में अपने ही पैरों की आवाज़ सुनने से ज्याद सुकून इस दुनिया में किसी और चीज में नहीं है।’

‘अभी।।, मैंने पूछा।

‘घर जाऊँगा। चलोगे?’

‘नहीं, कल सुबह ज़रूरी काम है। अब उठना चाहिए।’

हम उठे और अपने अपने घर के रास्ते हो लिए।

           

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केवल मिलने का रिश्ता बख्शी से कभी बन ही नहीं पाया। दिन को अमूमन मैं पीता नहीं था और रात को प्राइड में पीना संभव नहीं था। या फिर साढ़े दस तक इंतज़ार करो, ये और भी मुश्किल था। इन्हीं कारणों से उससे मिलना काफी कम हो गया। लगभग न के बराबर। न मिलने की और भी वजहें थीं। यहाँ रहते हुए मुझे एक साल हो चुका था। कुछ नए संगी साथी भी बन गए थे। कभी उनके साथ बैठना हो जाता, कभी कभी अकेले भी। फिर यह रोज की आदत भी नहीं रही। बख्शी का वह दोस्ताना वाक्य मुझे बराबर याद आता रहता – ‘उदासी से बचने के रास्ते शराबखानों से होकर नहीं गुजरते दोस्त।’ बस उसी वाक्य का सिरा पकड़कर मैं उस अंधी गुफा से बाहर निकल रहा था। लेकिन जब भी अकेले बैठता, कोई सीडी जरूर लगा देता। तब बख्शी की बेतरह याद आती। तय करता कि कल सुबह उससे ज़रूर मिलूँगा। लेकिन हमेशा किसी और दिन के लिए मुलाकात टल जाती।

एक दिन किसी आश्चर्य की तरह सुबह सुबह मोबाइल पर उसका संदेश आया – ‘आज सुबह दस बजे घर आ जाओ। म्यूज़िक स्कूल का उद्घाटन है- बख्शी’। तो आखिर इसे भी सच्ची राह मिल गई। संदेश पढ़कर खुश होते हुए मैं बुदबुदाया। रविवार का ही दिन था। और अभी आठ ही बज रहे थे। मुझे लगा कि यह उम्मीदों भरी दुनिया की नई सुबह है।

लगभग ग्यारह बजे मैं उसके घर पहुँचा। ऊपर के हॉल के बाहर एक साइन बोर्ड लगा था- ‘सुर संगम म्यूज़िक क्लास’। वहाँ कुछ छोटे बच्चे और उनके अभिभावक, जो निश्चित ही उसके पड़ोसी रहे होंगे, उपस्थित थे। बख्शी के कुछ कद्रदान और कुछ दोस्त भी थे। इनमें से कई लोगों को मैंने ब्लू डायमंड में और यहाँ-वहाँ उसके साथ देखा था। मुझे देखते हुए चहक कर गले मिलते हुए उसने कहा – ‘वेलकम इन सुर संगम म्यूज़िक एकेडमी।’ मैंने भी उसे जी भरकर बधाई दी। पूरा वातावरण बेहद सात्विक था। कामना भी काफी खुश दिखाई पड़ रही थी। ब्लू डायमंड का मैनेजर भी वहाँ था और बख्शी के कद्रदानों से शिकायती लहजे में कह रहा था – ‘अरे, आपने तो आना ही छोड़ दिया!’ उसका बेटा हाथ में ट्रे लिए हुए सबको कोल्ड ड्रिंक बाँट रहा था।

मेरे लिए पूरा माहौल ही अजब सुकूनदेह था। सुकून का एक कारण और भी था। इस आत्मीय उद्घाटन के अवसर पर घर के बाहर वो नीली गाड़ी नहीं खड़ी थी, जिसे मैंने अक्सर ही ब्लू डायमंड के बाहर और एक बार यहाँ भी देखा था।

‘आज कोई पार्टी-शार्टी नहीं है? म्यूज़िक एकेडमी की शुरुआत है, सुर के संगम की शुरुआत और सुरा नदारत!’ मैंने पूछा तो वह हँस दिया। ‘आज नहीं, जब ठिकाना बदलते हैं तो नए ठिकानों के तौर तरीके भी अपनाने पड़ते हैं। पार्टी उधार रही। फिर कभी।’ फिर उसने कुछ बंदिशें सुनाई। कामना ने भी कुछ गज़लें सुनाई। दोनों ने साथ मिलकर भी गाया। आज उनका अलग ही रूप दिखाई पड़ रहा था। वे दोनों हिल-मिलकर कर ऐसे गा रहे थे जैसे हवा के मद्धिम झोंके में पीपल की नाचती हुई पत्तियाँ। बीच में उनका बेटा बैठा हुआ था। उसका नाम अंकुर था। यह नाम उन दोनों ने ज़रूर उम्मीदों की डगमगाती हुई नाव पर सवार होकर चुना होगा, मैंने सोचा। उनकी उम्मीदों की नाव आगे क्या रुख लेगी इसे कोई नहीं जानता था, लेकिन सब दिल खोलकर उन्हें बधाई दे रहे थे। इनमें ब्लू डायमंड का मैनेजर सबसे आगे था। जिसे सभी काका कहते थे।

दोपहर को सभी आमंत्रितों के लिए खाने का इंतजाम था। यही कोई पंद्रह लोग रहे होंगे। काका ने चुटकी लेते हुए कहा- ‘बख्शी, अब तो तुझसे मिलना होगा नहीं। जब हम लोग गिलास में सुरा भर रहे होंगे, तू यहां बच्चों के गले में सुर भर रहा होगा। हम वहाँ पंकज उधास बजाएँगे और तू यहाँ हारमोनियम और तबला। बड़ी जल्दी तूने अपना ठिकाना बदल लिया यार। तेरी याद बड़ी आएगी।’

‘काका, मैं कौन सा लंदन जा रहा हूँ। यहीं बगल में तो हूँ। जब मन करे आ जाना या बुला लेना।’

      ‘नहीं यार, अब पहले जैसी बात कहाँ हो पाएगी। यहाँ आने के लिए मुझे तेरी म्यूज़िक एकेडमी ज्वाइन करनी पड़ेगी और वहाँ आने के लिए तुझे मेरी खंभा एकेडमी। अब कहाँ हो पाएगा ये सब। वैसे अच्छा ही होगा कि तू अब मत आना। क्यों कामना?’

‘सब आप ही का सुझाया और किया धरा है काका। आप न कहते तो क्या हमें ऊपर वाला यह हॉल मिल पाता?’

‘मैं कौन होता हूँ कुछ करने वाला। करने वाला तो ऊपर बैठा है, उसने आसमान की ओर इशारा किया। उसकी इच्छा हो तो सबकुछ बदल जाता है। अब देखो, कितनी जल्दी बदल गया सब!’

 

      ‘जल्दी कहाँ काका, कामना ने जैसे किसी बीते हुए सपने की डोर पकड़कर कहा, ‘सात साल लग गए इस रास्ते को ढूँढ़ने में। अब भगवान ने चाहा तो इसी रास्ते पर चलते हुए जान निकले। बस यही तमन्ना है’, उसकी आँखें भर आई थी।

      ‘शुभ शुभ बोलो कामना। सबसे बुरा दिन तुम लोगों ने देख लिया है। अब सबसे अच्छा देखना बदा है।’

खाना खाने के बाद काका चला गया। उसे रविवार की विशेष तैयारी करनी पड़ती थी। लेकिन हम सात-आठ लोग दिन के उतार तक वहीं जमे रहे। अंततः जब हम लोग पीने का कार्यक्रम तय करके वहां से निकले, बख्शी साथ नहीं आया। उसने हाथ जोड़कर माफी माँग ली। उसका न आना हम सबको अच्छा ही लगा।

      बड़ी अजीब सी शाम थी वह। हम सभी एक दूसरे को बख्शी के कारण ही जानते थे। वरना हममें ऐसी कोई नजदीकी नहीं थी। हम तो एक दूसरे का नाम भी पक्के तौर पर नहीं जानते थे। इसलिए नाम लेने से भरसक बच रहे थे। हम लोग केवल रस्मी तौर पर बातें कर रहे थे। बात का सिरा चाहे जहाँ से शुरू हो, खतम बख्शी पर ही जाकर होता। उसी दिन मैंने जाना कि बख्शी अपना मोबाइल इसलिए बंद रखता है क्योंकि रात-बिरात अक्सर उसके कद्रदान फोन पर कुछ गुनगुनाने की पेशकश करते, जिसे वह टाल नहीं पाता था।

      हम जल्दी ही उठ गए। वहाँ बहुत देर तक बैठे रहना सबको भारी पड़ रहा था। बख्शी ने हमारी ज़िन्दगी के अंधेरे कोनों को अपनी आवाज़ से रौशन किया था। हम उसकी ज़िन्दगी के संभावित उजाले को उसकी उपस्थिति के बगैर सेलीब्रेट कर रहे थे।

      अगले रविवार मैं फिर उसके घर गया। स्कूल ठीक चल रहा था। लगभग तीस बच्चे हो गए थे। कुछ और लोग आने वाले थे। यदि शौक को परे रखा जाए तो नए सिरे से ज़िन्दगी शुरू करने के लिए यह पर्याप्त था। यह विश्वास भी मैंने उन दोनों के चेहरे पर देखा। सबसे अच्छी बात तो अंकुर के चेहरे की हँसी थी। उसे जब पहली बार देखा था तब लगा था कि एक कच्चा फल पकने के पहले ही सूख रहा है। लेकिन आज वह झरने की तरह खुश और ताजा था।

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      बख्शी से मिलना अब पहले की तुलना में और भी कम हो गया। उसने एक नया नंबर ले लिया था। कभी कभी उसी पर बात हो जाती या संदेशों का आदान-प्रदान हो जाता। एक बार उसने ‘ट्रिब्यूट टू किशोर कुमार’ का आयोजन भी किया। बहुत सारे लोग जमा हुए थे। एक खुले मंच पर वह कार्यक्रम आयोजित था। अपनी पसंद के ढेरों गाने बख्शी ने गाए। कई और भी साथी थे। बेहद सफल आयोजन था वह। कार्यक्रम के खत्म होने के बाद कई लोगों ने उसे बधाई दी। मैंने भी जब उसे बधाई दी तो हुलस कर गले मिलते हुए उसने कहा- ‘कल शाम को घर आना, ज़रूरी काम है।’ उसके बाद वह फिर लोगों की बधाइयाँ लेने में व्यस्त हो गया।

      मुझसे ऐसा क्या ज़रूरी काम हो सकता है, लौटते हुए मैं यही सोच रहा था। बख्शी अपनी निजी ज़िन्दगी में किसी को घुसने नहीं देता। लोगों को उससे काम होता है। उसे तो कभी किसी से काम ही नहीं पड़ता। फिर मुझसे ऐसा क्या काम पड़ गया ? समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था।

      अगले दिन, लगभग साल भर बाद, मैं उसके घर पहुँचा। घर में कोई नहीं था। वह अकेला था।

‘घर के सारे लोग कहाँ गए?’ मैंने आश्चर्य जताते हुए पूछा।

‘अंकुर ट्यूशन गया है और कामना यहीं पास के ब्लाइंड स्कूल में बच्चों को शाम के समय गाना सिखाने जाती है। बस आती ही होगी।’

 

‘तो मज़े में चल रहा है सबकुछ?’

‘हाँ मज़े में ही है सबकुछ।’ उसकी आवाज में हल्की सी खिन्नता थी। ‘मज़े’ शब्द को उसने इतने ढीले लहजे में कहा था कि कोई भी समझ लेगा कि मज़े में कुछ भी नहीं है। कुछ देर हम इधर उधर की बातें करते रहे फिर मैंने पूछा – ‘बोल किसलिए बुलाया था। कौन सा ज़रूरी काम अचानक आ गया?’

‘अरे कुछ नहीं यार, बहुत दिन से मुलाकात नहीं हुई थी, सो बुला लिया। कोई काम वाम नहीं है। तुझे कोई काम तो नहीं था न?’

इतने में गेट खुलने की आवाज आई। कामना अंकुर को साथ लेकर लौटी थी।

‘बड़े दिन बाद आए भाई साहब, मुझे देखकर उसने कहा।

‘हाँ यूँ ही, बेकाम की व्यस्तता कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है इन दिनों’, एक चलता सा जवाब मैंने दिया।

‘आप बैठिए, मैं चाय बनाती हूँ’,

‘रहने दो कामना, आज हमारा कुछ और प्रोग्राम है।। बस दो मिनट, कपड़े बदल कर आता हूँ।’ वह भीतर चला गया।

‘भाभी जी, सब ठीक तो चल रहा है न? मैं आशंकित था। बख्शी के अंदर जाने के बाद मैंने पूछा।

‘आप अपने दोस्त से ही पूछिए। आजकल बच्चों को म्यूज़िक सिखाना भी बंद कर दिया है। बहुत हुआ तो दोस्तों के साथ शाम को कहीं बैठ जाएँगे। नहीं तो यहीं घर पर अकेले और उदास। नहीं मालूम आजकल क्या सोचते रहते हैं!’

      मैं जानता था कि बख्शी हमारी बात साफ सुन रहा है, फिर भी पूछा। अब वह अपनी ओर से कुछ बताने से रहा। यहीं से कोई सिरा मिल सकता था, जिसे थामकर उससे आगे की बात की जा सकती थी।

‘क्या बात है बख्शी, ये सब क्या है?’

‘तू चल, इत्मीनान से बात करते हैं।’

‘जल्दी घर आ जाना, हमें निकलते हुए देखकर कामना ने गुजारिश के लहजे में कहा। उसकी आवाज में

कोई ऐसा सुर था जो पराजय, दुख और चिंता के मिलने से बना था।

     

      हम एक अपरिचित बार में पहुँचे। शहर से लगभग बीस किलोमीटर दूर। यह उसी का आग्रह था। शायद वह अपने जाने पहचाने लोगों से कहीं दूर बैठना चाहता था। मैंने भी ना-नुकुर नहीं की। जमा हुए पानी का सही समय पर बह जाना अच्छा होता है, अन्यथा सैलाब बन जाने का खतरा होता है। वहाँ पहुँचकर हमने कोने की टेबिल पकड़ी और वेटर को ऑर्डर दे दिया।

      पंद्रह-बीस मिनट तक हम चुपचाप घूँट भरते रहे। न उसने कुछ बताया, न मैंने कुछ पूछा। यह तो मालूम था कि वह कुछ कहना चाहता है और उसके लिए समय का कोई विशेष बिन्दु तलाश रहा है। कई बार ऐसा होता है जब कहने को बहुत कुछ होता है लेकिन किसी विशेष क्षण को तलाशते हुए हम कहना टालते जाते हैं। बख्शी भी शायद बहुत दिनों से कोई बात टाल रहा था। और टालते टालते वह इसका इतना आदी हो चुका था कि उन विशेष क्षणों को भी टालने लगा था जबकि बात आसानी से कही जा सकती थी।

      ‘संगीत सिखाना क्यों बंद कर दिया?’ आखिर जब चुप्पी बहुत खिंचने लगी तो मैंने पहल करते हुए पूछा।

थोड़ी देर वह चुप रहा जैसे कोई ताकतवर जवाब तलाश रहा हो –‘मैं सिखाने के काबिल नहीं हूँ’, बहुत हारा हुआ सा जवाब उसने दिया।

‘क्यों अचानक तुझे क्यों लगने लगा कि तू सिखाने के काबिल नहीं है? और फिर तू बच्चों को ही तो

सिखा रहा था किसी तानसेन को नहीं। तुझे उनमें केवल ललक पैदा करनी थी। जिनमें लगन होगी, जिद होगी, अपना रास्ता खुद तलाश लेंगे। इसके लिए सिखाना बंद करने की क्या ज़रूरत थी?’

 

वह फिर चुप हो गया। मुझे लगा कि वह मेरे साथ थोड़ी देर चुप ही रहना चाहता है। मैं भी चुप हो गया।

कुछ देर बाद उसने कहा – ‘इस साल में सबसे अच्छा यह हुआ कि कामना को विशारद की डिग्री मिल गई। अब वह किसी भी छोटे-मोटे स्कूल में पढ़ा सकती है।’

‘मैं कामना की नहीं तेरी बात कर रहा हूँ। तूने सिखाना क्यों बंद कर दिया?’

‘कोई एक वजह हो तो बताऊँ, बहुत सारी वजहें हैं।’

‘मेरे पास बहुत सारा वक़्त है तुझे सुनने के लिए’, मैं फिर जिद पर उतर आया था।

‘यह सुनने में अच्छा लगता है कि आदमी कहीं से भी शुरू कर सकता है। लेकिन असल में ऐसा होता नहीं। ज़िन्दगी एक या दो मौके ही देती है। वे मौके जीवन भर उसकी पहचान बनकर साए की तरह उसके साथ चलते रहते हैं। मेरे साथ भी यही हुआ। मैं सिखा नहीं सकता। केवल गा सकता हूँ। अब अपने खुद के बनाए हुए गीत गाने की हैसियत तो रही नहीं, इसलिए होटलों और बारों में दूसरों के गाए हुए गीत गाता हूँ। इसके अलावा मुझे कुछ सूझता नहीं। उन तीन-चार घंटों में मेरे भीतर जो सुकून होता है उसकी तुलना में कुछ और अच्छा लगता ही नहीं।’

‘फिर स्कूल खोल ही क्यों?’

‘जीवन को एक नया मोड़ देने चला था। लेकिन भूल गया था कि मेरे जीवन में कोई मोड़ ही नहीं है। दूर-

दूर तक रेगिस्तान के बीच पड़ी हुई एक सीधी और लंबी राह।’

 

      ‘यह तो हुई एक वजह, अब ज़रा दूसरी वजहें भी तो सुनूँ’, सिगरेट का धुआँ उगलते हुए मैंने कहा।

‘बैतुल से भागते हुए मैंने और रेहाना ने म्यूज़िक स्कूल खोलने का सपना देखा था। अब जब बच्चों को सिखाने बैठता हूँ तो उस सपने की रूह मुझे जकड़ लेती है। उसके और उस्ताद के मारे जाने का कारण तो मैं ही था न।। उनके साथ हुए बिताए हर पल मेरा पीछा करते हैं। उस्ताद संगीत को जीने का सलीका कहते थे। मैं सलीका बहुत पीछे छोड़ आया हूँ अब संगीत के साथ रहना संभव नहीं।’

‘और ये ऑर्केस्ट्रा, होटलों और बार में गाना। क्या ये संगीत नहीं है?’

वह कुछ नहीं बोला। यह प्रश्न हमारे बीच थोड़ी देर तक तैरता रहा, ‘आदमी की जब साँस उखड़ने लगती है न, तो डॉक्टर उसे वेंटीलेटर लगा देता है।।’ हल्की हँसी हँसते हुए उसने कहा।

‘और भी कोई वजह?

‘मैं नहीं चाहता कि इस शहर में और बख्शी पैदा हों।’

‘कामना को देख, उसने कैसे खुद को बदला। अंकुर के बारे में सोच। हर बात का निर्णय इतने निजी तौर पर नहीं लेना चाहिए।’

‘कामना बदल सकती है। उसमें वो ताकत है। मेरे पास नहीं है।’

‘फिर, आगे क्या सोचा है?’

‘सोचता हूँ कि फिर से बार में गाना शुरू कर दूँ। काका ने तो साफ मना कर दिया है लेकिन एक दूसरे होटल से ऑफर मिला है।’

‘यानी वही ज़िन्दगी फिर से शुरू।?’

बख्शी कुछ नहीं बोला। लेकिन उसके चुप रहने से साफ झलक रहा था कि वह फैसला कर चुका है। मुझे वह केवल अपना फैसला सुना रहा था। मेरे समर्थन या विरोध का उस पर कोई असर नहीं पड़ने वाला था सो मैंने भी बात आगे नहीं बढ़ाई। जब चीजें बोलने से भी नहीं बदलती तो चुप रहकर इंतज़ार किया जाना चाहिए। मैं भी चुप हो गया। लौटते हुए उसने वह होटल भी दिखाया, जो अगले हफ्ते से हर शाम उसका ठिकाना होने वाला था – रॉयल गार्डन फैमिली बार एण्ड रेस्टोरेंट।

अगले हफ्ते मैं भी पहुँचा। बार के मालिक ने बार के भीतर हर जगह पर ‘बख्शी इज़ बैक’ का पोस्टर लगा रखा था। कामना भी आई थी। लेकिन स्टेज पर बैठने की बजाय वह ग्राहकों की जगह बैठी रही। यहाँ तक कि बार मालिक के गाने के आग्रह को उसने दृढ़ता से ठुकरा दिया। मुझे उसकी दृढ़ता अच्छी लगी। उसने अपनी ज़िन्दगी का रास्ता पा लिया था। उस पर वह चल रही थी। बख्शी ने भी पा लिया था। लेकिन वह पहले वाला रास्ता ही था। थोड़ी देर बाद कामना उठ गई। बहुत आग्रह के साथ उसने अपना बिल चुकाया और अकेले ही लौट गई।

 

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बख्शी की ज़िन्दगी उसी ढर्रे पर लौट आई थी। वही फरमाइशें, वही हमप्याले कद्रदान, देर रात तक पीना-पिलाना, कभी घर लौटना और कभी नहीं भी लौटना। उसकी पारिवारिक ज़िन्दगी पर पहले की तरह ही परदा पड़ा रहा। घर मैं जाता नहीं था और उसके द्वारा बताए जाने का सवाल ही नहीं था। हाँ इतना ज़रूर हुआ कि उसके बाद मैंने कामना को किसी होटल या बार में गाते हुए नहीं देखा। यह मेरे लिए संतोष की बात थी।

      उससे जब भी मिलने या उसे सुनने का मन करता, मैं रॉयल गार्डन चला जाता। कुछ महिने बाद उसने नया होटल ज्वाइन कर लिया। फिर तीन-चार महिनों के अंतराल में वह होटल बदलता रहा। अब वह फिर से ब्लू डायमंड में गाने लगा था। अब कि बार जब मैं उससे मिला, वह काफी कमजोर हो गया था। गाल की हड्डियाँ उभर आई थी। शरीर सूखकर सींक जैसा हो गया था। लेकिन दो चीजें अब भी वैसी ही थी- आवाज की खनक और पीने की ललक।

      इस बार ब्लू डायमंड ने इकतीस दिसंबर की रात का विशेष इंतजाम किया था। बख्शी के सारे चाहने वालों को काका ने निजी तौर पर बुलाया था। मुझे भी उसने फोन किया। वह विशेष कार्यक्रम रात नौ बजे से शुरू होकर दो बजे तक चलने वाला था। परिवार वालों के लिए अतिरिक्त रूप से व्यवस्था थी।

      मैं लगभग दस बजे पहुँचा और वहाँ बख्शी का एक नया ही अवतार देखा। साजिन्दे मंच पर बैठे थे। लेकिन वह कॉलर माइक लगाए हुए घूम-घूमकर गा रहा था। शराबी फिल्म के गीत ‘लोग कहते हैं मैं शराबी हूँ’ को जब बोतल बजाते हुए उसने गाया, पूरी महफिल झूम उठी। लोगों की माँग पर वह गीत उसने तीन बार गाया। बहुत से चाहने वालों के साथ वह थिरका भी और लोगों को नचाया भी। कामना भी अंकुर के साथ आई थी। उन दोनों के साथ भी उसने नाचते हुए गाया।

      मुझे लगा कि वह थक रहा है। काका ने उसे रोकने की कोशिश की। कामना भी लगातार उससे रुक जाने को कहती रही। आत्मीय दोस्त भी रोकते रहे। लेकिन बख्शी रुका नहीं। बीच में जब उसने ‘घुँघरू की तरह बजता ही रहा हूँ मैं’ गाने का ऐलान किया तो कद्रदानों ने जैसे विद्रोह कर दिया- ‘नहीं आज की रात यह गाना नहीं होगा।’ ‘बिल्कुल नहीं। बिल्कुल नहीं।’ की आवाज इस छोर से उस छोर तक दौड़ गई। सारे लोग उस रात की अंतिम बूँद तक को निचोड़ लेना चाहते थे। बख्शी भी हाँफने लगा था लेकिन रुकने को तैयार नहीं था। थोड़ा ब्रेक लेकर उसने चोरी छुपे एक पटियाला पैग नीट मारा। जिस चाहने वाले ने उसे यह उपलब्ध कराया था उसकी माँग पर उसने दो गाने गाए- ‘गाता रहे मेरा दिल’ और ‘चलते-चलते मेरे ये गीत याद रखना, कभी अलविदा ना कहना’।

      वह रात सुबह चार बजे जाकर खत्म हुई। मैंने बख्शी से गले मिलकर उसे नए साल की बधाई दी और लौट आया।

      सुबह ग्यारह बजे जब नींद खुली तो नव वर्ष के ढेर सारी शुभकामनाओं वाले संदेशों के साथ किसी अपरिचित नंबर से एक संदेश था –‘बख्शी नहीं रहा। दोपहर 1 बजे मोक्षधाम में उसका अंतिम संस्कार होगा।’

 

      वहीं जाकर पता चला कि उसे पिछले कई दिनों से पीलिया था। 

 


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