शालू
शालू
कहानी
शालू डा0 हेमन्त कुमार
शालू कमरे में दरी पर बैठी अपनी नई पेण्टिंग देख रही थी।उसके सामने कैनवस था और चारों ओर रंग और कूचियाँ।अभी वह कैनवस पर रंग बिखेरने की तैयारी कर ही रही थी कि मुन्ना आ धमका। मुन्ना ने बिना कुछ बोले एक सफेद लिफ़ाफा उसके सामने रख दिया।अब शालू का ध्यान उस सफेद लिफ़ाफे की ओर गया।शालू ने दोनों पैरों की सहायता से लिफाफा खोला और उसे पढ़ने लगी।चिट्ठी पढ़ने के साथ ही शालू के चेहरे की रंगत बदलती जा रही थी।चिट्ठी पूरी करते-करते शालू की आँखों में आँसू आ गए।
‘‘क्या हुआ दीदी?आपकी आँखों में आँसू?”मुन्ना के चेहरे पर सवालिया निशान थे।
‘‘अरे!मुन्ना भइया....ये खुशी के आँसू हैं।इस चिट्ठी में लिखा है कि मेरे बनाए एक चित्र को भारत सरकार की ओर से पुरस्कार के लिए चुना गया है।”शालू चहक कर बोली।
‘‘क्या कहा,आपकी पेण्टिंग को सरकार पुरस्कार देगी?मैं अभी दौड़ कर ये ख़बर सबको बताता हूँ।”कहता हुआ मुन्ना बाहर की ओर भागा।शालू की निगाहें बरबस ही खिड़की के बाहर अमलतास के गुच्छों पर जा कर टिक गईं।और वह अपने पिछले जीवन की यादों में खो गई।
कितना अच्छा बीत रहा था उसका जीवन।पिताजी छोटी सी सरकारी नौकरी में थे।मां एक अच्छी गृहस्थ थीं।शालू और छोटा भाई मुन्ना एक ही कालेज में पढ़ते थे।दोनों साथ-साथ स्कूल जाते।शालू के पिताजी चाहते थे दोनों पढ़ लिख कर अच्छी नौकरियों में जाएं।मुन्ना तो पढ़ाई लिखाई पर ध्यान देता था लेकिन शालू.....।शालू का मन तो कभी पढ़ाई में लगा ही नहीं।
वह हमेशा अपनी कापियों पर चित्र बनाती रहती।चाहे घर पर हो या स्कूल में।उसकी कापियों में हर जगह चित्र बने रहते।उसे स्कूल में भी अक्सर ही टीचर की डाँट सुननी पड़ती।घर पर पिताजी डाँटते।लेकिन शालू कहाँ मानने वाली कहाँ थी।,पड़ोस में रहने वाली नीरु दीदी ज़रुर उसकी तारीफ़ करती थीं।वह हमेशा उसके बनाए चित्रों को देख कर कहतीं कि शालू तू एक दिन बहुत बड़ी चित्रकार बनेगी।बस,इसी तरह बराबर पढ़ाई के साथ-साथ चित्र बनाने का अभ्यास किया कर।स्कूल में भी आर्ट टीचर उसकी तारीफ़ करती थीं।कुल मिला कर शालू का जीवन ठीक ही बीत रहा था।बस पढ़ाई में वह कमजोर थी।किसी तरह रो गा कर हाई स्कूल पास कर लिया।लेकिन उसका रंगों से खेलना बराबर जारी रहा।
हाई स्कूल के बाद वह अपना एडमिशन कहीं करवाती उसके पहले ही घटित एक छोटे से हादसे ने उसके जीवन का पूरा रुख ही मोड़ दिया।शालू को वह मनहूस दिन आज भी याद है।उसका पूरा परिवार मौसेरे भाई की शादी में दिल्ली गया था।पूरी शादी ठीक-ठाक निबट गई।वापसी के लिए उनका रिजर्वेशन रात की किसी ट्रेन का था।स्टेशन तक पहुँचते-पहुँचते उन्हें काफी देर हो गई।लखनऊ की ट्रेन प्लेटफार्म नम्बर दस से छूटती थी।उनके पास इतना वक़्त नहीं था कि ओवरब्रिज पार करके वे प्लेटफार्म तक पहुँच पाते।इसीलिए कुली के कहने पर वे सभी लोग लाइन पार करने लगे।लाइन पर थोड़ा अंधेरा था।सभी लोग लाइन पार कर चुके थे।सबसे आखिर में शालू थी।अचानक उसका पैर किसी तार में फँसा और वह पटरियों के बीच जा गिरी।इसके बाद उसे बस इतना याद था कि उसने शंटिंग करते इंजन का पिछला हिस्सा अपनी ओर आते देखा और बचने की कोशिश में वह करवट घूम गई।फिर ढेर सारे लोगों की चीख पुकार और फिर सारी आवाजें एक घने अंधेरे में डूबती चली गई।
होश में आने पर शालू ने ख़ुद को अस्पताल में पाया।उसके पूरे शरीर पर जगह-जगह पट्टियाँ बंधी थीं।माँ-पिता को देखने के बाद सबसे पहले उसकी निगाह पैरों की ओर गईं।उसके पैर सही सलामत थे।फिर उसने अपने हाथों को उठा कर अपना सिर छूना चाहा......पर यह क्या?उसके हाथ कहाँ गऐ ?कहीं ऐसा तो नहीं उसके हाथ......नहीं ऐसा नहीं हो सकता।शालू ने जल्दी से अपनी गरदन दोनों ओर घुमा कर देखा उसके दोनों हाथ कन्धों से गायब थे।वह माँ की ओर देख कर चीख पड़ी.....माँ.....मेरे हाथ। माँ अपने हाथों से मुँह ढक कर फूट-फूट कर रो पड़ीं।शायद शालू के पास जाने की उनकी हिम्मत भी नहीं पड़ रही थी।पिता जी किसी तरह अपने आँसुओं को छुपाने की कोशिश करते हुए उसके चेहरे को हाथ से सहलाने लगे थे।
और फिर पूरे छः महीनों तक शालू ज़िंदगी और मौत के बीच झूले की तरह झूलती रही।कभी उसके पैरों के घाव में मवाद आ जाता।कभी सिर में दाने निकल आते।कभी बिना हाथ के कन्धों की तकलीफ उभर जाती।तो कभी डाक्टर सेप्टिक होने का खतरा बताते।अन्त में छः महीनों के बाद शालू मौत को धोखा देकर अस्पताल से घर आ ही गई।
घर आने के बाद एक तरह से देखा जाय तो शालू के नए जीवन की शुरूआत हुई थी।एकदम एक छोटे बच्चे की तरह।एक पन्द्रह साल की लड़की।उसे माँ मंजन करवाए,मुँह धुलवाऐ,नहलाऐ,कपड़े पहनाऐ,खाना खिलाए तो उसे बच्ची ही तो कहा जाऐगा। कभी-कभी माँ उसके ऊपर झुँझला भी पड़तीं।उसे कोस देतीं, तो पिता जी उन्हें समझाते कि इसमें इस बेचारी का क्या दोष?भाग्य में जो लिखा था वही हुआ और आगे भी जो लिखा है वही होगा।
शालू खाना वाना खाने के बाद बिस्तर पर पड़े-पड़े पूरा दिन छत को घूरा करती। कभी सो जाती।लेकिन नींद की भी एक सीमा होती है।शुरु में उसकी सहेलियाँ मिलने आतीं, उसे पत्रिकाऐं अखबार पढ़ कर सुनातीं।जल्द से जल्द ठीक होने की दिलासा देतीं,पर उसके खाली कन्धों की ओर देखते ही उनकी निगाहें नीची हो जातीं।वे शालू के साथ ख़ुद को भी बहुत बेबस महसूस करतीं।फिर धीरे-धीरे इन सहेलियों का आना भी बन्द हो गया।शालू सारा दिन बिस्तर पर पड़ी पंखों,छत और दीवारों को घूरती रहती।लेकिन एक व्यक्ति का अब भी उसके पास आना जारी था।वह थीं नीरु दीदी।नीरु दीदी घण्टों उससे बातें करतीं।उसे अखबार पढ़ कर सुनातीं।विकलांग लोगों के साहसिक कारनामें सुनातीं।शालू को भी दीदी से बातें करके बहुत सुक़ून मिलता।
एक दिन माँ उसके पास पानी रख कर उसे पिलाना भूल गई।प्यास के मारे शालू का गला सूख रहा था।वह पैरों पर जोर लगा कर किसी तरह तखत से उठी और पास में रखी मेज तक गई।गिलास पानी से भरा था।उसने पहले बिल्ली की तरह जीभ से पानी पीने की कोशिश की।फिर दाँतों में गिलास दबा उसे ऊपर उठा कर पानी पीने की कोशिश की।कुछ पानी उसके मुँह में गया कुछ नाक में और गिलास भी तेज आवाज़ के साथ जमीन पर गिर पड़ी। माँ दौड़ कर आई।देखा तो आँखों में आँसू भरे शालू खड़ी थी,पास ही जमीन पर गिलास और पानी पड़ा था। माँ सब कुछ समझ गई।उन्होंने पास जाकर शालू को सीने से लगा लिया।शालू फूट-फूट कर रोने लगी साथ में माँ भी।दोनों काफी देर तक रोती रहीं।
उस दिन के बाद से अक्सर शालू अपने दाँतों से या दोनों पैरों से चीजों को पकड़ने की कोशिश करने लगी।उसने बचपन में किसी सरकस के जोकर को बिना हाथों का सहारा लिए पैरों से रेजर पकड़ कर दाढ़ी बनाते देखा था।अब वह भी कभी-कभी पैरों के अँगूठों में पेंसिल फँसा कर काग़ज पर कुछ आड़ी तिरछी रेखाऐं खींचने की कोशिश करती।कभी बाथरुम में नलके की टोटी दाँतों से खोलती और दाँतों से बंद कर देती। कभी दाँतों में कलम पकड़ कर लिखने की कोशिश करती।
एक दोपहर में माँ छत पर कपड़े फैलाने गई थी।शालू तखत पर बैठकर पैरों में पेंसिल फँसा कर अपनी कापी में एक फूल बनाने की कोशिश कर रही थी।किसी तरह से आड़ा तिरछा फूल बन गया।उसने फिर कोशिश की फूल थोड़ा और अच्छा बन गया।तीसरी कोशिश में फूल काफी अच्छा बन गया।उसने सोचा माँ को आते ही फूल दिखाऊँगी।
‘‘वाह कितना सुन्दर फूल बना है।’’नीरु दीदी की आवाज सुनकर वह चौँक पड़ी।
‘‘अरे दीदी, आप कब आई?‘‘
‘‘शालू मैं तो बहुत देर से तेरे पीछे खड़ी तेरी ड्राइंग देख रही हूँ।लेकिन तू फूल बनाने में इतनी तल्लीन थी कि मुझे भी नहीं देख पाई।”कहती हुई नीरु दीदी वहीं तखत पर बैठ गई।कुछ ही देर में उसकी मां भी कपड़े फैला कर नीचे आ गई।शालू फिर से पेंसिल पैरों में फँसाकर कोई चित्र बनाने की कोशिश कर रही थी। माँ उसके ऊपर नाराज होती हुई बोली,‘‘अरे शालू करना ही है तो कुछ लिखने पढ़ने की कोशिश कर।ये क्या दिन भर बैठ कर पैरों से चित्र बनाती रहती है?”
‘‘ताई जी आप शालू को रोकिए मत।उसे पैरों से चित्र बनाने दीजिए।बल्कि मैं आज इसकी पढ़ाई के लिए ही आप से कुछ बात करने आई थी।”नीरु दीदी बोलीं।
‘‘बिटिया अब ये कहाँ पढ़ लिख पाऐगी?ऐसी ही भाग्य वाली होती तो उस दिन क्यों इसके हाथ ही कटते? ट्रेन से कट कर मर भी तो नहीं गई ये।कम से कम इसे ये दिन तो न देखने पड़ते।” माँ सिसकते हुई बोलीं।
‘‘ताई जी,..... ”नीरु दीदी गुस्से में उबल पड़ीं।”आप आज के बाद से कभी भी शालू के लिए ऐसी बातें मत कहिऐगा।आखिर भगवान ने शालू के सिर्फ हाथ ही छीने हैं।हिम्मत तो नहीं छीनी।और अगर किसी के अन्दर हिम्मत बाकी है तो वह अपनी मेहनत से भाग्य की रेखाऐं बदल सकता है।”
‘‘अब तू ही बता बिटिया,बिना हाथों के ये कौन सा काम कर लेगी जिससे इसकी किस्मत बदल जाएगी? ” माँ अब भी सिसक रही थीं।
‘‘ताई जी.....मैं आपसे पहले भी कहती थी कि शालू बहुत अच्छे चित्र बना सकती है।और आज इसने पैरों से फूल बना कर ये साबित कर दिया कि शालू हाथ के काम पैरों से कर सकती है।मेरा कहना मानिए तो इसे आर्टस कालेज में दाखिला दिलवा दीजिए।वहां यह चित्र बनाना सीखेगी और उसी से अपनी रोजी रोटी भी चलाएगी।”नीरु दीदी ने माँ को समझाने की कोशिश की।
‘‘बात तो तेरी ठीक है नीरु।लेकिन इसके पिताजी तैयार हों तब न।वो तो बस रात दिन इसी चिन्ता में पड़े हैं कि शालू का अब क्या होगा?”
‘‘ताऊ जी से मैं बात करके उन्हें समझा दूँगी।और जहाँ तक कालेज जाने का सवाल रहेगा।मैं आखिर युनीवर्सिटी तक जाती ही हूं।मैं इसे अपने साथ ले जाऊँगी और वापस भी लाऊँगी।आखिर ये मेरी भी तो छोटी बहन है।”कहते-कहते नीरु दीदी मुस्करा पड़ीं।फिर नीरु दीदी के काफी समझाने के बाद पिताजी ने शालू का का एडमिशन आर्टस कालेज में करा दिया।
शालू लगभग एक साल बाद घर से बाहर निकल सकी थी।कालेज के गेट पर आकर नीरु दीदी ने उसे सहारा देकर कार से उतारा और उसे क्लास की तरफ ले चलीं।शालू को सब कुछ बड़ अटपटा सा लग रहा था।पहले दिन कक्षा के सभी सहपाठियों से उसका परिचय हुआ।कुछ उसके प्रति सहानुभूति दिखाते थे तो कुछ की नजरों में व्यंग्यात्मक भाव थे।कक्षा में बेंच की जगह उसके लिए अलग से एक तखत का इन्तेज़ाम किया गया था।जिस पर बैठ कर वह ड्राइंग और पेण्टिंग कर सके।पहले कुछ दिनों तक नीरु दीदी उसका रंग,ब्रश का थैला कक्षा में लाकर रख देती थीं।पर अब वह थैले को कंधों पर ख़ुद लटका कर लाती और एक खास एंगिल से झटका देकर थैले को तखत पर रख देती।जाते समय दाँतों से पकड़ कर थैला कंधे पर लटका लेती।
धीरे-धीरे कक्षाऐं चलने लगीं।शुरु में कुछ लड़के उसकी ड्राइंग देखकर फिकरे कसते।मजाक उड़ाते।लेकिन तीन-चार महीने बीतते-बीतते उनके फिकरे,व्यंग्य ठंडे होने लगे।अध्यापक शालू के बनाऐं चित्रों को देखकर आश्चर्य करते।इतनी बारीकी,सफाई और खूबसूरती।वह भी पैरों से बनाए गए चित्रों में कुछ ही दिनों में आर्ट्स कालेज की हर कक्षा में शालू की चर्चा होने लगी।उसकी मेहनत और लगन की तारीफ़ होने लगी।लेकिन शालू को इन तारीफों या बुराइयों से कोई मतलब नहीं था।वह बराबर अपनी मेहनत में लगी रही।उसके जीवन का तो बस एक लक्ष्य था।लोगों को बताना कि बिना हाथों के भी ज़िन्दगी हम जी सकते हैं। वह भी बहुत खुशहाल तरीके से।और धीरे-धीरे सफलता शालू के नजदीक पहुँचने लगी।
कालेज के दिन बीतने के साथ ही शालू की जिन्दगी में भी नऐ-नऐ अनुभव जुड़ते गए।कोर्स पूरा होते-होते वह रंग और ब्रश से खेलने वाली एक अच्छी चित्रकार बन गई। उसकी बनाई पेण्टिंग पहले कालेज में प्रदर्शित की गई।फिर एकेडमी में।फिर दिल्ली तक की आर्ट गैलरियों में उसने अपनी पहुँच बना ली।हर प्रदर्शनी के समय अखबारों में शालू के साथ उसके पिता,माँ और नीरु दीदी की भी फोटो छपती।जो माँ उसके हाथ कट जाने पर दिन रात रोया करती थीं वही आज सारे पड़ोसियों से कहती कि भगवान अगर हिम्मत दे तो शालू जैसी।सही मायनों में हमने नहीं बल्कि शालू और उसकी दीदी नीरु ने मिलकर हमें ज़िन्दगी का मतलब समझा दिया है।और आज नीरु दीदी की प्रेरणा और शालू की मेहनत का ही फल सरकार की ओर से मिलने वाले पुरस्कार के रुप में सामने आया।
शालू हाथ में चिट्ठी और लिफ़ाफा लिए अभी भी खिड़की की ओर देख रही थी।तभी नीरु दीदी के प्रश्न ने उसे चौंका दिया, ‘‘अरे शालू तू कहाँ खोई है?”
‘‘दीदी मैं खोई नहीं।मैं तो देख रही थी उस रास्ते की ओर।”शालू जैसे कहीं दूर देखती हुई बोली। ‘‘किस रास्ते की ओर?”नीरु की आँखों में आश्चर्य था।
‘‘जिस रास्ते पर उँगली पकड़ कर आपने मुझे चलना सिखाया और आज इस मुकाम तक ले आई।”कहते हुए शालू ने चिट्ठी दीदी को पकड़ा दी।दीदी ने जल्दी से चिट्ठी पढ़ी और आगे बढ़ कर शालू को बाँहों में भर लिया।एक दूसरे की ओर देखते हुए दोनों की आँखों में ख़ुशी के आँसू उमड़ घुमड़ रहे थे।पर खिड़की के बाहर अमलतास के गुच्छे मुस्करा रहे थे।
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डा0 हेमन्त कुमार आर0एस0-2/108 राज्य संपत्ति आवासीय परिसर,सेक्टर-21, इन्दिरा नगर, लखनऊ-226016 मोबाइल नम्बर..09451250698