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दुनिया इन दिनों

दुनिया इन दिनों

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सिनेमा का मालिक बनना या सिनेमा चलाते हुए वह खुश नहीं था। उसे तो रात-रात भर जाग-जाग कर वे सभी किताबें पढ़ना पसंद थीं जो उन दिनों प्रतिबंधित थीं। उसके सिरहाने एम.एन. राय और राहुल सांकृत्यायन की पुस्तकें रखी रहतीं।

मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया, हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाता चला गया... मिलते ही आंखें दिल हुआ दीवाना किसी का... गुनगुनाता था वह। उसे देवानंद और दिलीप कुमार पसंद थे, तो दूसरी तरफ कार्ल मार्क्स, ब्लादिमीर लेनिन, लियो टॉलस्टॉय, लू शुन, माओ से-तुंग उसका आदर्श।

एक तरफ विजय सिनेमा चलाता था तो दूसरी तरफ अभय आश्रम से चार पन्ने वाला साप्ताहिक अखबार 'लाल सलाम' निकालता था। उसके अंदर एक अजीब-सा रूमानी क्रांतिकारी था। जिसे पिता ने क्रांति की तरफ से भटकाने के लिए शादी करा दी कि घर-परिवार में मन लगेगा। वहां भी नहीं लगा तो कहा सिनेमा हॉल मुझसे नहीं चल रहा है। लगातार घाटा हो रहा है। मेरे बाद सारी सम्पति तुम्हें ही संभालनी है तो अभी से संभालो। पूंजीवाद के खिलाफ़ शुरू से उसके मन में नफ़रत भरी हुई थी। जिसे लेकर कई बार पिता-पुत्र में बहस हो चुकी थी, लेकिन पिता ने जब बुढ़ापे की लाचारी का हवाला दिया तो बेटे को पिता का भार कम करने के लिए अपनी पुश्तैनी सम्पत्ति को संभालने के लिए आगे आना ही पड़ा। वह सिनेमा चलाता ज़रूर था, लेकिन सिनेमा हॉल की कमाई का एक पैसा नहीं लेता। रोज़ सिनेमा हॉल की टिकट खिड़की पर जो कमाई होती उसे वह रोज़ एक थैले में सहेजकर अपनी सौतेली मां के पास भेज देते। 

उसमें से अपनी सौतेली मां से सिर्फ़ सिगरेट पीने के लिए पैसे मांगते। और चवन्नी में आने वाली 'पनामा' सिगरेट हाथों में सुलगा कर 'हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाता चला गया...'  गुनगुनाता चल देता।

सिनेमा का मालिक बनना या सिनेमा चलाते हुए वह खुश नहीं था। उसे तो रात-रात भर जाग-जाग कर वे सभी किताबें पढ़ना पसंद थीं जो उन दिनों प्रतिबंधित थीं। उसके सिरहाने एम. एन. राय और राहुल सांकृत्यायन की पुस्तकें रखी रहतीं।

उसके दोस्त फक्कड़ थे, जो कभी भी अचानक टपक जाते। अख़बार बिछाकर खाना खाते और अख़बार बिछाकर वहीं लुढ़क जाते। सारी-सारी रात गरमागर्म बहस होती। कोई फ़ैज़ की क्रांतिकारी नज़्म गाता तो कोई काज़ी नज़रुल इस्लाम का 'आमी विद्रोही' गीत गाता।
उनमें से किसी की जेब में शायद एक रुपया भी नहीं होता, लेकिन वे पूंजीवाद और 'दास कैपिटल' पर बातें करते। सुबह जब उठते जिसकी जेब में चवन्नी-अठन्नी मिल जाती उसे ही लेकर निकल पड़ते... कहां? कोई पता नहीं... कोई ठिकाना नहीं... कहीं भी, किसी भी दिशा में... यह भी तय नहीं होता कि कब कौन, कहां मिलेगा? बचेंगे तो मिलेंगे कामरेड... सबके चेहरे पर स्वाभिमान। ऊर्जा और हंसी होती।      
वे गाते थे नया ज़माना आयेगा... हम लोग हैं ऐसे दीवाने दुनिया को झुकाकर मानेंगे... हम मेहनतकश दुनिया वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे... वे नज़ीर अक़बराबादी को गाते थे - 'गर ताज सर रखकर बादशाह हुआ तो क्या...' सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है... और गाते थे 'यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है...'

फ्रेंच लेखक-कवि विक्टर ह्यूगो का जीता-जागता रूमानी किरदार था। उसके दोस्त होते थे फटीचर जो किसी न किसी अख़बार में उन दिनों पत्रकारिता करते थे और कहते थे 'हम पूंजीपतियों के अख़बार में इसलिए काम करते हैं कि एक दिन इस देश से पूंजीवाद को उखाड़ फेकें।' मेहनतकशों का किस्सा सुनाते थे तो किसानों का संघर्ष। बच्चों की भूख-लाचारी और औरतों के सम्मान और सुरक्षा की बातें करता रहता था।

जनकवि नागार्जुन, फणीश्वरनाथ रेणु, दिनकर, लालप्रिय मिश्र धुआं। राजकमल चौधरी से लेकर बंगाल और उड़ीसा के लेखक घर आते-जाते रहते जो बेहद सामान्य मनुष्य की तरह रहते। उनमें  सम्वेदनशीलता दिखती और मनुष्य की गरिमा की चिंता बरकरार रहती। 
एक हलचल और गहमागहमी हर वक़्त घर में लगी ही रहती। मां कहती 'हर वक़्त घर में बारात जुटाये रहते हो। इतने लोगों का खाना कौन बनायेगा?' नागार्जुन घुस जाते मां की रसोई में। पीढ़िया (लकड़ी की छोटी-सी तख़्ती) पर बैठकर लहसुन और प्याज काटने-छिलने लगते। रेणु जी कहते 'लाओ हम सब्जी काट दें...' कोई कहता इतना सब करने की क्या ज़रूरत है? खिचड़ी बना दो। खाना खाने से और पेट भरने से मतलब है। वह कहता - आदमी को जीने के लिए खाना चाहिए, खाने के लिए नहीं। 

मैं छोटी थी। नहीं जानती थी यह देश के इतने महान् लेखक, कवि, पत्रकार या समाजसेवी, क्रांतिकारी हैं। मैं तो बस सबकी लाडली थी। लाडली क्रांति। मेरे जन्म के बाद मुझे गोद में लेकर कहा था - 'बेटी नहीं क्रांति है।' जब मुझ पर बहुत ज़्यादा प्यार आता तो कहता - क्रांति लाल।

पता नहीं इन सबमें कैसे सामंजस्य बिठा लेता था। एक तरफ सिनेमा हॉल में फिल्में लगाता था - श्री 420, आवारा, ज्वेलथीफ, जॉनी मेरा नाम, तीसरी कसम, काग़ज़ के फूल और प्यासा, तो दूसरी तरफ 'लाल सलाम' का अंक भी निकाल रहा होता, जिसमें पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी आन्दोलन से लेकर, उड़ीसा, पुरुलिया और मध्य प्रदेश के आदिवासी मूल इलाकों में हो रहे संघर्ष पर पूरा का पूरा अंक होता था। नक्सलवाद की ज़मीन-जंगल के हक़ की लड़ाई पर बार-बार लिखा जाता था। यह नारा देता था - खेत उसका, जो खेत जोते।

घर में जहां एक तरफ सिनेमा के हीरो-हीरोइन के पोस्टर पड़े रहते थे, वहीं 'लाल सलाम' के अंक पर आम आदमी जो सच्चे योद्धा-नायक होते थे, उनके चेहरे बिखरे पड़े रहते थे। यह सब इसलिए कि वह सिनेमा हॉल के ऊपर ही रहता था। नीचे सिनेमा हॉल और ऊपर मां के साथ छोटे भाई-बहन के साथ हम। कई बार सिनेमा का आखिरी शो जब 12 बजे रात को ख़त्म होता, वह अभय आश्रम जो घर से कुछ ही दूरी पर था, हाथ से छपाई वाला प्रेस था, जिससे 'लाल सलाम' लगातार निकालता था, वहां जाता।

मां कहती घर में ही सो जाओ। छोटे बच्चे हैं। डर लगता है। वह कहता- डरने की क्या बात है नीचे सिनेमा का सब इतना स्टाफ है और श्यामलाल बाबा हैं। श्यामलाल बाबा हमारे घर के बहुत ही पुराने बुजुर्ग नौकर थे। लेकिन वे परिवार के सदस्य की तरह थे। मैंने उन्हें दादा जी से बराबरी के स्तर पर लड़ते देखा था और मेरे पिता को तो हमेशा डांटते थे। पर प्यार बहुत करते थे उन्हें। बड़े बाबू बुलाते थे उन्हें। 'बड़े बाबू, ई नेतागिरी नहीं चलेगा। बाल बच्चा का मुंह देखिये और अपना घर संभालिये। क्या दिन-रात 'हर जोर-ज़ुल्म के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है' करते रहते हैं और इन्क़लाब ज़िंदाबाद... तनिको आराम नहीं करते हैं। सिनेमा भी संभालते हैं और अख़बार भी निकालते हैं... न खाने का ठिकाना, न नींद का ठिकाना, कैसे चलेगा? अपना ध्यान रखिये।'

वह हंसते हुए कहता - अरे श्यामलाल बाबा, हमको कुछ नहीं होगा... हम नहीं मरिहे, मरिहे संसारा... और जोर-जोर से हंसने लगते। श्यामबाबा बाल्टी उठाकर गाय का दूध निकालने चल देते। साथ में एक कंधे पर मुझे टांग लेते। गाय के दूध से भरी बाल्टी से उफनकर आते दूध के झाग को मेरे मुंह में लगा देते। कच्चा दूध गिलास में भरकर पिलाते और कहते - पियो, कच्चा दूध पीने से बहुत ताक़त मिलती है; लेकिन श्यामलाल बाबा को कभी दूध पीते नहीं देखा। उन्हें कभी-कभी भूख हड़ताल करते भी देखा। श्यामलाल बाबा को किसी भी ग़लत बात पर गुस्सा बड़ी जल्दी आ जाता था, जैसे कोई उनके सामने किसी बच्चे को नहीं मार सकता। श्यामलाल बाबा ने शादी नहीं की थी। उनका परिवार पास के ही गांव में रहता था। उनके छोटे भाई के बच्चे थे और उनके माता-पिता जिनकी सेवा में कभी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। उनका अपना खेत था, जिसमें सब्जियां उगाते थे। सुना था कि पांच बीघा ज़मीन मेरे पिता ने ही दादा जी से लड़ाई करके उन्हें दिलायी थी कि श्यामलाल बाबा बचपन से बूढ़े हो गये इस घर में काम करते हुए, इसलिए ज़मीन में उनका भी हिस्सा हुआ।
श्यामलाल बाबा बहुत खुद्दार थे। सिनेमा के टिकट काउन्टर का पैसा कई बार मेरे पिता ने उनके हाथों ही दादी (दादा-दादी बड़े वाले घर में रहते थे) के पास घर भिजवाया लेकिन कभी गिनती में एक रुपया भी कम नहीं हुआ।  

दादी दूसरी थी यानी दादा जी ने दो शादियां की थीं, तो ज़रा शोख थीं। मुंह में जो आता बोल देतीं।

श्यामलाल बाबा तुरंत सब पटक कर अपना झोला उठाकर चल देते। हम नहीं रहेंगे इस घर में... श्यामलाल बाबा के गुस्से के आगे दादा जी की भी एक नहीं चलती। बाबा मेरे पिता को भी चांटा जड़ देते।  कहते - 'पगलवा, सब तुम्हारे वजह से हो रहा है। घर संभालो नहीं तो यह लालची औरत एक दिन सब सत्यानाश कर देगी। तुम्हारे बाबू जी के आंख पर तो पर्दा पड़ा है।'

उनके गुस्से को शांत कराने का एक ही आसान रास्ता होता था मेरे पिता के पास कि मुझे गोद में उठाकर उनकी गोद में देते हुए कहते - 'आप चले जाइयेगा तो क्रांति को कौन रात में किस्सा सुनायेगा। इसको तो आपसे किस्सा सुने बिना सोने की आदत नहीं है।'  

ठीक है। लेकिन हम खाना नहीं खायेंगे। बाबा कहते। और तीन-तीन, चार-चार दिन तक भूखे रह लेते। गुस्से में कई बार ढेर सारी मिर्ची और ओल (जिमीकंद) कुतर लेते। 

किसी तरह मां मनातीं। कहतीं - बाबा, हम बच्ची थी आप ही ब्याह के लेकर आये थे इस घर में। मां की शादी ग्यारह साल में हुई थी, लेकिन उसे याद था कि उनकी पालकी के साथ श्यामलाल बाबा आगे-आगे लाठी लेकर चल रहे थे। दादी जब-जब मां को बुरा-भला कहतीं तब-तब श्यामलाल बाबा ही मां के पक्ष में खड़े हो जाते और दादी को खरी-खरी सुना देते। मां की बात भी गुस्से में श्यामलाल बाबा नहीं सुनते, तब मेरे छोटे-छोटे नन्हे हाथों में खाने की थाली देकर जिसमें ढेर-सी हरी मिर्च हुआ करती थी। कहती- बाबा को खिलाओ। हरी मिर्च मेरे पिता को भी बहुत पसंद थी। कई बार श्यामलाल बाबा और मेरे पिता में मिर्च खाने को लेकर शर्त लग जाती कि कौन कितनी जल्दी कितनी मिर्च खाता है। कई बार एक-एक किलो मिर्च चट कर जाते। मेरे चाचा जी या घर का कोई अन्य कहता- 'अरे! मिर्च तीता (तीखी) नहीं होगा। तभी चिनियाबदाम (मूंगफली) की तरह खाये जा रहे हैं।' बाबा उसमें से एक मिर्च उठाकर देते और कहते- लो, खाकर दिखाओ।

खाने वाला तुरंत भाग खड़ा होता और मेरे पिता और श्यामलाल बाबा दोनों गमछे से नाक पोंछते जाते और मिर्च खाते जाते, लेकिन हार मानने के लिए दोनों में से कोई तैयार नहीं होता।
दादी कहतीं - दोनों राक्षस हैं।

श्यामलाल बाबा के लिए जहां मेरे पिता के मन में अपार आदर था, वहीं दोनों बहुत अच्छे दोस्त जैसे थे। दोनों खुश होते तो एक साथ बीड़ी का सुट्टा खींचते और गाते - दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समायी, काहे को दुनिया बनायी...  

कभी-कभी उन्हें एक-आध रुपया देते हुए कहते - बाबा आप कभी पैसे नहीं मांगते।

बाबा कहते - मांगना काहे के लिए। सब मेरा ही है। यह बाल-बुतरू सब तो मेरा ही है।

बाबा पढ़े-लिखे नहीं थे शायद... लेकिन जब-जब घर झोलाधारी फक्कड़ों की बहस चलती तो उन्हें बहुत गौर से सुनते और बीच में ही तपाक से कुछ ऐसा बोल देते कि सबके सब चुप हो जाते। जैसे वह कह देते - खेत खाये गदहा, मार खाये जोलहा... और जैसे हंसुआ के बियाह में खुरपी के गीत... नाच न जाने आंगन टेढ़ा... वह अभय आश्रम में भी जाकर बैठते, क्योंकि जब पिता दो-दो दिन घर नहीं आते तो मां कहती - बाबा तनी जाकर देखिये तो भट्ट जी कहां हैं?

तो बाबा कहते - 'और कहां होगा? मियां की दौड़ मस्जिद तक।'   

एक दिन अभय आश्रम जल गया। अख़बार, मशीन सब जलकर राख। आपातकाल घोषित हो गया था। वहां छापा पड़ा जिसमें प्रतिबंधित किताबें और अख़बार बरामद हुए। पुलिस ने सबमें आग लगा दी।

घर पर कई ऐसी किताबें थीं जिनमें कम्युनिस्ट पार्टी का मेनिफेस्टो, दास कैपिटल सहित बंगाल के कई आंदोलनों के पर्चे और बुलेटिन थे। पिता ने घर में ही उन सब किताबों में खुद आग लगा दी। आग की लपटों में लेनिन का चेहरा सबसे ऊपर तपता हुआ मुझे दिख रहा था।

फिर पिता कहीं गायब हो गये। पुलिस घर आयी। तलाशी ली।  मां मुझे सीने से सटाये हुए कह रही थीं - भट्ट जी कहां जाते हैं, क्या करते हैं, मुझे कुछ पता नहीं। पुलिस ने उनका यक़ीन नहीं किया। उसने मेरी मां के साथ भी अभद्रता की। कई दिनों तक मेरे दरवाज़े पर पुलिस बैठी रही कि कभी तो घर आयेगा तो सुरेश भट्ट को गिरफ्तार करेंगे। सुनने में आया 'शूट एंड शाइट' का आॅर्डर था।
मैं रोज़ स्कूल से आकर बैठ जाती कि भैया (उन्हें भैया बुलाती थी, क्योंकि बुआ लोग जो उन्हें बुलाती थीं, उनसे सुनकर वही सीखा था) आयेंगे। तब खाना खायेंगे। क्योंकि मेरे पिता मेरे बिना खाना नहीं खाते थे। कितनी भी देर हो जाए मेरे स्कूल से आने का इन्तज़ार करते और भूखे बैठे रहते।

मां कहतीं - पता नहीं, कहां भाग गया? 

सचमुच कोई ख़बर नहीं थी। सुनने में आया था कि भूमिगत हैं। कुछ महीनों बाद एक कामरेड घर आये। उन्होंने मां से कहा - 'क्रांति को बुलाया है।' मुझे अपने साथ ट्रेन में ले गये। मैं ट्रेन में सो गयी थी। कोई मुझे पुकार रहा था - 'क्रांति... क्रांति... क्रांति लाल'। आंख खुली तो देखा वह मेरे सामने खड़े थे। बीच में लोहे की दीवार थी और वह बेड़ी-हथकड़ी में जकड़ा था। कुछ समझ में नहीं आ रहा था। वह बड़ी-बड़ी आंखों से मुझे देख रहा था और मुस्कुरा रहा था।   

मैंने कहा - मुझे आपके साथ रहना है।

उन्होंने कहा - तुम नहीं रह सकती। तुम बड़ी हो। जाओ, जाकर मां को संभालो। 

कुछ समझ में नहीं आया। एक पल लगा मैं बड़ी हो गयी। कुछ ऐसा हुआ है जो पिता अब मेरे साथ नहीं रह सकते और मुझे घर में अब उनकी जगह लेना है। 

नक्सलवादी होने की वजह से उन्हें गया सेंट्रल जेल में बेड़ी-हथकड़ी में सात साल तक के लिए सेल में रखा गया।     
वह जेल से वापस आने के बाद पूरी तरह से देश के लिए ही समर्पित हो गये। मेरा मेल-मिलाप भी कम हो गया। कभी-कभी कोई पोस्टकार्ड आता जिसमें लिखा रहता - 'तुम क्रांति हो। तुम सब कर सकती हो। मैं नहीं रहूं तो रोना मत।' 

4 नवम्बर, 2012 की सुबह वह अचानक चले गये। दिल्ली ओल्ड ऐज होम में ब्रेन हैमरेज की वजह से उनका देहांत हुआ। जिस देश के लिए उन्होंने सारा जीवन बलिदान कर दिया उस देश ने उनकी कोई ख़बर नहीं ली। 

दिल्ली निगम बोध घाट पर दाह संस्कार के बाद उनकी अस्थियां लेकर मां के पास घर (बिहार) गयी। उन्होंने अपनी कोई अंतिम इच्छा नहीं बतायी थी। इसलिए मां ने और घर के हमारे पुरोहितों ने जैसा कहा, मैं करती गयी कि तुमने आग दी है तो अब बाकी का सब कुछ भी तुम ही करोगी।

परम्परागत सारे संस्कार मैंने निभाये।  

उनकी तेरहवीं के दौरान घर में मैं अकेली मृत पिता की तस्वीर के आगे बैठी थी, तभी एक आदमी सर पर बड़ा-सा बोरा लेकर आया और बोला- बड़की मैयां, तरकारी (सब्जी)... 

मैंने पूछा - कहां से आया? किसने मंगवाया?

अपने खेत का है।

मतलब?

पहचानी नहीं हमको? हम हैं श्यामलाल बाबा जी के भाई के पोता। हमारा खेत तो बड़े बाबू ही दिलाये थे, आपके दादा से लड़ के तो हमरा खेत आपका ही हुआ न। बड़े बाबू के श्राद्ध में जितना तरकारी बनेगा सब हमरे खेत से आयेगा।

मैं एकटक उसे देख रही थी। देखा वह बहुत खुश था और फिर मैंने पिता की तस्वीर को देखा - वह मुस्कुरा रहे थे।


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