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मत होना सावित्री

मत होना सावित्री

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वही बारिश में धुले धुले, ताजगी भरे पेड़ हैं, वैसा ही जिंदगी से भरा हुआ एक मोर अपने परों को फैला कर नाच रहा है और घर के पीछे स्थित पार्क की ये वही बेंच है, जिस पर बैठ कर कुछ समय मौसम की खूबसूरती का रसास्वादन करने के लिए पिछले साल सावित्री उनको खींच कर लाई थी और वह आदतानुसार उसके इस पागलपन, बुढ़ापे में भी पीछा न छोड़ने वाले इस बचपने पर बुरी तरह से खीझ उठे थे।

अजीब सी बात है, उस समय उनके पास कितने सारे जरूरी काम हुआ करते थे पर एक सावित्री के जाते ही सब कुछ उल्टा पुल्टा हो गया है ..... कि उनका काम, मेहनत से कमाए हुए पैसे, उनके मित्र गण, उनका बेटा और यहाँ तक कि उनकी अपनी आदतें..... हर वो चीज जिससे जीवन भर उन्होने बहुत प्यार किया था। अब नीरस लगने लगी है और हर वो चीज जिसे कभी किसी गिनती में ही नहीं लिया, मसलन सावित्री का बगल में सोना और उसका वो सुबह सबेरे से उठ कर न जाने कितने कामों में स्वयं को झोंक देना, उसका बनाया खाना, उसका सुरीला स्वर, दस बार उनकी डाँट सुनने के बाद भी उनकी हर सुविधा की ध्यान रखना, उसकी सादगी और उसका वो पूरा का पूरा व्यक्तित्व ही, जिसको उन्होंने उसके जीते जी हमेशा नकारा था आज मुठ्ठी से फिसलते ही उनको कंगाल क्यों बना गया है ? इस खूबसूरत मंजर की ही बात करें तो पिछले साल उन्होने इसको ठुकराया था, आज ये उनको ठुकरा रहा है कि वो आँसुओं से धुँधलाई आँखों को संभालते पिछले दरवाजे से वापस अपने कमरे में लौट आए।

आस्था और अभिषेक, उनके बेटे बहू को शायद उनके घर लौटने की आहट नहीं मिली थी जभी तो तेज तेज आवाज में होती उनकी बहस दरवाजों दीवारों को भेदती उनके कानों तक पँहुच रही थी। जल्दी ही समझ में आ गया कि परसों जो दोपहर में आस्था कहीं गई थी तो कार से गई थी और इसके लिये उसने अभिषेक से इजाजत नहीं ली थी। इससे नाराज अभिषेक अब कार की चाभी छुपाकर आफिस जा रहा था। आस्था बहुत गुस्से से कह रही थी, "हम लोग दोनों पढ़े लिखे लोग हैं। अगर हमें एक दूसरे का कोई भी ऐक्ट पसंद नहीं आता तो हम बात करेंगें आपस में, कनविंस करेंगें एक दूसरे को.... इस तरह जबरदस्ती लाद नहीं सकते हैं आप अपना निर्णय मुझ पर।

आपको मेरी इस तरह बेइज्जती करने का कोई हक नहीं है।" सीने में गड़ते शूल की तरह फिर सावित्री याद आ गई। उनको...शुरु शुरु में जब वह कपड़े सुखाने छत पर जाती थी तो एक समवयस्क पड़ोसन भी उसी समय छत पर आ जाती थी। जैसे ही माँ ने उनसे शिकायत की कि बहू छत पर रोज पड़ोसन से गप्पें मारने जाती है उन्होंने इस सिलसिले को रोकने के लिए छत पर ताला बंद कर दिया था और कपड़ों को बालकनी में सुखाने का हुक्म दे दिया था। कुछ भी तो नहीं कहा था सावित्री ने पर उसकी आँखों में वो जो एक दर्द था, जो उनको उस दिन नहीं दिखाई पड़ा था.... आज क्यों इतनी तकलीफ दे रहा है ? काश, सावित्री के साथ थोड़ा अच्छा व्यवहार हुआ होता ! या उसने ही कभी खुलकर बात की होती, कभी विरोध ही करती ? तुम ही सही हो आस्था ! हमेशा इसी समझदारी से अपने अधिकारों के लिये जागरूक रहना... तुम सावित्री मत होना।


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