प्रेरणा - लघु नाटिका
प्रेरणा - लघु नाटिका
पर्दा खुलता है-
(एक कमरा जिसकी दीवार पर सुभाषचन्द्र बोस, भगत सिंह, राजगुरू, लोकमान्य तिलक तथा सरदार पटेल जैसे महापुरूषों की तस्वीरें लगी हैं। कमरे में एक मेज, एक बिस्तर और कौने में एक स्टूल जिस पर टेलीफोन रखा है)।
(कलाकार जो कि जीन्स के ऊपर सफेद कुर्ता पहने हुए है, कमरे में प्रवेश करता है। बड़बड़ाता हुआ............)
(अपने आप में विश्वस्त होता हुआ)
”खत्म करके ही छोड़ना है - नाइंसाफी को, समाज को गुनाह विहीन बनाने का मेरा सपना अवश्य साकार होगा। कहीं गुंडागर्दी नहीं होगी, आतंकवाद नहीं होगा, मार-काट नहीं होगी और भ्रष्टाचार भी नहीं होगा।
एक दिन जरुर आएगा जब हर तरफ क्रान्ति ही क्रान्ति होगी, चारों तरफ अमन-चैन होगा।
(अचानक उदास होकर)
”कौन लाएगा क्रान्ति ?”
(फिर सम्हलते हुए)
”अरे मैं जो हूँ, मैं लाउँगा क्रान्ति और क्रान्ति की वो आंधी जो दो-चार घूसखोरों को तो क्या बल्कि दुनियॉं के तमाम बेगैरत, पदलोलुप और भ्रष्टाचारियों का नामोनिशान तक धूल में मिला देगी।”
(निरुत्साहित होते हुए अचानक)
“मैं जो कुछ कह रहा हूँ, कहीं मेरा सपना तो नहीं रह जाएगा? अरे आज का भारत 70 साल से ऊपर का हो चुका है। जैसे-जैसे यह बड़ा हुआ है, सपूतों के स्वप्न रक्षित इस भारत को कमींनों ने बरबाद करने की ठान रखी है।
लगता है कि ये निर्लज्ज भारत मॉं के ऑंचल को तार-तार करके ही छोड़ेगे।”
(उत्साहित होकर)
”नहीं। भले ही दुरात्माओं ने अभी तक मुझे कुछ भी नहीं करने दिया हो परन्तु जब तक मैं जिन्दा हूँ तब तक कम से कम अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज को बन्द नहीं होने दुँगा।”
(अचानक एक औरत के चीखने की आवाज आती है... ‘बचाओ, बचाओ’ और साथ ही कुछ अट्टहास की आवाजें आती हैं)।
(कलाकार एकदम उठता है और स्टेज के उस बौने की ओर भागता है जिधर से आवाजें आ रही हैं)
”कोन है सालों, ठहरो, छोड़ दो, छोड़ दो उस अबला को। कमीनों कुत्तों नहीं सुनोगे अभी बताता हूँ...”
(कहते हुए बाहर चला जाता है)
(फिर अचानक कलाकार स्टेज पर इस तरह गिरता है जैसे उसे फैंका गया हो। उसके कपड़े फटे हुए है और कपड़ों पर खून के धब्बों के निशान हैं)
”ले गये साले, मेरी ऑंखों के सामने चीखती रही, चिल्लाती रही, मुझे सहायता के लिए पुकारती रही पर मैंने क्या किया?”
(रोता हुआ) “लेकिन मैं असहाय कर भी क्या सकता था, दुर्बल हूँ।”
(अपने आप से ही पूछता है...) “क्या इतना दुर्बल हूँ कि एक मासूम अबला की आबरु नहीं बचा सका?”
”अरे वो मासूम किसी की भी मॉं-बहिन हो सकती है... क्या मैं इतना दुर्बल हूँ कि कुछ भी नहीं कर सकता था?”
(बेचैनी से चारों तरफ घूमता हुआ अपने आप पर झुंझलाता है, एक कौने में बैठते हुए)
”चला था बड़ी-बड़ी लड़ाईयॉं लड़ने।
अपने आप को क्रान्तिकारी समझता था। सोचता था ये कर दुँगा, वो कर दुँगा, इसको सुधार दुँगा, उसको सुधार दुँगा, इनको सुधार दुँगा, पर क्या हुआ? एक झटके में ही पस्त हो गया। इतने में ही तेरे घुटने जवाब दे गये...” (झुँझलाता है, सिर के बाल नोचता है, फर्स पर सिर पटकता है)
”मेरे जीने का कुछ तो मकसद होना चाहिए... मैं इस समाज का कैसा हिस्सा हूं... लानत है मुझ पर कि मैं अभी तक जिन्दा हूँ।”
”उन दरिन्दों ने मुझे एक धक्का मारा, लात घूँसे मारे लेकिन मैं मरा तो नहीं था। फिर से क्यों नहीं झपटा मैं उनके ऊपर? कितनी बार धक्का देते दो बार, चार बार। आखिर में गोली या चाकू ही मार जाते न। तो क्या था, मर जाना बेहतर था लेकिन (हँसता है) मैं यहॉं पर जिन्दा हूँ बाकी सब की तरह सुरक्षित (और जोर-जोर से हँसता है) और वहॉं पर वो दरिन्दे... छि:”
(शराब की बोतल उठा कर)
”सुना है कि जो भी असहाय और कमजोर है, तेरे आगोश में आकर सब कुछ भूल जाता है। ले आज मुझे भुला कर दिखा वह खेल जो जालिमों ने उस अबला के साथ खेला।”
(पीता है... और अधिक जोश में आकर)
”छि: छि: धिक्कार है मुझे अपने जीवन पर। अगर मैं किसी असहाय को बचा नहीं सकता तो मुझे भी जिन्दा रहने का कोई हक नहीं। मैं इस तरह हार नहीं मान सकता। अभी जाकर उन हरामजादों को मजा चखाता हूँ।”
(रिवाल्वर ढूँढ कर हाथ में लेता है और बाहर की ओर भागता है)
(थोड़ी देर बाद फिर आवाजें आती है... मार दो साले को, तोड़ दो हड्डी पसली... इसके बाद एक गोली की आवाज आती है)
(क्रान्तिकारी को गोली लग जाती है वह गिर पड़ता है और घिसटते हुए उसी हालत में स्टेज पर पहुँचता है)
”फिर भाग गऐ साले नहीं तो वो मजा चखाता...” (आह लंगड़ाता है...)
(टेबल से दोस्त की फोटो उठाकर) “ठीक कहता था मेरे दोस्त, बुराई से लड़ना तेरे बस की बात नहीं।
ठीक कहता था, पर अगर मैं बुराई पर विजय नहीं पा सका तो न सही लेकिन बुराई का इतना बड़ा बोझ मैं अपनी आत्मा पर ढोते हुए अब जिन्दा भी नहीं रहुँगा, इतना भी तू जान ले।”
(दीवार पर लगी देश के शहीदों की तस्वीरों को हाथ जोड़ते हुए)
”देश के सच्चे सपूतों हो सके तो मुझे माफ करना। मैंने तुम्हें अपना आदर्श बनाया लेकिन आज उन दरिन्दों ने मुझे इस काबिल नहीं छोड़ा कि मैं अपनी लड़ाई जारी रख सकूँ। अब अगर मैं जिन्दा बच भी गया तो...”
”नहीं, अपाहिज बनकर जी नहीं सकुँगा इसलिए... हो सके तो मुझे माफ करना...”
(कनपटी पर पिस्तौल रखता है)
(फिर अचानक रुक कर) “नहीं पहले...” (फोन मिलाता है)
”दोस्त वही तेरा जिद्दी यार...
आज एक चीख ने, किसी अबला की, एक चीख ने मेरी जिन्दगी को नई दिशा दी है मेरे भाई। मैं उन दरिन्दों से उस मासूम को नहीं बचा सका मेरे दोस्त...”
”मेरी आत्मा मुझे धिक्कार रही है भाई। अब मैं अपाहिज क्या कर सकता हूँ और अपाहिज ही नहीं बल्कि अधमरा ही समझ!”
”तू जो भी कहता था, ठीक कहता था।”
“मैं अकेला पड़ गया था मेरे दोस्त। काश इस लड़ाई में कुछ और लोग मेरे साथ होते। मेरे यार... बुराई से लड़ने वाले क्या इसी तरह अकेले ही मरते है?”
”खैर, आज के बाद मैं तुझे तंग नहीं करुँगा, तू जीता, मैं हारा.... अलविदा!” (अपनी ही कनपटी पर गोली मारता है)
(दूसरा कलाकार भागते हुए मंच पर प्रवेश करता है... दोस्त की लाश को देखकर स्तब्ध रह जाता है, टटोलता है)
”वही हुआ जिसका डर था।”
(धीरे-धीरे हँसना शुरु करता है और यह हँसी ठहाकों में बदलने लगती है... व्यंगात्मक हँसी)
”समाज को बदलने चला था
गुनाह-विहीन करने चला था...”
(हँसता है)
”भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकुँगा...”
(और जोर से हँसता है फिर धीरे-धीरे उसकी हँसी रोने में बदल जाती है रोता है, बिलखता है)
”भरी सभा में भाषण देते हुए नेता पर छुप कर पत्थर फैंकने वाले, आज के समाज को धिक्कारने वाले आज तू चुप क्यों है। अरे कुछ तो बोल।”
”नहीं बोलेगा, मैं जानता था... तू किसी का कुछ नहीं बिगाड़ सकता।”
”जूझता रहा, जूझता रहा... आखिर किस से... अपने आप से। आज तक मैं सुनता था आज तेरी बारी है। मैंने बार-बार तुझे समझाने की कोशिश की पर तू समझना चाहता ही नहीं था।”
”तूने इन वतन-परस्तों को अपना आदर्श बनाया जिनकी लड़ाई एक जाने पहचाने दुश्मन से थी। परन्तु तेरी लड़ाई, तू भूल गया था कि तेरी लड़ाई घर के ही दुश्मनों से है, घर के भेदियों से है, आस्तीन के सॉंपों से है, फिरकापरस्तों से है।”
”तेरी लड़ाई चन्द लोगों के अलावा उन नकाबपोसों से है जो कहने को तो कानून और देश के रक्षक कहलाते है और अपने मुट्ठी भर लालच के लिए अपनी ही मॉं की अस्मत को दुश्मन के हवाले करने से नहीं चूकते।”
”अपने आपको क्रान्तिकारी कहने वाले तू जयचन्दों की इस धरती पर पृथ्वीराज चौहान बनकर जीना चाहता था, धिक्कार है तेरी नादानी को।”
”अरे पगले, गुनाहों का सरगना बनकर इंसानियत के चिथड़े उड़ाता हुआ, जुल्मों को अति तक पहुँचाता तो करोड़ों नामर्द तेरे गले को हारों से लाद कर बाजे-गाजे के साथ तुझे अपना नेता बनाकर ले जाते और हर खास मौके पर तुझे नोटों से तोलते।”
”अगर इतना करना तेरे बस की बात नहीं थी तो किसी भड़ुवे का चमचा ही बन जाता। थोड़ी सी चापलूसी और दो-चार इधर-उधर की लगा कर बेचारे भोले-भाले लोगों की साख की जड़ों में तेजाब छिड़कता तो कम से कम इस तरह फक्कड़ तो न मरता।”
”अरे चुसी चुसाई हड्डियॉं समेट कर ही तू कार, कोठी, बंगले का मालिक बन जाता।”
”तू क्या सोचता था कि उस औरत की चीख सिर्फ तूने ही सुनी थी। आम बात है यह, सब सुनते है मगर किसी की आत्मा में चेतना नहीं है। सबकी ऑंखों के सामने सब कुछ हो रहा है मगर खुदगर्जी में लोग ये भूल जाते है कि अगर ऐसे ही सब चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब इसके बाद तेरे किसी अपने के साथ भी यही होने वाला है।”
”मेरे भाई जा, जाकर एक बार उस छिन्न-भिन्न मासूम की ऑंखों में झॉंक कर तो देख तुझे उसकी उन पथराई हुई ऑंखों में उभरने वाली काली परछाइयों में जाने-माने लोगों की शक्लें दिखाई देंगी और हो सकता है कि साथ में कुछ वर्दी वाले भी दिखाई दे जाऐं।”
”वर्दी का मतलब समझता है तू ? देश और समाज पर मर मिटने वालों की आत्मा होती है वर्दी लेकिन कुछ लोगों ने इसकी शान को भी तार-तार करके रख छोड़ा है, अरे शुक्र है कि उन्होंने कम से कम उस अबला को चीखने का मौका तो दिया। जानता है क्यों, जिससे किसी खास अन्दाज में ताली बजाने वाले हम तमाशाइयों का मनोरंजन हो सके।”
”उन्होंने सिर्फ दो-चार लात-घूँसे मार कर ही छोड़ दिया तुझे, उसी की आबरु के साथ खिलवाड़ करने के आरोप में तुझे नहीं पकड़ा, दुर्गति नहीं की तेरी, तुझे सलाखों के पीछे सड़ सड़ कर मरने को मजबूर नहीं किया।”
”अब कम से कम तू अपनी मौत तो मरा, इज्ज्त के साथ। अरे काली रात के शहंशाहों के साथ मौज-मस्ती करने वाले ये लोग, सलाखों तक के पीछे दुष्कृति करने वाले ये लोग उस ऑंचल की छॉंव में सिर रखकर चैन की नींद सोते हैं जिसे लोग कानून के नाम से जानते हैं।”
”अरे इंसानियत के साथ खिलवाड़ करने वाले ये लोग, देश, प्रान्त, धर्म, समाज व समुदाय की जड़ों को साम्प्रदायिकता के विष से सींचने वाले ये लोग, दूषित लहू की उत्तेजना में अपनी भाषा अपनी परम्परा, अपनी संस्कृति यहॉं तक कि अपनी जन्मदात्री की इज्जत को खाक में मिला देने वाले ये लोग, तिरंगे से जूता पोंछ कर उसकी शक्ल पर हँसने वाले ये लोग क्या तेरे इस भारतवर्ष को कभी जवानी की दहलीज पर कदम रखने देंगे?”
(सभी को सम्बोधित करते हुए)
”अरे तमाशाइयों, है कोई तुममें से जो सच्चाई की इस पराकाष्ठा को रोंदने वालों को सबक सिखा सके?
कोई है जो ईमानदारी के मुँह से निवाला छीनने वाले की जुबान को हमेशा के लिए बन्द कर सके?”
(निराश होकर)
”कोई नहीं। कोई भी तो नहीं।”
(लाश के पास जाकर)
”लेकिन ऐ दोस्त मैं तुझे मरने नहीं दूँगा, मैं तुझे कायर भी नहीं मानता, तू सच्चा क्रान्तिकारी था और क्रान्तिकारी ही मरा।
कायर मैं हूँ, कायर वो लोग हैं जो जुर्म करने वाले इन मुट्ठी भर लोगों की वाहवाही करते है और तमाशाई बनकर सिर्फ मनोरंजन किया करते हैं।
मगर मेरे दोस्त आज से मैं कायर नहीं रहूँगा, मैं तुझे, क्रान्तिकारी को हमेशा जिन्दा रखूँगा... अपनी प्रेरणा बनाकर।
ले आज मैं तुझे वचन देता हूँ कि तेरी लड़ाई को मैं लड़ुँगा। बुराई के खिलाफ जो जंग तूने शुरु की है उसे खत्म किये बिना मुझे, क्रान्तिकारी को मैात भी नहीं मार सकेगी और ये लड़ाई सदियों इसी प्रकार चलती रहेगी।”
(लाश के हाथों को अपने माथे पर रखता है)
परदा गिरता है।