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औरत होकर भी ज्यादा बोलती है.

औरत होकर भी ज्यादा बोलती है.

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पाखी 'दी'...बस एक नाम नहीं बल्कि पिंड के प्रति एक समर्पण का पर्याय !

आज पाखी बहुत खुश नज़र आ रही थी क्योंकि उसने जो सोचा , कहा और ठाना ; उसे कर दिखाया औरवो भी ऐसे पितृसत्तात्मक समाज में जहाँ अक्सर मर्द अपनी महरिया को प्रताड़ित करते हुए बोलते नजर आते हैं कि ,

" औरत होकर भी ज्यादा बोलती है...!"

दरअसल कथानक है उस गरीब बाप की एक भोली किंतु शिक्षित एवं बेहद समझदार कन्या पाखी का , जिसे उसके बाप ने अभावों में पाला था। पाखी भी अपने परिवार की मान-मर्यादा का ध्यान रखते हुए जहाँ एक ओर घर के कामों में हाथ बंटाती तो वहीं दूसरी ओर अपनी तालीम का भी इल्म रखती। कालचक्र अपनी गति से घूमता रहा और इसी बीच पाखी के बारहवीं के इम्तिहान भी पास आ चुके थे।

पाखी बारहवीं के बाद उच्च शिक्षा लेना चाहती थी क्योंकि जिस परिवेश से वो थी , वह नहीं चाहती थी कि और भी लड़कियां अपने घरवालों के कामों में यूं ही हाथ बटाते-बटाते अपनी जिंदगी से समझौता कर ले और नियति के हाथों हाँकी जाये। वह स्वयं शिक्षिका बनकर बालिका-शिक्षा के क्षेत्र में अलख जगाना चाहती थी लेकिन वो कहते हैं न कि नियति को कोई नहीं टाल सकता , ऐसे ही कुछ वक्र मोड़ आने लगे पाखी के जीवन में अब। अपने घर में जवान लड़की को बांस के पेड़ की तरह शीघ्र बढ़ते देखने वाला उसका बाप जल्दी से बिरादरी के किसी समकक्ष लड़के के साथ उसके हाथ-पीले करने की चिंता में सूखा जा रहा था , एक बिना छाल और जान के पेड़ के ठूंठ की तरह। उधर लक्ष्मी भी अपने भरे-पूरे यौवनकाल से गुजर रही थी। दरअसल होता यही है कि इस अवधि में लड़के-लड़कियों के हार्मोन इस कदर स्त्रावित होते हैं कि उनका स्वयं पर हावी हो पाना बेमानी और हवा-हवाई सा लगने लगता है और इसी बीच चुम्बक के दो ध्रुवों की तरह उनमें आकर्षण होने लगता है जो स्वाभाविक माना जाता है। इसी आकर्षण के पाश से वह भी नहीं बच सकी। प्रीतम जो उसकी गली से ही दो गली दूर रहता था वह भी उसी के क्लास में था और स्कूल आते-जाते वक्त दोनों की नज़रों का एकाएक मिल जाना कोई ज्यादा बड़ी बात नहीं थी। कई दिनों तक ये सिलसिला चलते-चलते दो अजनबी राहगीरों के मूक-दर्शन में बदलने लगा और एक-दूसरे को देखते ही वे असहज होने लगे। एक दिन आकाश में घने गरजते बादलों के साथ ही मौसम घोर-गर्जना के साथ जोरदार बारिश का अंदेशा दे रहा था जैसे ही 5 मिनट भी नहीं हुए होंगे कि मूसलाधार बारिश शुरू हो गयी। उधर सब स्कूल के बच्चे फटाफट अपने घरों की ओर भागने लगे लेकिन बारिश इतनी जोरदार थी कि विपरीत दिशा में जाकर उसकी हवा का प्रतिकार करना भी अर्थहीन प्रतीत हो रहा था। अपनी सहेलियों को लाख मना करने के बावजूद भी जब वे नहीं रुकी तो पाखी खुद को बरसात से बचाने के लिए एक टीन के नीचे आकर खड़ी हो गयी। उसके कपड़ें पूरे भीग चुके थे और वह अपने हाथों से बालों को सुखाने और सलवार को निचोड़ने की कोशिश कर रही थी ताकि थोड़ी निज़ात मिल सके लेकिन इतने में ही एक मानवाकृति दौड़ी हुई आयी और उसने भी टीन में शरण ली। तेज बारिश में सफेद फुहारों के धुंधलेपन की वजह से पहले तो पाखी कुछ देख न पाई और अपने कदम पीछे लेकर एक कोने में शांत स्वभाव से खड़ी हो गयी। सामान्यतः यह सार्वभौमिक सत्य ही हैं कि समाज की पुरुषसत्ता के जद में आधी आबादी कुछ इस तरह की हो गयी है कि अकेलेपन में वें असुरक्षा के भाव से स्वयं को सकुचाते हुए दूर कर लेने में ही अपनी इति मानने लगती हैं। लेकिन जब उसने देखा तो वह प्रीतम था जो बालों को हाथ से ऊपर करते हुए उन्हें गीलेपन से आजाद करने की जुगत में था। उसने पाखी की ओर हंसते हुए देखा लेकिन वह बिना किसी प्रत्युत्तर के अनजान भाव से खड़ी रही। पाखी की समझदारी एवं शील व्यवहार का पूरा मोहल्ला साक्षी था और प्रीतम भी इस बात को बखूबी जानता था , उसने सकुचाते हुए पाखी से पूछा कि वह आगे क्या करना चाहती है , पहले तो पाखी चुप रही लेकिन जब प्रीतम को अपनी ओर उत्तर की प्रतीक्षा में नैन गड़ाए हुए देखा तो वह नीचे गर्दन करती हुई बोली , शायद अगर कुछ करने का मौका मिला तो मैं शिच्छा के जगत में काम करना चाहती हूँ। प्रीतम निस्तब्ध था कि ऐसे परिवेश और नासमझी की उम्र में भी कितनी बेबाकी से उसने अपनी बात बोल डाली थी।

समय गुजरता गया और प्रीतम-पाखी का मिलना-जुलना , प्रेम की कोपलों का खिलना जारी रहा। बारहवीं के रिजल्ट आ चुके थे जिसने भी पाखी को मोहल्ले में चर्चा का विषय बना दिया था क्योंकि वह अपने कस्बे से न केवल हाई स्कूल पास करने वाली पहली लड़की थी बल्कि उसने यह सब प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण किया। अब वह इसी पसोपेश में थी कि वह कैसे भी करके उच्च-शिक्षा ग्रहण करें लेकिन इसके लिए उसे गाँव से 5 km दूर जाना था और वो क्षेत्र भी ऐसा जिसमें मान्यता थी कि 'पढ़-लिखकर कौनसा कलेक्टर लग जायेगी , आखिर सर तो चूल्हे-चौके में ही झोंकना है' ; अब ऐसे में जब पाखी के बाप किशना के मन मे बेटी की शादी और पढ़ाई को लेकर अंतर्द्वंद चल रहा था तो उसने ठान लिया कि अब वह घर का काम संभालेगी क्योंकि गाँव वाले अकेली लड़की को जाता देख , न जाने क्या-क्या बातें करेंगे लेकिन पाखी के सर पर तो पढ़ाई छोड़ने के नाम से दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था। वह रातभर रोती रही और अपने बाप से ही लड़ने पर उतारू हो गयी , उसने क्रोधाग्नि से तमतमाते हुए अपने चेहरे से बिना समाज और पड़ोस वालों की परवाह करते हुए अपने बाप के खिलाफ एक जंग-सी छेड़ दी और जोर-जोर से शिक्षा से आने वाली जागरूकता के बारे में किशना को बताने लगी लेकिन यह आपको स्वीकारना ही होगा कि " जब किसी आदमी की पितृसत्ता का दम्भ टूटने लगता है या उसकी इस वर्चस्ववादी प्रवृत्ति को चुनौती मिलने लगती है तो वह इसे सह नहीं पाता और टूट पड़ता है उस प्रतिकारी शक्ति के ऊपर।" ऐसा ही कुछ किया किशना ने पाखी के साथ , वह भागा और जोर से उसे लात मारकर बोला , " छिंदाल , औरत होकर भी ज्यादा बोलती हैं "। वह पड़ी-पड़ी सिसकियां ले रही थी क्योंकि उसे पुचकारने वाला कोई नहीं था ; माँ तो उसे जन्म देते ही मर गयी थी , बाप ने ही उसे पाला था लेकिन जब दो दिन तक पाखी कुछ खाये-पिये बिना बेसुध होकर अपनी जिद पर अड़ी रही तो किशना ने रोटी का निवाला खिलाते हुए उसे अपनी छाती से चिपकाकर दहाड़ने लगा , उसकी आंखों में प्रायश्चित का भाव साफ झलक रहा था। "बाप-बेटी का रिश्ता होता ही ऐसा है जब वे अपनी भावनाओं में बह जाते हैं तो बाप बेटी के लिए सारी कायनात से लड़ने लग जाता है , यही तो है कम्बख़त 'इलेक्ट्रा ग्रंथि' का कमाल ।" ऐसा ही कुछ किशना के साथ हुआ और उसने पाखी का दाखिला करा दिया कालिज में। अब पाखी जैसे ही घर से कालिज को निकलती तो लोगों के घर में , चाय की थड़ियों पर , गली-नुक्कड़ों में काना-फुसी चालू हो जाती , लड़के कातर निगाहों से अपनी हवस और वासना आंख में लिए हुए निकम्मों की तरह उसे ताकते रहते और पीछा भी करते लेकिन पाखी गर्दन झुकाएं वहाँ से चुपचाप निकल जाती और घर आकर पिता के कामों में अपना काम बंटाती। गाँव वाले भी आकर अब तो उसके घर पंचायत करने लगे , कहने लगे किशना से बड़ी बहन-बेटी ऐसे पढ़ने जाती अच्छी नहीं लगती , कल को अगर कुछ ओछा-सीधा हो गया तो तुम्हारे साथ-साथ हमारे गाँव की इज्जत भी मिट्टी में मिला देगी ये छोरी और ऐसे भी कोई सरपंचानी-कलेक्टरी तो न आ जानी इसके हाथ मै , करना तो चूल्हा-चौका और बच्चे पैदा करना ही है और वैसे भी ज्यादा पढ़ैगी तो कोई पढ़ा-लिखा लड़का ढूंढने में भी दिक्कत होवैगी , फिर बैठाए रखियो अपनी पाख्या कु घर मां। किशना विचारनमग्न अवस्था में ही लकड़ी के टुकड़े से मिट्टी कुदेरता रहा , उसकी आँखों से आंसू बह रहे थे और मन अंदर से कुड़बुडा रहा था कि "साला , घर में बेटी का होना ही अपराध है , काश पाखी न होती।"

उधर प्रीतम भी उसी कालिज में जाने लगा था और अब दोनों के बीच प्यार का प्रस्फुटन त्वरित गति से रफ्तार पकड़ रहा था। प्रीतम और पाखी दोनों ही एक दूसरे को चाहने लगे थे और कालिज में साथ-साथ मिलने भी लगे। जहाँ पाखी , प्रीतम को उसके प्रगतिशील विचारों और सामाजिक-रूप से जागरूक रहने के कारण चाहने लगी थी वहीं दूसरी ओर प्रीतम में भी पाखी की बेबाकी और शिक्षोत्थान को लेकर ग़जब की प्रतिक्रिया थी ; दोनों एक-दूसरे में रमने लगे , घण्टों बातचीत करते सामाजिक मुद्दों पर और उनके विमर्श की तलाश की तड़प साझा करते एक -दूसरे से। अब तो प्रीतम भी पाखी से अक्सर यही सवाल पूछा करता कि " औरत होकर भी तुम इतना कैसे बोल-कर लेती हो " और पाखी उसके अनुत्तरित प्रश्न को छोड़ फिर विचारों में डूब जाती। अब किशना भी बेटी के हाथ-पीले करने की ताक में दिनों-दिन कुढ़ता जा रहा था , उधर गाँव वालों को जब पता चला प्रीतम-पाखी के प्रेम-प्रसंग का तो ऊंची-नीची बातें होने लगी और कानाफूसी का दौर चालू हो गया। इस समय पूरे गाँव की दिनचर्या का केंद्र ही किशना की बेटी और धोबी के लड़के प्रीतम के इर्द-गिर्द रहने लगा और अंततः वही हुआ जिसकी एक रूढ़िबद्ध नैतिकता भरे समाज से अपेक्षा की जा सकती थी। गाँव वालों ने पंचायत इकट्ठा की और दोनों पक्षों के घरवालों को बुलाकर बात सामने रखी। जब सबने किशना के बाप को ज़लील किया कि कैसे उसकी बेटी पढ़ाई के बहाने अपनी इज्ज़त तार-तार कर रही है और क्या-क्या गुल खिला रही है तो किशना सिर से पैर तक सिहर गया , उसने कभी भी ऐसी कल्पना न की थी , उधर प्रीतम के परिवार की भी आर्थिक-सामाजिक हालत ऐसी थी कि वे भी कुछ बोलने के पक्ष में नहीं थे। सही भी है ज़नाब , आजकल प्रेम भी हैसियत के आगे समक्ष नतमस्तक होने लगा है ,अगर यही स्थिति दो सम्पन्न वर्गों की संतानों में होती तो वे खुश हो जाते कि उनके बच्चे अपने फैसले लेने के लिए पर्याप्त समर्थ हो गए हैं लेकिन जब गरीबी में प्रेम होता है तो वह सिसकियों में ही दम तोड़ने लगता है। जब पाखी ने अपने बाप को पंच-पटेलों से माफी मांगते देखा तो वह प्रतिशोध के लिए उठ खड़ी हुई। उस समय मानो वह सम्पूर्ण नारी-दर्शन को ओढ़कर स्वयं सशक्त रूप में आ गयी थी। उसने चिंघाड़ते हुए कहा , बापू किसी से माफी मांगने की जरूरत ना है मैंने कुछ भी गलत नहीं किया , "क्या एक लड़की को अपने मनपसन्द लड़के से शादी का अधिकार भी नहीं होना चाहिए , वह रुकी नहीं बल्कि बोलती रही कि क्या मैं किसी भी लड़के के साथ बिन-सहमति के ब्याह दी जाऊं और गुलामी की बेड़ियों में बंध जाऊ " ; वह समाज की तथाकथित मर्यादाओं को तार-तार करती हुई बोलती रही जबकि किशना उसे चुप हो जाने की मिन्नतें करने लगा। जब पाखी का यूँ बेबाकी से बोलना पसन्द नहीं आया बिरादरी को तो उनमें से एक पटेल गुस्से से बोला , " बदचलन , कुलटा कहीं की चुप रह , औरत होकर भी ज्यादा बोलती हैं।" होना क्या था जब प्रीतम-पाखी के घरवालों की तरफ से माफीनामे जैसा कोई प्रस्ताव न आया तो सभी बिरादरी वालों ने इसे अपनी तौहीन समझा और सुना दिया फरमान कि " किशना और धोबी , बिरादरी से बहिष्कृत किये जाते हैं ; आज से इनका समाज में हुक्का-पानी बंद।"

उधर किशना पर तो विपत्ति की बिजली टूट पड़ी थी एक तो बिन ब्याही जवान लड़की का बाप और दूजा बिरादरी बहिष्कृत , हाय रे विधाता ! अब कौन करेगा इस कुलटा से ब्याह , इतना कह वे बेसुध हो गये। उधर धोबी ने प्रीतम के जरिये पाखी को अपने घर की बहू स्वीकारने के लिए अपनी मूक-सहमति दे दी थी क्योंकि उसे तो कोसों तक ढूंढने से भी ऐसी सुशील और समझदार बहू न मिल पाती। लेकिन अब समस्या यह थी कि जहाँ एक ओर पाखी का कालिज जाना दूभर हो गया वही दूरी तरफ किशना भी उसे हिदायत दे चुके कि कर ली पढ़ाई , अब चूल्हे-चौके में ही माथा घुसेड़ना है तब काहे का टेंसन और काहे की मच-मच। किशना कोई पैसे वाला तो था नहीं और न ही सामाजिक रूप से सशक्त ही , ऊपर से गाँव , बिरादरी में इतनी बदनामी हुई सो अलग ; उसने भी प्रीतम के साथ पाखी को ब्याह कर अपना बोझ हल्का कर लिया। दरअसल एक गरीब बाप के लिए जवान बेटी बोझ ही होती है , जब तक उसका ब्याह न हो जाये तब तक उसे दो जून की रोटी भी नहीं सुहाती लेकिन उसके पीले हाथ करते ही वह इस भारी बोझ से खुद को आज़ाद महसूस करता है। आज किशना भी यह आज़ादी महसूस कर रहा था लेकिन कितनी घोर विडम्बना है ये कि एक बाप अपनी बेटी को विदाई देकर आजादी महसूस करें , यह पराकाष्ठा है आज के समाज की लेकिन क्या करें सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। इधर कहने का ससुराल था , नहीं तो पाखी का घर तो दो गली दूर ही था। अब वह यही रहती और उसने खुद को गृहस्थी के कामों में झोंक दिया। प्रीतम की पढ़ाई जारी थी , वे वहाँ पढ़ते और खुद यहां आकर पाखी को भी पढ़ाते , साथ ही घर के काम भी करवाते। ससुराल में भी सबकुछ नॉर्मल नहीं था पाखी के साथ ; उसकी सास जो मोहल्ले के कपड़ें धोती थी अब चाहती थी कि पाखी भी उसे इस काम मे हाथ बंटाएं जबकि पाखी चाहती थी कि पढ़ाई छूटी तो क्या हुआ , अब भी वह घर-घर जाकर या फिर गाँव के सरकारी स्कूल में बच्चों को पढा कर अपनी संतुष्टि प्राप्ति का प्रयास तो कर ही सकती है। आये दिन सास और पाखी के बीच इस कार्यक्षेत्र के मध्य वैषम्य ने घर मे एक स्थायी कोलाहल और मनमुटाव को जन्म दे दिया। जहां एक ओर प्रीतम के घरवाले अपनी बहू के बच्चों की पढ़ाई के लिए किए जा रहे प्रयासों से प्रसन्न होते थे तो वही दूसरी ओर वे नाखुश भी थे क्योंकि देहात में खुशियां वगैरह सब पुश्तैनी आजीविका के पीछे ही चलती है जिसे अपनाने से पाखी साफ इंकार कर चुकी थी।

समय के पन्ने पलटते गए और सब-कुछ बदलता भी गया और सही भी है क्योंकि "परिवर्तन , प्रकृति का शाश्वत नियम है ; लगातार एक जगह ठहरा पानी भी थोड़े देर बाद बदबू मारने लगता है।" पाखी भी अब माँ बन चुकी थी। उसका सारा दिन अब अपने बाल-बच्चे की देखभाल , घर के कामों में खपने लगा और जो कुछ समय बचता , उसमें वह मोहल्ले की बच्चियों को पढ़ाती और उन्हें जागरूक करती। लेकिन अब जब एक महिला अपने मातृत्व को धारण करती है उसकी सारी जिंदगी उसी के इर्द-गिर्द केंद्रित हो जाती है ; पाखी भी अब घर-गृहस्थी के कामों में व्यस्त रहने लगी। मोहल्ले में जब वह छोटे-छोटे बच्चों को पढ़ाती तो आधे लोग उसे आज भी ताना मारते तो कुछ उसे सराहते भी। अपने बच्चों की पढ़ाई में आते सुधार और उनकी समझदारी को देखकर अब गाँव वाले भी भले ही आगे से नहीं लेकिन पीठ पीछे उसकी बड़ाई करते क्योंकि उनके स्कूली बच्चों में वह पाखी 'दी' के नाम से फेमस हो गयी थी। आस-पास की सभी औरतें उसका सम्मान करने लगी थी और करे भी क्यों नहीं , आखिर वही तो थी एक जिसने शिक्षित होकर अपनी आवाज बुलंद की और परिवर्तन की बयार में खुद को झोंकने लगी। अब गाँव वाले भी स्कूल में जा-जाकर अध्यापकों से बच्चों की पढ़ाई का हाल पूछते और उनसे सलाह-मशविरा करते। लेकिन इतना कुछ काफी नहीं था क्योंकि घरों की सभी लड़कियों के बारे में गाँव वालों की सोच अब भी वही 'बच्चा पैदा करने और चूल्हे-चौके' के काम वाली थी जिसे अभी बदलने की जरूरत थी। कई बार होता है कि जब आप किसी बड़े मिशन पर निकलते हैं तो आपको सब-कुछ दांव पर लगाना पड़ता है लेकिन फिर भी सफलता मिले ही , यह एक अदृश्य प्रश्न होता है। यहां भी कुछ ऐसा ही था मतलब सब-कुछ पाखी की मुट्ठी में होते हुए भी रेत की तरह फिसलता जा रहा था क्योंकि जिन परिवर्तनों के लिए अभी वो जूझ रही थी उसके लिए जरूरत थी समाज के सोच-परिवर्तन और आर्थिक प्रोत्साहन की।

एक दिन जब पाखी कच्ची झोपड़ियों में एक जर्जर पाल के तले छोटी-छोटी बच्चियों को शिक्षा से होने वाले फायदे और उनकी जिंदगी के बदलाव को लेकर बातचीत कर रही थी , तभी वहाँ एक चमचमाती हुई कार आकर रुकी और उसमें से चश्में लगाए हुए एवं हाथ में किताबें एवं पोस्टर लेकर कुछ बुद्धिजीवी से दिखने वाले लोग निकले और उन्होंने कस्बे की सामाजिक-आर्थिक हालात , एजुकेशन - हेल्थ अवेयरनेस , लोगों की आजीविका के बारे में जानकारी लेना शुरू कर दिया। गाँव मे कार का यूँ आना और उनमें से उतरे लोगों का पाखी के साथ यूँ बातचीत करना , सबको कौतूहल में डालने वाला था। इतने में ही पंचायत के सरपंच , पटेल और लोगों जिसमें महिलाएं भी शामिल थी , सबका बरगद के पेड़ के नीचे जमघट सा लग गया। जब उनमें से एक बुद्धिजीवी जो कोट पहने हुए थे हाथ मे कुछ कागजात लेकर गांव वालों को समझाने के लिए उठे तो उन्होंने सबसे पहले यही पूछा , क्या आपके यहाँ कोई ऐसा पढा-लिखा है जो मेरी बातों को सभी ग्रामीणों को समझा सके ; पूरे जमघट में सभी युवा लोग एक-दूसरे की बगले झांकने लगे और सन्नाटा छा गया। जब किसी को भी आगे न आता देख सरपंच और पटेलों ने अपनी फज़ीहत होती देखी उन नगरी बाबुओं के सामने तो उन्होंने अनमने भाव से पुकारा -''ओ छोरी पाखी! बड़ी एडज्युकेशन की बातां करैसी , जरा इधर आर समझा तो सही।'' सब के सब हक्के-बक्के थे और पटेल पाखी को आगे आते देख उन शहरी बाबुओं के सामने अपनी मूंछों पर तांव दे रहे थे। जब पांखी ने आगे जाकर सबका अभिवादन किया एवं उनका यहाँ आने का मन्तव्य पूछा तो उन सभी लोगों ने विनम्रता से पाखी के अभिवादन को स्वीकार किया और बताया कि हम UNO की तरफ से आये हैं। उन्होंने बताया कि संयुक्त राष्ट्र संघ का मानना हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी जागरूकता के अभाव के चलते महिलाएं अपने शारीरिक परिवर्तनों जैसे - माहवारी , परिवार-नियोजन उपकरणों यथा- कंडोम , गर्भनिरोधक गोलियां 'छाया' आदि से भली-भांति परिचित नहीं है ; उनमें अपने पोषण एवं बच्चों के टीकाकरण सम्बन्धी जानकारियों के अभाव के चलते आज भी कई बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। खुले में शौच , अपनी आत्मनिर्भरता , दहेज प्रथा , कन्या-भ्रूण हत्या एवं अपने अधिकारों से अनभिज्ञ होना कई ऐसी समस्याएं है जिनके मूल में बालिका अशिक्षा एक प्रमुख एवं केंद्रीय कारण है। UNESCO चाहता है कि हर स्तर पर देहात में एक ऐसा अभियान 'ज्ञानार्थ प्रवेश , सेवार्थ प्रस्थान' चलाया जाए जिससे हम बालिका शिक्षा के साथ ही महिलाओं के एक स्वयंसेवी ग्रुप को भी प्रशिक्षण के जरिये प्रोत्साहित कर सकें। गाँव वालों के ऊपर से ये सब बातें बाउंसर बॉलों की तरह जा रही थी और उधर पाखी को उन सबसे इस कदर सधे हुए एवं समझदारी से संवाद करते देख सबने दांतों तले अंगुली दबाई हुई थी , शायद आज उन्हें भी तालीम की ताकत का इल्म हुआ हो।

जैसे ही उनसे बातचीत कर पाखी अपने ग्रामीणों से मुखातिब होने लगी तो पंचायत का सरपंच और मुखिया बोले , " अरी छोरी ! ई शहरी बाबू , इंग्रेजी में का समजावत है , हमरै तो कछु पल्लै ही ना पड्यो। " एकबारगी उनकी बात सुनकर सब खिलखिलाकर हंस पड़ें। फिर पाखी ने समझाना चालू किया , "देखो बाबा ! ये हमारे गाँव में एक जागरूकता अभियान चलाना चाहते हैं ताकि हमारी बच्चियां पढ़ सके , उन्हें ढंग का खाना मिल सके , समय-समय पर पेट से होने वाली औरतों को टीका लग सकें ताकि 'जच्चा-बच्चा' स्वस्थ हो , खुले में शौच न जाकर हम घर-घर शौचालय बनवा सके।" एकबारगी तो सब पाखी की बात सुनकर अचंभित रह गए लेकिन फिर सातिर से मुखिया बोला , लेकिन छोरी रोकड़ा कहां सूं ल्यावनगा। इतना सुनते ही फिर सब हंस पड़ें , पाखी ने सबको समझाया कि इस काम में , उनकी टीम हमारी आर्थिक मदद भी करेगी। इतना सुन पटेल और मुखिया एक-दूसरों को देख हक्के-बक्के तो रह गए। पाखी से कल सुबह आने की बात कहकर UNESCO टीम तो निकल गयी लेकिन देहात के लोगों , सरपंच और पटेलों के दिमाग में कई अनसुलझे प्रश्न छोड़ गयी। अब सबकी नजऱ थी तो बस पाखी पर ; गाँव का मुखिया ने रौब से पाखी को बुलाया , " ऐ छोरी , तनै ई इंग्रेजी अर क्नॉलेज कित्ते से सीखी..."। पाखी घबराई हुई सी बोली - बाबा कालिज से , इतने में ही मुखिया रौब से बोला - " औरत होके भी इत्तो बोलै है छोरी ।" इतना कहते ही सब जोर से ठहाका लगाकर हंस पड़े। आज पाखी को पूरी गाँव की महिलाएं अपने बाल-नौनिहालों के भविष्य के रूप में देख रही थी ; गाँव के सभी बड़े-बूढे उसके माथे को चूमते हुए अपने हाथों को खुद के गालों पर लगाकर उस पर स्नेह-बौछार कर रहे थे ; पटेल और मुखिया भी 'बेटी है तो कल है' स्लोगन की अर्थवत्ता को समझ कर पाखी पर गर्वित हो रहे थे और इन सबके इतर , किशना की आंखों में आंसू थे क्योंकि जो काम पाखी ने कर दिखाया था वो गाँव के कोई भी लड़के नहीं कर पाए थे। आज पाखी के लिए एक उत्सवधर्मी दिन था क्योंकि जो सपना शिच्छा के प्रचार के लिए उसने बचपन से सँजो रखा था , आज से उसकी शुरुआत हो चुकी थी। उसकी आँखों के कैनवास पर वो सभी दृश्य अवतरित होते जा रहे थे जिनको उसने पिछले आठ सालों से जिया था। अब पाखी गाँव में एक नाम नहीं बल्कि 'ब्रांड' का रूप अख्तियार करने चली थी , बड़े-छोटे सब उसे सम्मान से 'दी' बुलाते।

दूसरे ही दिन से सब गाँव वाले एकजुट होकर यूनेस्को टीम के साथ मिलकर अपनी सहभागिता दर्ज कराने लगे। सभी कार्य जो उन्हें करने थे , उनकी विषयवार लिस्ट बनाई एवं प्रत्येक काम को एक टीम और एक लीडर कोआर्डिनेट कर रहे थे। 'ज्ञानार्थ प्रवेश , सेवार्थ प्रस्थान' के इस सामाजिक अभियान की ब्रांड एम्बेसेडर स्वयं पाखी थी जो उचित देखरेख एवं निर्देशन में सभी टीमों को कार्य में सहभागितार्थ प्रोत्साहित कर रही थी। लगभग 28 दिनों या दो पखवाड़ों तक चले इस अभियान ने गांव को बिल्कुल दुरुस्त कर एक 'मॉडल ग्राम' की नींव रख दी थी। इस दौरान पूरे गाँव में आंगनबाड़ी केंद्र एवं पोषण की व्यवस्था की गई , सामूहिक शौचालयों का निर्माण किया गया , बालिका शिक्षा का उत्साहवर्धन करते हुए उन्हें स्कूल में नामांकित किया गया , नशाखोरी एवं शराब विक्रय केंद्रों को बंद करवाकर पंचायत स्तर पर स्वास्थ्य सुविधाओं का प्रोन्नयन किया गया , किसानों को जैविक व स्मार्ट खेती जबकि मजदूरों को गृह आधारित लघु उद्योगों के संचालन हेतु प्रोत्साहन देकर हरी झंड़ी दिखाई गयी। अब यह गाँव भी जागरूकता की एक नई मिसाल के रूप में उभरा जहां गाँव वाले पाखी के नवोन्मेषी आइडियाज को जमीनी धरातल पर मूर्त रूप देने लगे। अब पाखी के गाँव में किसी के घर भी लड़की पैदा होने पर न केवल थाली बजने लगी बल्कि सभी मिलकर पोस्ट-आफिस में उसका खाता भी खुलवाने लगे। पाखी की इस पहल ने अब बेटी के जन्म को अभिशाप से वरदान बना दिया था ; अब बेटी यहाँ बोझ नहीं थी बल्कि विकास की प्रक्रिया में सहभगिता को क्रियान्वित करने में एक स्तम्भ की भूमिका में भी काम कर रही थी। गाँव की सभी पगडंडियों के दोनों ओर झुरमुट वृक्षविथिकाओं को लगाना , रास्तों का चौड़ीकरण आदि कुछ वो विशेषताएं थी जिन्होंने उन्हें सतत विकास की दौड़ में अलग ही लाकर खड़ा कर दिया था। अब पाखी 'दी' गाँव की वो शख़्स थी जिससे हर किसी काम में गाँव वाले सलाह-मशविरा करने लगे थे और उन सभी दृष्टि में उसका कद बढ़ गया था।

बस यही था पाखी 'दी' का वो समर्पण और कुछ कर गुजरने की चाह कि जिसके बूते न केवल लोगों की सोच लड़कियों के बारे में 'चूल्हे-चौके और बच्चे पैदा करने' से बाहर निकली बल्कि उन्होंने सरपंचानी और क्लेक्टरणी से भी बढ़कर पाखी 'दी' के जरिये महिलाओं के 'आंचल' को 'परचम' में बदलते देखा। बस यही थी पाखी और यही था उसका पिंड के प्रति पखाना प्यार...

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