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बीज

बीज

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“ आजकल इतनी गलाकाट स्पर्धा क्यों है ? हर कोई एक दुसरे को धकेलकर आगे बढ़ने की होड़ में क्यूँ लगा रहता है ? बताओ माँ।” स्नेहा विह्वल होकर माँ से सवाल करती है।

“ बेटी , मनुष्य को छोड़कर बाकी सभी जीव-जंतु बहुत सरल होते हैं। ना तो उन्हें अपनी काबिलियत पर गर्व होता और ना ही दूसरों के आगे खुद को साबित करने का शौक। पर, हम मनुष्य अपने को सबसे आगे दिखलाने के चक्कर में हमेशा बेचैन रहते हैं !" माँ ग्लास में दूध उड़ेलते हुए बोली।

" और एक तुम हो, जो सारा दिन परिवार की परवरिश में अपने को गलाते रहती हो।

घर में इतने सारे लोग हैं, किसी से कोई स्पर्धा नहीं रहता है बैल की तरह जूती रहती हो ! " बेटी उदास होकर बोली।

“ सुन, बीज जब अच्छी तरह गलेगा तभी तो वटवृक्ष तैयार होगा और तभी होगी परिंदों की चहचहाहट। बीज कहाँ सोचता मुझे गलना है ? ले, इसे और जा, दादी , बुआ, चाचा सब को दूध पहुँचा दे।" बेटी के हाथ में ट्रै थमाते हुए माँ हँसते हुए बोली ।

" सीख अपनी अम्मा से, तुझे भी वटवृक्ष बनकर परिंदो का पोषण करना होगा । "

वार्तालाप सुन, बरामदे पर बैठी दादी, बहू के सर पर हाथ रखते हुए और पोती की गलबहियां लगाते हुए बोली।


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